Tuesday, December 31, 2019

222.......छोड़ दिया मझधार में मुझे.....

सादर अभिवादन
आज प्रस्थान दिवस है
आज के बाद अतीत हो जाएगा
ये बेचारा..
चर्चाकार के ब्लॉग से की श्रृंखला में
आज है मन का मंथन

भाई कुलदीप कथन

कृपा करना मां हाटेशवरी रक्षा करना सदा मेरी। 
मेरा ये नश्वर जीवन, 
महकाए सदा औरों का उपवन, 
हृदय में रहे सदा देश प्रेम, 
करूं सदा मैं काम नेक, फूल हूं या शूल हूं मैं, 
मैं खुद भी नहीं जानता। 
मेरा देश हिंदुस्तान है जो सभ्यता सब से महान है, 
दिखाती है गीता पथ, ये मिला मुझे वरदान है। 
मुझे वेदों का उपहार मिला है, 
मां हाटेशवरी से प्यार मिला है, 
मेरे आदर्श श्री राम हैं, 
कंठ में शिव नाम है, 
विवेकानंद का धर्म है 
मेरी यही मेरी पहचान है।

अब मन का मंथन से
चुनिन्दा रचनाएँ

ये उनका स्वाभिमान है..,
ये केवल  सफेद छड़ी नहीं,
दृष्टिहीनों की पहचान है....
पथ में क्या है,, उन्हे बताती,
आत्म निरभरता का मंत्र सिखाती,
चलते हुए उन्हें  सुरक्षा देती,
ये दृष्टिहीन है, चलने वालों को बताती।


किस धर्म के हैं?
इनकी जात क्या है?
न हिंदू को इस से मतलब,
न मुस्लमान को.......
कारखानों या ढाबों  पर,
काम कर रहे बच्चों से
नहीं पूछते उनका मजहब।
कोई नहीं पहचानता,
ये उनकी जात, मजहब के  हैं....


मेंहदी ...  
जब टूटता  हैं,
पति पत्नी का पावन रिशता,
तब रोती है मेंहदी,
क्योंकि उसने ही,
इनके जीवन में
प्रेम के रंग भरे थे......
मेंहदी  चाहती है,
सब में प्यार बढ़े,


नहीं थी आंखे,
पर उन दोनों के पास ही
आंखे थी......
एक की आंखों ने
मेरी बुझी हुई
आंखे देखी
...छोड़ दिया मझधार में मुझे.....


जब तुम  पापा!
आये थे घर
तिरंगे में लिपटकर
तब मैं बहुत रोई थी....
शायद तब मैं
बहुत छोटी थी,
बताया गया था मुझे,
तुम मर चुके हो....
मुझे याद है पापा!
कहा था जाते हुए तुमने
मैं दिवाली पर आऊंगा,


स्वागत है

कल का नव-वर्षांक विभा दीदी के नाम

सादर




Monday, December 30, 2019

221..मुख्तलिफ राहों में तूने ही तो संभाला है


अलविदा
अब कभी नहीं मिलेंगे


सादर अभिनन्दन..
बस अब
घण्टों में बताया जाए तो
कुछ ही घण्टे और

चलिए आज मिलें
सखी पम्मी सिंह से
सखी पम्मी सिंह के बारे में
एक ही शब्द में वर्णन करना मुश्किल है - 
व्यावहारिक दृष्टिकोण, थोड़ा सा हास्य, मृदुभाषी, 
शांत और आरक्षित व्यक्तित्व, 
अच्छी किचनक्वीन, 
देखभाल करने वाली और बातूनी महिला

प्रस्तुत है उनके ब्लॉग की चुनिन्दा रचनाएँ

जब  भी घिरती हूँ
बाकी सब जहाँ के रवायतों में सहेज रखा ..
पर.. जब भी घिरती हूँ दुविधाओं में 
माँ..सच तेरी, बहुत कमी खलती है,

मुख्तलिफ राहों में तूने ही तो संभाला है
अब हवा दुखों की तब्दील  होती नहीं 
सर पे हथेलियों की गर्माहट महसूस करती नहीं 


अनर्गल प्रलाप फेर में, क्यूँ नित्य मचाएं शोर।
तर्क करें ठोस बात पर, यही अस्तित्व की डोर।।

