Saturday, March 31, 2018

ये रात ये तन्हाई.....मीना कुमारी


ये रात ये तन्हाई
ये दिल के धड़कने की आवाज़

ये सन्नाटा
ये डूबते तारॊं की 

खा़मॊश गज़ल खवानी
ये वक्त की पलकॊं पर 

सॊती हुई वीरानी
जज्बा़त ऎ मुहब्बत की

ये आखिरी अंगड़ाई 
बजाती हुई हर जानिब 

ये मौत की शहनाई 
सब तुम कॊ बुलाते हैं

पल भर को तुम आ जाओ
बंद होती मेरी आँखों में 

मुहब्बत का
एक ख्वाब़ सजा जाओ

-स्मृतिशेष मीनाकुमारी

Thursday, March 22, 2018

अशोक की चिन्ता...जयशंकर प्रसाद

जलता है यह जीवन पतंग

जीवन कितना? अति लघु क्षण,
ये शलभ पुंज-से कण-कण,
तृष्णा वह अनलशिखा बन
दिखलाती रक्तिम यौवन।
जलने की क्यों न उठे उमंग?

हैं ऊँचा आज मगध शिर
पदतल में विजित पड़ा,
दूरागत क्रन्दन ध्वनि फिर,
क्यों गूँज रही हैं अस्थिर

कर विजयी का अभिमान भंग?

इन प्यासी तलवारों से,
इन पैनी धारों से,
निर्दयता की मारो से,
उन हिंसक हुंकारों से, 

नत मस्तक आज हुआ कलिंग।

यह सुख कैसा शासन का?
शासन रे मानव मन का!
गिरि भार बना-सा तिनका,
यह घटाटोप दो दिन का

फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग!

यह महादम्भ का दानव
पीकर अनंग का आसव
कर चुका महा भीषण रव,
सुख दे प्राणी को मानव
तज विजय पराजय का कुढंग।

संकेत कौन दिखलाती,
मुकुटों को सहज गिराती,
जयमाला सूखी जाती,
नश्वरता गीत सुनाती,

तब नही थिरकते हैं तुरंग।

बैभव की यह मधुशाला,
जग पागल होनेवाला,
अब गिरा-उठा मतवाला
प्याले में फिर भी हाला,

यह क्षणिक चल रहा राग-रंग।

काली-काली अलकों में,
आलस, मद नत पलकों में, 
मणि मुक्ता की झलकों में,
सुख की प्यासी ललकों में, 

देखा क्षण भंगुर हैं तरंग।

फिर निर्जन उत्सव शाला,
नीरव नूपुर श्लथ माला,
सो जाती हैं मधु बाला,
सूखा लुढ़का हैं प्याला,

बजती वीणा न यहाँ मृदंग।

इस नील विषाद गगन में
सुख चपला-सा दुख घन मे,
चिर विरह नवीन मिलन में,
इस मरु-मरीचिका-वन में

उलझा हैं चंचल मन कुरंग।

आँसु कन-कन ले छल-छल
सरिता भर रही दृगंचल;
सब अपने में हैं चंचल;
छूटे जाते सूने पल,

खाली न काल का हैं निषंग।

वेदना विकल यह चेतन,
जड़ का पीड़ा से नर्तन,
लय सीमा में यह कम्पन,
अभिनयमय हैं परिवर्तन,

चल रही यही कब से कुढंग।

करुणा गाथा गाती हैं,
यह वायु बही जाती है,
ऊषा उदास आती हैं,
मुख पीला ले जाती है,

वन मधु पिंगल सन्ध्या सुरंग।

आलोक किरन हैं आती,
रेश्मी डोर खिंच जाती,
दृग पुतली कुछ नच पाती,
फिर तम पट में छिप जाती,

कलरव कर सो जाते विहंग।

जब पल भर का हैं मिलना,
फिर चिर वियोग में झिलना,
एक ही प्राप्त हैं खिलना,
फिर सूख धूल में मिलना,

तब क्यों चटकीला सुमन रंग?

संसृति के विक्षत पर रे!
यह चलती हैं डगमग रे!
अनुलेप सदृश तू लग रे!
मृदु दल बिखेर इस मग रे!

कर चुके मधुर मधुपान भृंग।

भुनती वसुधा, तपते नग,
दुखिया है सारा अग जग,
कंटक मिलते हैं प्रति पग,
जलती सिकता का यह मग,

बह जा बन करुणा की तरंग,
जलता हैं यह जीवन पतंग। 

-जय शंकर प्रसाद

Tuesday, March 20, 2018

"मिलकर जुदा हुए तो...क़तील शिफ़ाई

मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम;
एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम;

आँसू छलक छलक के सतायेंगे रात भर;
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम;

जब दूरियों की आग दिलों को जलायेगी;
जिस्मों को चाँदनी में भिगोया करेंगे हम;

गर दे गया दग़ा हमें तूफ़ान भी "क़तील";
साहिल पे कश्तियों को डूबोया करेंगे हम।
-क़तील शिफ़ाई
प्रस्तुतिः अनु कश्यप


Thursday, March 15, 2018

दिल को जीने का सहारा भी न दें....कुसुम कोठारी


माना उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ नही लेकिन 
पर ये भी क्या,कि दिल को जीने का सहारा भी न दें।

उजडने को उजडती है बसी  बसाई बस्तियां 
पर ये भी क्या के फकत एक आसियां भी ना दे। 

खिल के मिलना ही है धूल मे जानिब नक्बत
पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।

माना डूबी है कस्तियां किनारों पे मगर
पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेजार 
पर ये क्या उक़ूबत तिश्नगी मे पानी भी न दे।

मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन 
पर ये क्या के अजुमन को आब दारी भी न दे ।

-कुसुम कोठारी

नक्बत=दुर्भाग्य, अश़्फाक =सहारा, आब ए चश्म = आंसू,
उक़ूबत =सजा,तिश्नगी =प्यास

Thursday, March 8, 2018

दर्द को हम बाँट लेंगे !!!.........रश्मि प्रभा

विश्व महिला दिवस पर विशेष
तुम्हें क्या लगता है
मुझे शाखों से गिरने का डर है
तुम्हें ऐसा क्यूँ लगता है
कैसे लगता है
तुमने देखा न हो
पर जानते तो हो
मैं पतली टहनियों से भी फिसलकर निकलना
बखूबी जानती हूँ ....


डर किसे नहीं लगता
क्यूँ नहीं लगेगा
क्या तुम्हें नहीं लगता ...
तुम्हें लगता है
मैं जानती हूँ !


संकरे रास्तों से निकलने में तुम्हें वक़्त लगा
मैं धड़कते दिल से निकल गई
बस इतना सोचा - जो होगा देखा जायेगा ...
होना तय है , तो रुकना कैसा !


एक दो तीन ... सात समंदर नहीं
सात खाइयों को जिसने पार किया हो
उसके अन्दर चाहत हो सकती है
असुरक्षा नहीं ...
और चाहतें मंजिल की चाभी हुआ करती हैं !


स्त्रीत्व और पुरुषार्थ का फर्क है
वह रहेगा ही
वरना एक सहज डर तुम्हारे अन्दर भी है
मेरे अन्दर भी ...
तुम्हारे पुरुषार्थ का मान यदि मैं रखती हूँ
तो मेरे स्त्रीत्व का मान तुम भी रखो
न तुम मेरा डर उछालो
न मैं ....
फिर हम सही सहयात्री होंगे
एक कांधा तुम होगे
एक मैं ..... दर्द को हम बाँट लेंगे !!!

-रश्मि प्रभा