Friday, January 31, 2020

252.अच्छे दिन की द बेस्ट फार्मूला, 'गोली मारो' और 'राज करो'

सादर अभिवादन
मास जनवरी की अंतिम प्रस्तुति
मनहूस दिन मास जनवरी का
सन 1599 में
भारत में ब्रिटेन की पहली 
ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना हुई।
खैर जो होनी थी वो हो गई
आगे तो सम्हल जाओ
चलिए कुछ रचनाएँ देखें ...

क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये
रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये
मंजिल पे जा के याद आता है
आदमी मुसाफिर है...


होता  नहीं है छूना आसान सरहदें 
कर देतीं हैं जिस्म लहूलुहान सरहदें 

सूनी आँखें  हैं और खुश्क  हैं  होंठ 
तपते इंसानों सी रेगिस्तान सरहदें 


बिट्टू!!!
का  री नादान गुड़ियाँ,
चल पास आ  मेरे
तेरी धमा चौकड़ी थमती नहीं
तेरे बालों में आ तेल लगा दूँ
कसकर एक जुड़ा बना दूँ
बींधते है जो नज़र तुझे
उन ऩजरों  से बचाकर
माथे में एक काला टीका लगा दूँ

मेरी फ़ोटो
अब
न विचार में गांधी हैं
न हृदय में राम ही
'गांधी' की जगह 'गोली मारो' हो गया
और 'राम' की जगह 'राज करो'।


इक तुम्हारी निगाह के अलावा
हमारा ठिकाना कोई नहीं,
कल की कल सोचेंगे
आज तुमसे हैं
मुख़ातिब
हम बहरहाल ....
......
आज बस इतना ही
सादर

Thursday, January 30, 2020

252..सन्नाटे को सुनने की कोशिश करती हूँ

बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
माँ सरस्वती की असीम कृपा चर-अचर जगत के
समस्त जीवों के मन,बुद्धि और वाणी पर बरसती रहे।
..
आज शहीद दिवस भी है
शहीद दिवस
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महात्मा गाँधी निर्वाण तिथि
शत्-शत् नमन

आज हमें डबल प्रस्तुति बनानी थी सो
आज एक ही ब्लॉग से


ज़िंदगी के साथ रिश्ता यूँ निभाना चाहिए 
करके दिल का बोझ हल्का मुस्कुराना चाहिए 

रूठ जाने पर निकल जाना अकेले दूर तक 
रात गहराने से पहले लौट आना चाहिए 

इक्कीस बरस की थी सुखमनी 
जब आई थी ब्याह के
तब पता न था उसे
की जीतू के स्वभाव का
शादी के कुछ दिन बाद ही से
डराता धमकाता रहा वो
और वो डरती रही

जी लूँ कुछ पल साथ तुम्हारे 
सुन लूँ तेरे सारे सुख दुःख 
कह दूँ तुझसे मन की गाथा 
ऐ पल थम जा,थोड़ा सा रुक 

समझ न पाई क्या न भाया 
कब मैंने तुझको उकसाया 
कब कह दी कुछ कडवी बातें 
कब कुछ अनचाहा सा गाया 

सुकून तुझे तलाशते तलाशते 
बीती जा रही है उम्र 
पर तुम हमेशा पहुँच से बाहर 

तुम्हे पाने की चाहत में 
बदलती गयी जीने का ढंग 
रख दी हसरतें एक कोने में 
....