आस्था धर्म न तर्क जाने, न जाने सर्व विज्ञान।
परंपरा के निर्वहन में, न खीचें दुजें .. कान।।


मुक्कमल हर बात हुई 
कदम पड़े छत पे 
दिन में चाँद खिल गई 
...
अमावस के स्याह में 
शाम गुजार रहा
बेखुदी में जल रहा


इंसानियत मादूम हुए,
आँखों में बाजार समाएं बैठे हैं
देखे थे जो सब्ज़-ए-चमन,
वो ख्वाबोंं में समाएं बैठे हैं

किस तरह भूलें वो बस्ती 
ओ बच्चों की ठहरी निगाहें
ये दर्द गहरा,जख़्म ताजा 
बजारों के शोर उठाएं बैठे हैं


एहतियात जरूरी है,घर को बचाने के लिए।
पेड़-पौधे ज़रूरी है,ज़मीन को संवारने के लिए।।

कर दिया ख़ाली ,जो ताल था कभी भरा ।
मौन धरा पूछ रही, किसने ये सुख हरा।।

दरक रही धरती की मिट्टी, उजड़े सारे बाग।
त्राहि - त्राहि मचा रहा, छेड़ो अब नये राग।।


अहो! क्या कहते हो..

गुजरते वक्त में अफ़साने दर्ज है
तमाम पल कुरबत के
जेहन की सरगोशियां बन सांसों में दर्ज है
अहो!
शानों की रेखाओं संग गुस्ताखियाँ भी खूब चली..
पर,अपनी मनमर्जियां भी खूब रही,

स्वागतम्

Sunday, December 29, 2019

220..मौत के नायाब तौर तरीके

 
अलविदा
अब कभी नहीं मिलेंगे


सादर अभिवादन
कालजयी अब कभी - कभार


आज मिलिए भाई रवीन्द्र सिंह जी से
भाई रवीन्द्र जी के बारे में
हिन्दी कविता, कहानी,आलेख आदि लेखन 1988 से ज़ारी. आकाशवाणी ग्वालियर से 1992 से 2003 के बीच कविताओं, कहानियों एवं वार्ताओं का नियमित प्रसारण. नवभारत टाइम्स . कॉम पर बूंद और समंदर अपना ब्लॉग. Website: हिन्दी-आभा*भारत (http://www.hindi-abhabharat.com), Blog: हमारा आकाश https://ravindrasinghyadav.wordpress.com ब्लॉग पर सक्रिय.

पढ़िए उनके ब्लॉग की चुनिन्दा रचनाएँ

फ़ासले 
पैदा करना तो 
सियासत की 
रिवायत है,
अदब को 
आज तक 
अपनी 
ज़ुबाँ की 
आदत है। 


दास्तां ...
कोई   गुज़रा
कोई  मुक़रा
कोई  सिमटा
अपने - अपने  दायरों में ,
मैं  भी एक गवाह  हूँ  सफ़र  का
यों   ही  न  भूल  मुझे।
ज़िन्दगी  तू
अब  सिखा  दे
जीने  का  उसूल  मुझे।  


लगता है 
सब फ़ासले मिट गये 
हमारे दरमियाँ 
बदलीं हैं ज़माने की हवाएँ,
लोकतंत्र है अब तो 
राजा-रानी की 
हो गयी कहानी पुरानी।  


प्यार का महल ....
तुम्हारे प्यार का 
रंगीन महल 
मुकम्मल  होने से पहले 
क्यों ढहता है 
बार-बार 
भरभराकर 


ग़रीब की अकाल मौत
षड़यंत्र में मौत
लापरवाही में मौत
सनक में मौत
हनक में मौत
सेल्फ़ी में मौत
लालच में मौत
स्वाभाविक मौत
असमय मौत
राजनैतिक मौत
बलिदानी मौत
बे-मौत मौत


यह सड़ाँध मारती
आब-ओ-हवा 
भले ही
दम घोंटने पर
उतारू है,
पर अब करें भी
तो क्या करें
यही तो
हमसफ़र है
दुधारू है।


स्वागत का सिलसिला जारी है

Saturday, December 28, 2019

219...हवायें हिंदू और मुसलमान हो रही हैं,

अलविदा
अब कभी नहीं मिलेंगे


सादर अभिवादन
आज से तीन दिनों तक आस्वादन कीजिए
चर्चाकार की रचनाओँ का

आज की चर्चाकारा हैं
सखी श्वेता सिन्हा
वे भी महादेवी के नक़्शे-क़दम पर ही हैं


मोह-भंग ...

