Friday, January 24, 2020

246...अरे पागल! मन तू क्यों घबराए

गणतंत्र दिवस से दो कदम पहले
गणतंत्र यानी जनवरी का अंत
सभी को शुभकामनाएँ
हमारा गणतंत्र अमर रहे
सादर अभिवादन..
आइए चलें रचनाओं का आस्वादन करें...

हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? बोलो यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है। हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह  भीड़तंत्र के अधीन क्यों है ?


कितनी सारी, बातें करती हो तुम! 
और, मैं चुप सा! 
बज रही हो जैसे, कोई रागिनी, 
गा उठी हो, कोयल, 
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन, 
बलखाती, निश्छल धार सी तुम! 
और, मैं चुप सा! 


अपनी मंज़िल नज़र नहीं आती..
इक मुसलसल सा रास्ता हूँ मैं...!

रात 'पूनम' सी हो गयी रौशन...
ज़ीनते रात हूँ, शमा हूँ मैं...!


तू छत पे कल आना 
गन्ना चूसेंगे 
बेशक जल्दी जाना 

गन्ने जब टूटेंगे 
तूने बहकाया 
घरवाले कूटेंगे 


नफ़रत किससे क्यों मुझको आज
सुलग रहे दवानल से सवाल
 क्रोध हिंसा की पीड़ा रुलाए
मेरे अंतर्मन में अश्रु कोहराम मचाए
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए
..
आज बस इतना ही
फिर मिलेंगेेेेे
सादर



7 comments:

  1. मन ऐसा होता ही है दी..
    जरा- सा में वह घबराने लगता है ,
    और जरा में ही वह प्रफुल्लित हो जाता है।
    मन को कितना भी कठोर करिए,
    लेकिन वह भावनाओं के दलदल में फंस ही जाता है और विवेक उसका चेतावनी देते रह जाता है।
    ईश्वर ने मानव को मन इसलिए दे रखा है कि वह संपूर्ण विश्व में मानवता का संदेश प्रसारित करें, शांतिदूत बनकर " जियो और जीने दो" के सिद्धांत का पोषण करें परंतु आदिकाल से ऐसा हो नहीं सका फिर भी लक्ष्य यही है हमारा मन निर्मल , कोमल और निश्छल हो।
    मेरे लेख को मुखरित मौन के पटल पर शामिल करने के लिए आपका हृदय से आभार यशोदा दी।

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  2. व्वाहहहहभभ..
    शुभकामनाएँ.....
    सादर..

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  3. .. बहुत-बहुत धन्यवाद दी मेरी रचना को शामिल करने के लिए मन तो चंचल है वह भला कब किसी से पगा है सारी रचनाएं बहुत अच्छी है

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  4. वाह 👌👌 बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई

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  5. सुंदर संगम बहुत मनभावन लिंंकों से सजा सुंदर अंक ।

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