रंजना जी के बारे में
रंजना जी की ही कलम से
सन्नाटे को सुनने की कोशिश करती हूँ... 
रोज़ नया कुछ बुनने की कोशिश करती हूँ... 
नहीं गिला मुझको की मेरे पंख नहीं है.... 
सपनो में ही उड़ने की कोशिश करती हूँ.
...
कल फिर मिलते हैं
सादर




Wednesday, January 29, 2020

251...समझना जरूरी नहीं, होता है हमेशा पागलपन

वसंत पंचमी की पूर्व संध्या पर
हार्दिक अभिनन्दन
आज ही मधुरिमा मे एक
वसंत गीत पढ़ी
आप भी पढ़िए

वसंत गीत.. सुमन खरे
Image may contain: flower, nature and outdoor
आयो सखि मधु ऋतुराज वसंत
अविजित शिशिर का हुआ अंत..
धरती ने ओढ़ी पीत चुनर
दिनकर के तेवर तीक्ष्ण प्रखर
फूले महुआ चहुं दिगदिगन्त
आयो सखि..
मीठी आंधी फगुनी बयार
वामा तकती नित घर का द्वार
लौटा अब तक न मेरा कंत
आयो सखि..
फागुन पहुना ने दी दस्तक
पीछा करता पहुंचा घर तक
गये राह भटक मनवां के संत
आयो सखि..
....
अब चलिए रचनाओं का ओर...
मैं भी जी रही थी 
अपने हालात को
अपनी नियति मान
समझौता करते हुए 
हर मौसम एक सी 
रहते रहते
खुद को पत्थर ही 
समझने लगी थी


कोई हर्फ, नहीं, 
गूंजती हुई, इक लम्बी सी चुप्पी,
कँपकपाते से अधर,
रूँधे हुए स्वर,
गहराता, इक सूनापन,
सांझ मद्धम,
डूबता सूरज,
दूर होती, परछाईं,
लौटते पंछी,
खुद को, खोता हुआ मैं,


जिसके हो गए उसी में खो गए
रंग में उसी के रंगते गए
क्या यह प्यार नहीं ?
यह है बहुआयामी
और अनंत  सीमा जिसकी
यह तो है सुगन्धित बयार सा
जिसे बांधना सरल नहीं |


शीतक्षत उँगलियों से
कब तक लिखे जायेंगे
अंधेरों के गीत

रात लौट आयी है
इतना ही है मेरी

उम्र क़ैद का दायरा



किसी
शब्दकोष
में
कहाँ
पाये जाते हैं

‘उलूक’

पागल
पागल होते हैं

पागल
कैसे
बनायेंगे
किसी को

समझना
जरूरी नहीं है
हमेशा
पागलपन।

आज बस
वसंतोत्सव की अग्रिम शुभकामनाएँ
सादर




Tuesday, January 28, 2020

250...जेब में ज़रूर चवन्नी रखना

सादर अभिवादन
अंक हजार में
सात सौ पचास कम

चलिए चलें आज की रचनाओँ की ओर
आज एक ब्लॉग नया है

चार सौ वर्ष पहले की बात है भारत में एक राजा था। वह तृप्ति नदी के किनारे बुरहानुपर में रहता था उसकी रानी चाँद की तरह सुन्दर थी। वह उसको देखे बिना भोजन भी नहीं करता था। वह राज-काज में पूरी सहायता करती थी। दीन-दुखियों को दान दिलाया करती थी, अनाथ बालिकाओं की शिक्षा व विवाह का प्रबन्ध करती थी।
सभी राज-काज के कामों में रूचि लेती थी। एक दिन राजा को स्वप्न आया कि उसकी रानी की मृत्यु हो गई। उसको समुद्र पार जौनावादी बाग में दफना दिया गया। राजा शयन कक्ष में ही सप्ताह तक लेटा रहा। राज दरवार में जाना भी भूल गया उसे ऐसा लगा जैसा उसका जीवन ही समाप्त हो गया हो, तभी एक परी आसमान से उत्तर कर आयी और कहने लगी, हे राजन क्यों चिंता में डूबे हो। राजा ने कहा मेरी रानी का स्वर्गवास हो गया है अतः में संन्यास लेना चाहता हूँ।