भोर का ललछौंहा सूरज,
हवाओं की शरारत,
दूबों,पत्तों पर ठहरी ओस,
चिड़ियों की  किलकारी,
फूल-कली,तितली
भँवरे जंगल के चटकीले रंग;
धवल शिखरों की तमतमाहट
बादल,बारिश,धूप की गुनगुनाहट
झरनो,नदियों की खनखनाहट
समुंदर,रेत के मैदानों की बुदबुदाहट

मौन हूँ मैं ...

हवायें हिंदू और मुसलमान हो रही हैं,
मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही हैं।
मेरी वैचारिकी तटस्थता पर अंचभित
जीवित हूँ कि नहीं साँसें देह टो रही हैं।

सौंदर्य-बोध ...

दृष्टिभर
प्रकृति का सम्मोहन
निःशब्द नाद
मौन रागिनियों का
आरोहण-अवरोहण
कोमल स्फुरण,स्निग्धता
रंग,स्पंदन,उत्तेजना,
मोहक प्रतिबिंब,
महसूस करता सृष्टि को 
प्रकृति में विचरता हृदय
कितना सुकून भरा होता है


चिरयौवन प्रेम ....

तुम्हारे गुस्से भरे
बनते-बिगड़ते चेहरे की ओर 
देख पाने का साहस नहीं कर पाती हूँ
भोर के शांत,निखरी सूरज सी तुम्हारी आँखों में
बैशाख की दुपहरी का ताव
देख पाना मेरे बस का नहीं न
हमेशा की तरह चुपचाप 
सिर झुकाये,
गीली पलकों का बोझ लिये 
मैं सहमकर तुम्हारे सामने से हट जाती हूँ


रात ....

सर्द रात के 
नम आँचल पर
धुँध में लिपटा
तन्हा चाँद
जाने किस
ख़्याल में गुम है
झीनी चादर
बिखरी चाँदनी
लगता है 
किसी की तलाश है
....
आज शनिवार से 2019 की विदाई की सिलसिला
आज के बाद तीन दिनों तक
एक ही ब्लाग की रचनाएँ पढ़वाएँगे
सादर
स्वागतम्







Friday, December 27, 2019

218...अलि, मैं कण-कण को जान चली

सादर अभिवादन

स्मृतिशेष महादेवी वर्मा
26 मार्च, 1907 - 11 सितम्बर, 1987, 

महादेवी वर्मा अपने परिवार में कई पीढ़ियों के बाद उत्पन हुई। उनके परिवार में दो सौ सालों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई थी, यदि होती तो उसे मार दिया जाता था। दुर्गा पूजा के कारण आपका जन्म हुआ। आपके दादा फ़ारसी और उर्दू तथा पिताजी अंग्रेज़ी जानते थे। माताजी जबलपुर से हिन्दी सीख कर आई थी, महादेवी वर्मा ने पंचतंत्र और संस्कृत का अध्ययन किया। महादेवी वर्मा जी को काव्य प्रतियोगिता में 'चांदी का कटोरा' मिला था। जिसे इन्होंने गाँधीजी को दे दिया था। महादेवी वर्मा कवि सम्मेलन में भी जाने लगी थी, वो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान कवि सम्मेलन में अपनी कवितायें सुनाती और उनको हमेशा प्रथम पुरस्कार मिला करता था। महादेवी वर्मा मराठी मिश्रित हिन्दी बोलती थी।

कहते हैं कि कवितायें और कहानियाँ समाज का आईना होती हैं, अर्थार्थ कविताओं और कहानियों का सृजन समाज में घटित घटनाओं के आधार पर ही होता है। शायद ही कोई ऐसा हो जिसने कभी कविताओं या कहानियों का मज़ा न लिया हो। भले ही हम कविताओं और कहानियों के गूढ़ अर्थ को समझने में असक्षम हों, परन्तु कहीं न कहीं ये रचनायें हमें जीवन का मूल मंत्र सिखा जाती हैं। हिंदी साहित्य के कई कवि और लेखक हुए हैं, परन्तु उनमें से कुछ ऐसे हैं जो अपनी अमिट छाप छोड़ गये हैं। हिंदी साहित्य जगत में ऐसा एक नाम है – श्रीमती महादेवी वर्मा।

