Saturday, June 29, 2019

47..मुखरित मौन... आज एक ही ब्लॉग से---"धरोहर"

सादर अभिवादन!
ब्लॉग एग्रीगेटरस् की संचालिका और कुशल चर्चाकार 
आदरणीया यशोदा अग्रवाल जी ब्लॉग जगत की लोकप्रिय हस्ती हैं । साहित्य पटल पर  उनका योगदान सर्वविदित है अपनी लेखनी से 
निसृत विचारोत्तेजक हृदयस्पर्शी रचनाओं का संग्रहण वे 
"मन की उपज" के नाम से अपने ब्लॉग "धरोहर" में करती   हैं ।

उनके द्वारा रचित कुछ रचनाओं के सूत्र आज की साप्ताहिक प्रस्तुति में---




शब्दों के खेत' में
आओ खामोशियों को बोएँ
तितलियों के पंखो को
सपनो की जादुई छड़ी से
सहलाएं....


एक और शाम
उतर आयी आँखों में
भर गयी नम किरणें
खुला यादों का पिटारा...
भीग गयी पलकें
फैलकर उदासी
धुंधला गयी चाँद को
झोंका सर्द हवा का
लिपटकर तन से


आज की चाहतें और है
कल की ख़्वाहिशें और हैं
जो जीते है ज़िंदगी के पल-पल को
उसके लिये ज़िंदगी के मायने और है

हसरतें कुछ और हैं
वक़्त की इल्तज़ा कुछ और है
हासिल कुछ हो न हो
उम्र का फलसफ़ा कुछ और है

भाषा न तो
मौन है
न ही मौन है ज्ञान
एक पहचान है
भाषा..जो
पहुंच रखती है
अपने साथ
पूर्ण रूप से
हमारे मन तक


हो रहे
पात पीत
सिकुड़ी सी
रात रीत
ठिठुरन भी
गई बीत
गा रहे सब
बसंत गीत
भरी है
मादकता
तन-मन-उपवन मे.
समय होता
यहीं व्यतीत


विडम्बना
यही है की
स्वतंत्र भारत में
नारी का
बाजारीकरण किया जा रहा है,

प्रसाधन की गुलामी,
कामुक समप्रेषण
और विज्ञापनों के जरिये
उसका..........
व्यावसायिक उपयोग
किया जा रहा है.


राहें नई..
आयाम नया
हुई विधा नयी
पर कलम वही...

अनुभव नए
शब्द नए
दर्द भी नया
पर कलम वही...

***********
अब इजाजत दें.. फिर मिलेंगे
🙏🙏
मीना भारद्वाज








Saturday, June 22, 2019

46....एक हृदय पाने की कोशिश...

सादर अभिवादन

हिमालय के आँगन में उसे,
प्रथम किरणों का दे उपहार ।
उषा ने हँस अभिनंदन किया,
और पहनाया हीरक-हार ।।
                               
"जयशंकर प्रसाद"

मानसून के आगमन से पूर्व बारिश की बूंदों द्वारा वसुधा का अभिनंदन और पछुआ पवनों की शीतलता संकेत कर रही है मानसून आगमन का…, सुहानी उजली प्रभात वेला में प्रस्तुत है मुखरित मौन का साप्ताहिक संकलन


बरसों
लकीर पीटना

सीखने
के लिये लकीरें

समझने
के लिये लकीरें

कहाँ
से शुरु
और
कहाँ
जा कर खतम


यह जगह वही है
जहां कभी मैंने जन्म लिया होगा
इस जन्म से पहले
ये शब्द वही हैं
जिनमें कभी मैंने जिया होगा एक अधूरा जीवन
इस जीवन से पहले।


किसी बात पर नहीं रीझना
किसी बात पर नहीं खीझना
मुझको तुमसे नहीं जीतना
पहली बारिश नहीं भीगना !
दूर चले जाने की कोशिश !
एक हृदय पाने की कोशिश !


असंभव शब्‍द
सिर्फ डिक्‍शनरी में होता है
हक़ीकत में तो हम
लड़ना जानते हैं
एक कोशिश करते हुये
जिंदगी को पराज़य से
कोसों दूर कर
जीत की सीढि़यों पर
बस चढ़ना औ’ चढ़ना जानते हैं

सामग्री- ingredients for watermelon Rind halwa
• तरबुज के छिलके कद्दुकस किए हुए- 250 ग्राम
• घी- 1 टी स्पून
• चीनी- 90 ग्राम
• दूध- 250 मि.ली.
• इलायची पावडर- 1/4 टी स्पून
• बादाम, काजू एवं किसमिस- पसंदानुसार


हवाओं की..  कोई सरहद नहीं होती
ये तो सबकी हैं बेलौस बहा करती हैं

हवाएँ हैं, ये कब किसी से डरती हैं
जहाँ भी चाहें बेख़ौफ़ चला करती हैं

******
इजाजत दें
"मीना भारद्वाज"

Saturday, June 15, 2019

45...."एक न एक दिन घर तो आओगे"

स्नेहाभिवादन !
सप्ताहांत में एक बार फिर"मुखरित मौन" का
विविधतापूर्ण अंक जिसमें लघुकथा,
लेख और कविताओं से सजे कुछ चुनिंदा सूत्र हैं
आपके सम्मुख प्रस्तुत हैं ----