वर्षों पुरातन, सभ्यता हमारी,
आठ सौ नहीं, हजारों सदियाँ गुजारी,
नाज मुझे, मेरी संस्कृति पर,
कुचलने चले तुम, मेरे सारे धरोहर,
पर हैं जिन्दा, ये आज भी,
लिए गोद में, तेरी हर निशानी, 


पत्ते गिरने का मौसम नहीं रुकता,
वक़्त की रेल गुज़रती है
निःशब्द अपने गंतव्य
की ओर, पार्क
के बेंच
पर पड़े सूखे पत्तों में कहीं खो
जाते हैं यादों के तहरीर,


है बहारों का मौसम बता दो कहाँ!
ठंडी पुरवाइयां चलके ढूंढे वहाँ!!
यूँ लगे मिल गया, जैसे वनवास है!
मैं न जानूँ सनम, कैसा अहसास है!!


आदमी सोच रहा 
हम हरे खून वाले 
जब बहेंगे 
तब बहेगा जहर 
तो खून लाल कर दो देवता 
या पानी बना बहा दो सब 
आ जाने दो प्रलय 
अब जलमग्न हो जाने पर ही धूल पाएगी दुनिया


रास्ता है खुला कड़ी धूप तो होगी ।
फेंटा सर पर बांध कर ही निकलना ।
राह में साथ पानी अवश्य रखना ।
और जेब में ज़रूर चवन्नी रखना ।
....
बस
कल 
फिर
सादर

Monday, January 27, 2020

249 ...आपका एक कदम इनाम है

सादर अभिवादन
चालीस लाख क़दम चल लिया 
उलूक टाईम्स
चालीस लाख क़दम
माने धरा की एक परिक्रमा
ढ़ेरों बधाइयाँ...


चलिए चले रचनाओं की ओर...

उठो हिन्द के बाग़बानो उठो 
उठो इंक़िलाबी जवानो उठो 

किसानों उठो काम-गारो उठो 
नई ज़िंदगी के शरारो उठो


वे जेंटलमैन जो उसे ब्रोकर समझ हिकारत भरी निगाहों से देखते थे ,अब उसे " लाइजनिंग अफसर " कह अदब करने लगे। उनके लिए हर मर्ज का दवा था दीनबंधु ! कोतवाली से लेकर कलेक्ट्रेट तक यूँ समझें कि संतरी से लेकर मंत्री तक उसकी पकड़ थी। उसके नाम सिक्का चल निकला। 


जगह जगह की सैर कराए
कभी रुलाए कभी हँसाए
लगता है मुझको वह अपना
क्या सखि साजन?
ना सखि सपना


चिकना तन और पतली काया 
सारे जग का मन भरमाया 
नूतन रोज दिखाता स्टाइल 
हे सखि साजन? 
ना मोबाइल

सबके मन में खौफ बनाता 
अच्छे खासों को जो समझाता 
पीट पीट कर करता ठंडा 
हे सखि साजन? ना सखि डंडा 


डॉ. सुशील जी जोशी को शुभकामनाएँ
सकता है 
यूँ ही 
घूमने 
आते होगेंं 
आप 

पर 
मेरे लिये 

आपका 
एक कदम 
इनाम है 
..
बस
कल फिर मिलते हैं
सादर


Sunday, January 26, 2020

248... धरती तो धरणी है। धरती रहेगी

सादर अभिवादन
सादर शुभ कामनाएँ
इकहत्तरवें गणतंत्र दिवस की
गूगल जी महाराज ने भी एक
डूडल बनाया है
हर साल बनाता है
इस साल का कुछ विशेष है

अब आपको ले चलती हूँ 
पठनीय रचनाओं की ओर..

कदमताल ....विश्वमोहन कुमार
भले ही भक्षियों का भक्षण रहे
जारी बदस्तूर।
धरती तो धरणी है।
धरती रहेगी,
धुकधुकियों में अपनी
और रह रह कर उगलती रहेगी,
ज्वालामुखी, आक्रोश का!