कुछ प्रतिनिधि रचनाओं का पठन करें

सबका क्रन्दन पहचान चली

जो दृग में हीरक-जल भरते
जो चितवन इन्द्रधनुष करते
टूटे सपनों के मनको से
जो सुखे अधरों पर झरते,

जिस मुक्ताहल में मेघ भरे
जो तारो के तृण में उतरे,
मै नभ के रज के रस-विष के
आँसू के सब रँग जान चली।

जिसका मीठा-तीखा दंशन,
अंगों मे भरता सुख-सिहरन,
जो पग में चुभकर, कर देता
जर्जर मानस, चिर आहत मन;

जो मृदु फूलो के स्पन्दन से
जो पैना एकाकीपन से,
मै उपवन निर्जन पथ के हर
कंटक का मृदु मत जान चली।

गति का दे चिर वरदान चली।
जो जल में विद्युत-प्यास भरा
जो आतप मे जल-जल निखरा,
जो झरते फूलो पर देता
निज चन्दन-सी ममता बिखरा;

जो आँसू में धुल-धुल उजला;
जो निष्ठुर चरणों का कुचला,
मैं मरु उर्वर में कसक भरे
अणु-अणु का कम्पन जान चली,
प्रति पग को कर लयवान चली।

नभ मेरा सपना स्वर्ण रजत
जग संगी अपना चिर विस्मित
यह शुल-फूल कर चिर नूतन
पथ, मेरी साधों से निर्मित,


छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू
स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू
परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!

झर गये ख्रद्योत सारे,
तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे;
बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे!
साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात!

व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा
प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा;
आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा!
छीजता है इधर तू, उस ओर बढता प्रात!

प्रणय लौ की आरती ले
धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले
मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्जवल भारती ले
मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात।

कौन भय की बात।
पूछता क्यों कितनी रात?


कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार

हँस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग

आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार



कम्पित कम्पित,
पुलकित पुलकित,
परछा‌ईं मेरी से चित्रित,
रहने दो रज का मंजु मुकुर,
इस बिन श्रृंगार-सदन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

सपने औ' स्मित,
जिसमें अंकित,
सुख दुख के डोरों से निर्मित;
अपनेपन की अवगुणठन बिन
मेरा अपलक आनन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

जिनका चुम्बन
चौंकाता मन,
बेसुधपन में भरता जीवन,
भूलों के सूलों बिन नूतन,
उर का कुसुमित उपवन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

दृग-पुलिनों पर
हिम से मृदुतर,
करूणा की लहरों में बह कर,
जो आ जाते मोती, उन बिन,
नवनिधियोंमय जीवन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।

जिसका रोदन,
जिसकी किलकन,
मुखरित कर देते सूनापन,
इन मिलन-विरह-शिशु‌ओं के बिन
विस्तृत जग का आँगन सूना!
तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना।



जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप, नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना;

वे नीलम के मेघ, नहीं
जिनको है घुल जाने की चाह
वह अनन्त रितुराज,नहीं
जिसने देखी जाने की राह|

वे सूने से नयन,नहीं
जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज,नही
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती;

ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं,नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!
...
मन नही भरा
पर
पुरानी पढ़ता कौन है आज-कल
सारे कालजयी कहकर निकल लेते हैं
और
ऐसी रचनाएँ नए लोग लिखते ही नहीं
सादर..



Thursday, December 26, 2019

217...पंछियों को फिर कहाँ पर ठौर है ....