आज चूड़ियाँ छोड़ हाथ में
लेनी है तलवार,
कोई मर्म तक छेद न जाये,
पहले करने होंगें वार,
आजादी का मूल्य पहचान लें
तो ही खुलेंगे मन के तार ,
हर तरह के दुश्मनों का
जीना करदो दुश्वार,
आओ तिरंगे के नीचे हम
आज करें यह प्रण प्राण,
देश धर्म रक्षा हित
सब कुछ हो निस्त्राण ।

अक्सर खामोश लम्हों में....मीना भारद्वाज

अक्सर खामोश लम्हों में
किताबें भंग करती हैं
मेरे मन की चुप्पी…
खिड़की से आती हवा के साथ
पन्नों की सरसराहट
बनती है अभिन्न संगी…
पन्नों से झांकते शब्द

कोरी बातें ....विभा रानी श्रीवास्तव 'दंतमुक्ता'

मुझे मेरे बचपन में देशप्रेम बहुत समझ में नहीं आता था। आजाद देश में पैदा हुई थी और सारे नाज नखरे आसानी से पूरे हो जाते थे। लेकिन झंडोतोलन हमेशा से पसंदीदा रहा। स्वतंत्रता दिवस के पच्चीसवें वर्षगांठ पर पूरे शहर को सजाया गया था। तब हम सहरसा में रहते थे। दर्जनों मोमबत्ती , सैकड़ों दीप लेकर रात में विद्यालय पहुँचना और पूरे विद्यालय को जगमग करने में सहयोगी बनना आज भी याद है

चौपाल में हुक़्क़े संग धुँआ में उठतीं बातें ...अनीता सैनी

बेचैनी में लिपटी-सी स्वयं को सबला कहती हैं,  
वे आधिपत्य की चाह में व्याकुल-व्याकुल रहती हैं, 
सुख-चैन गँवा घर का राहत की बातेंकर,  
वे प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में दौड़ा करती हैं। 
....
आज बस
फिर मिलते हैं
सादर





Saturday, January 25, 2020

247...भारतीय गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर आपका हार्दिक अभिनन्दन

भारतीय गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर
आपका हार्दिक अभिनन्दन
26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था


चलिए आज की रचनाओं की ओर..

ऐ कुर्सी वाले बख्श दो
देश के भविष्य को
बख्श दो हमारे बच्चों को
जिस देश में है बसेरा
चिड़ियों का उस देश को
गिध्दों का बसेरा न बनाओ

धधक उठी ज्वाला नभ उर में,
हाहाकार मचा कलरव में,
विपुल समर को घन अब रण में,
उठी चित्कार सुनो मनवन में,
थे तृण हरित,सब शूल हुए हैं,
त्राहि त्राहि कर धूल उड़े है,
पतित हुई अब मानसी गंगा,
सत्य,धर्म का झूठा धंधा,

काला पानी की काली स्याही ......सुबोध सिन्हा

हाँ .. वही गणतंत्र .. जिसके उत्सव के 
हर्षोल्लास को दोहरी करती
मनाते हैं हम राष्ट्रीय-पर्व की छुट्टी
खाते भी हैं जलेबी और इमरती
पर .. टप्-टप् टपकती चाशनी में
इन गर्मा-गर्म जलेबियों और इमरतियों की
होती नहीं प्रतिबिम्बित कभी क्या आपको
उन शहीदों के टपकते लहू
उनके अपनों के ढलकते आँसू
यूँ ही तो मिली नहीं हमको .. आज़ादी



तन्हाई में कहीं ..पुरुषोत्तम सिन्हा

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

मन को चीर रही, ये शोर, ये भीड़,
हो चले, कितने, ये लोग अधीर,
हर-क्षण है रार, ना मन को है करार, 
क्षण-भर न यहाँ, चैन जरा!