सादर अभिवादन
नए वर्ष का स्वागत
हम कुछ इस तरह से करेंगे
सोची ही नही गई थी
आज पढ़िए
श्रद्धेय कुंवर बेचैन जी की रचनाएँ
डॉ० कुँअर बेचैन का वास्तविक नाम डॉ० कुँवर बहादुर सक्सेना है। आपका जन्म 1 जुलाई 1942 को उत्तर प्रदेश के उमरी गांव (ज़िला मुरादाबाद) में हुआ था। आपका बचपन चंदौसी में बीता। आप एम.कॉम, एम.ए (हिंदी) व पी-एच.डी हैं। आपने ग़ाज़ियाबाद के एम.एम.एच. महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में अध्यापन किया व रीडर भी रहे..
आप हिन्दी गीत व ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं

आपने अनेक विधाओं में साहित्य-सृजन किया है, आपके अनेक गीत संग्रह, ग़ज़ल संग्रह, काव्य संग्रह, महाकाव्य तथा उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं

चलिए चलते हैं रचनाओँ की ओर...

ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर
मुँह में धुआँ आँख में पानी
लेकर अपनी राम कहानी
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर ।

मेरी कुटिया के सम्मुख ही
ऊँचे घर में बड़ी धूप है
गली हमारी वर्फ़ हुई क्यों
आँगन सारा अंधकूप है
सिर्फ़ यही चढ़ते सूरज से 
माँग रहा इंसाफ़ दिसम्बर ।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।

पेट सभी की है मजबूरी
भरती नहीं जिसे मजदूरी
फुटपाथों पर नंगे तन क्या
हमें लेटना बहुत ज़रूरी
इस सब चाँदी की साज़िश को 
कैसे कर दे माफ़ दिसम्बर।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।

छाया, धूप, हवा, नभ सारा
इनका सही-सही बँटवारा
हो न सका यदि तो भुगतेगी
यह अति क्रूर समय की धारा
लिपटी-लगी छोड़कर अब तो कहता 
बिलकुल साफ़ दिसम्बर ।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।


अब आग के लिबास को ज़्यादा न दाबिए,
सुलगी हुई कपास को ज़्यादा न दाबिए ।

ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें,
चटके हुए गिलास को ज़्यादा न दाबिए ।

चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में,
पैरों तले की घास को ज़्यादा न दाबिए ।

मुमकिन है ख़ून आपके दामन पे जा लगे,
ज़ख़्मों के आसपास यों ज़्यादा न दाबिए ।

पीने लगे न ख़ून भी आँसू के साथ-साथ,
यों आदमी की प्यास को ज़्यादा न दाबिए ।


मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है।

तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने आ जकड़ी है।

तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब जाल-पूरती मकड़ी है।

तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल पात-चबाती बकरी है।



देखते ही देखते पहलू बदल जाती है क्यूँ
नींद मेरी आँखों में आते ही जल जाती है क्यूँ।

हाथ में 'शाकुंतलम' है और मन में प्रश्न है
याद की मछली अंगूठी को निगल जाती है क्यूँ।

ऐ मुहब्बत, तू तो मेरे मन में खिलता फूल है
तुझसे भी उम्मीद की तितली फिसल जाती है क्यूँ ।

इक सुहानी शाम मुझको भी मिेले, चाहा अगर
आने से पहले ही फिर वो शाम ढल जाती है क्यूँ ।

ये सुना था मौत पीछा कर रही है हर घड़ी
ज़िन्दगी से मौत फिर आगे निकल जाती है क्यूँ ।

मेरे होठों पर हँसी आते ही गालों पर मेरे
आंसुओं की एक सन्टी सी उछल जाती है क्यूँ।

आंसुओं से जब भी चेहरे को निखारा ऐ 'कुँअर'
ज़िन्दगी चुपके से आकर धूल मल जाती है क्यूँ।


नीड़ के तिनके
अगर चुभने लगें
पंछियों को फिर कहाँ पर ठौर है।

जो न होतीं पेट की मज़बूरियाँ
कौन सहता सहजनों से दूरियाँ
छोड़ते क्यों नैन के पागल हिरन
रेत पर जलती हुई कस्तूरियाँ

नैन में पलकें
अगर चुभने लगें
पुतलियों को फिर कहाँ पर ठौर है।

पंख घायल थे मगर उड़ना पड़ा
दूर के आकाश से जुड़ना पड़ा
एक मीठी बूँद पीने के लिए
जिस तरफ़ जाना न था मुड़ना पड़ा

फूल भी यदि
शूल-से चुभने लगें
तितलियों को फिर कहाँ पर ठौर है।
...
आज यहीं तक
कल देखिए क्या आता है
कौन आता है
सादर