तीस पार की लड़कियाँ ...रोली अभिलाषा

कानों पर उँगली रख लेती हैं अक्सर
ये तीस पार की लड़कियाँ
रिश्ते के नाम पर
विवाह मोह का जाल भर होता है,
इतनी भा जाती है इनको
अकेलेपन की ख़ुराक़
कि रिश्ता ओवरडोज़ लगता है

चलते- चलते एक गीत


सादर





Friday, January 24, 2020

246...अरे पागल! मन तू क्यों घबराए

गणतंत्र दिवस से दो कदम पहले
गणतंत्र यानी जनवरी का अंत
सभी को शुभकामनाएँ
हमारा गणतंत्र अमर रहे
सादर अभिवादन..
आइए चलें रचनाओं का आस्वादन करें...

हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? बोलो यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है। हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह  भीड़तंत्र के अधीन क्यों है ?


कितनी सारी, बातें करती हो तुम! 
और, मैं चुप सा! 
बज रही हो जैसे, कोई रागिनी, 
गा उठी हो, कोयल, 
बह चली हो, ठंढ़ी सी पवन, 
बलखाती, निश्छल धार सी तुम! 
और, मैं चुप सा! 


अपनी मंज़िल नज़र नहीं आती..
इक मुसलसल सा रास्ता हूँ मैं...!

रात 'पूनम' सी हो गयी रौशन...
ज़ीनते रात हूँ, शमा हूँ मैं...!


तू छत पे कल आना 
गन्ना चूसेंगे 
बेशक जल्दी जाना 

गन्ने जब टूटेंगे 
तूने बहकाया 
घरवाले कूटेंगे 


नफ़रत किससे क्यों मुझको आज
सुलग रहे दवानल से सवाल
 क्रोध हिंसा की पीड़ा रुलाए
मेरे अंतर्मन में अश्रु कोहराम मचाए
अरे पागल! मन तू क्यों घबराए
..
आज बस इतना ही
फिर मिलेंगेेेेे
सादर



Thursday, January 23, 2020

245..ज़िंदगी तलाशें, नफ़रतों के ज़हर में

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा का नारा भी उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आजाद हिन्द फौज का गठन किया था।
इनका अवसान हुआ है..ये मात्र कथन है
इसे सिद्ध कर ने के लिए..
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बेटी और उनके परिवार का एक हिस्सा पिछले कुछ सालों से लगातार जापान के रैंकोजी मंदिर में रखी उनकी अस्थियों की डीएनए जांच की मांग करते हैं. इससे पता चल जाएगा कि ये अस्थियां नेताजी की ही हैं या नहीं. ये जांच नेताजी को लेकर बरसों से उनके निधन को लेकर चल रही रहस्यगाथा का भी पटाक्षेप कर देगी
...अब चलते हैं आज की रचनाएँ देखें

विजय शंख का नाद था गूंजा
वीरों की हुंकार भी गरजी,
सोते शेर जगाये कितने
बात नहीं है ये फरजी।


भक्ति में है शक्ति अथाह
है अनोखी वकत उसकी
यदि सच्चे मन से की जाती
कोई न कर पाता बराबरी उसकी |
भक्त की है प्रेरणा वही
जब पूरी श्रद्धा से  की जाती

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा! 
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा! 
पहले, कभी! 
उभरती थी, एक अक्स, 
दुबला, साँवला सा, 
करता था, रक्स, 
खुद पर, 
सँवर लेता था, कभी मैं भी,

धरा का मौन बादल ही 
समझता जानता है सब 
चकोरी चाँद की बातें 
सुनाई दे रही हैं अब 
मयूरा मेघ से कहता 
बता हिय बात ही वो कब 

दीवारें ही दीवारें खींच दी यहाँ-वहाँ 
पूरी बस्ती ही बना डाली एक घर में। 

इनकी नादानियों पर हँसी आती है 
ज़िंदगी तलाशें, नफ़रतों के ज़हर में। 
...
आज यहीं तक
कल फिर मिलते हैं
सादर