आसमान में याद का दरख्त उलटा खड़ा था
कत्थई रंग डूबती थी घास वस्ल का किस्सा पड़ा था
थम गयी करुणा ठिठककर रास्ता पिंजर मढ़ा था
वह हरफ जो मिट गया किसने पढ़ा था
                    


किसान ने अपनी  बेटी की शादी के लिए एक महाजन से  
ब्याज़ में 20 हजार रुपए का कर्ज़ लिया था ।  
ब्याज़ की रकम बढ़ते -बढ़ते मूलधन से कई गुना ज्यादा हो गयी ।
वह  महाजन के लगातार तगादे से तंग आ गया था ।
एक दिन महाजन ने उससे कहा -अगर कर्ज़
पटा नहीं सकते तो दो  एकड़ का अपना यह खेत मेरे नाम कर दो ।
तुम्हारा पूरा कर्जा माफ़ हो जाएगा ।
तगादे की वज़ह से मानसिक
संताप झेल रहे किसान को  कुछ नहीं सूझा ,
तो उसने महाजन की बातों में आकर अपनी ज़मीन उसके नाम कर दी ।


हरियाली, पर्यावरण की बातें करते हुए हम
भले ही कुछ देर के लिए खुश हो जाएं
लेकिन उस जमीन पर कोई नहीं पहुंचना चाहता,
जहां से हमारी जड़ें जुड़ी हैं।

                                            
शहर की सुन्दर सी कॉलोनी में मलिक साहेब
की बड़ी सी कोठी थी और उस कोठी में
अमलतास का एक बहुत बड़ा हरा भरा और
सुन्दर सा पेड़ था ! उस पेड़ पर एक प्यारी सी बया रहती थी !
बया रानी दिन भर मेहनत करती !
अमलतास के पेड़ पर अपना खूबसूरत
घरौंदा बनाने के लिये अनगिनत घास पत्ते
और तिनकों में से चुन-चुन कर सबसे
बेहतरीन तिनके वह बटोर कर लाती !


कितने दिन और यहाँ घूमोगे, गाओगे
भटके हो बार-बार कब तक झुठलाओगे ?
एक न एक.. दिन घर तो आओगे !

अगली प्रस्तुति तक इजाज़त दें फिर मिलेंगे 🙏🙏

"मीना भारद्वाज"

Monday, June 10, 2019

44....मुखरित मौन....आज एक ही ब्लॉग से

लोगों की..
आमदरफ्त बढ़ी
शायद टूट जाएगा
मौन....
मुखरित मौन का..
कसमसा रहा..
मुखर होने को...
थोड़ा सोचने दीजिए
कौन की तरकीब
लगाएँ...कि
मुखर हो जाए.....
चलिए .....चलते हैं
सोमवार को देखिए..इसकी मुखरता
.....

हमारा शहर अल्मोड़ा

कूड़ा 
तरतीब 
से संभाल
कर के 

नीचे 
वाले पड़ोसी
की गली में 

पौलीथिन में 
पैक किया 
हुआ मिलेगा

पानी हमारे 
घर का
स्वतंत्र रूप 
से खिलेगा


सोच तो सोच है, सोचने में क्या जाता है, और क्या होता है, 
अगर कोई सोच कर बौखलाता है

अपनी 
सोच के 
हिसाब से 
किसी पर भी 
कोई भी 
कुछ भी 
कह जाता है 


पता ही नहीं चलता है कि बिकवा कोई और रहा है, 
कुछ अपना और गालियाँ मैं खा रहा हूँ

 ‘उलूक’ 
देर से आयी 
दुरुस्त आयी 
आयी तो सही 

मत कह देना 
अभी से कि 
कब्र में 
लटके हुऐ 
पावों की 
बिवाइयों को 
सहला रहा हूँ ।


हाथी के निकलते अगर पर

चींटी की जगह
हाथी के अगर
पर निकलते
तो क्या होता
क्या होता
वही होता 
जो अकसर
हुआ करता है
जिसे सब 
आसानी से
मान जाते हैं


क्या कुछ कौन से शब्द चाहिये, कुछ या बहुत कुछ 
व्यक्त करने के लिये कोई है, जो चल रहा हो साथ में 
लेकर शब्दकोष, शब्दों को गिनने के लिये

शब्दकोश 
कितना बड़ा 
समेटे हुऐ 
खुद अपने में 
कितने कितने 
समझे बूझे हुऐ 
अनगिनत शब्द 
पर 
कहने के लिये 
अपनी 
इसकी उसकी 
आसपास की 
व्यथा कथा 
चाहिये 

-*-*-*-
गुस्ताखी माफ़
कभी-कभी तो आता हूँ
और कुछ....
ऊट-पटाँग कर जाता हूँ..
सादर..
दिग्विजय


Saturday, June 8, 2019

43..."ओस की एक बूँद पत्ते पर'

स्नेहाभिवादन! बदलाव एक नियम सा है...प्रकृति भी अपना रंग बदलती है
ग्रीष्म ऋतु के प्रकोप से सम्पूर्ण जीव जगत त्रस्त है । कहीं कहीं मानसून के आगमन की रिमझिम
फुहारें जीव-जगत के साथ-साथ प्रकृति में नव आशा का संचार करने में जुटी है । "मुखरित मौन' के
तियालसवें अंक के साप्ताहिक संकलन मे आपके लिए प्रस्तुत हैं विविध भावों से परिपूर्ण सूत्र --

अनवरत बहती अश्रुधारा को पोछते हुए ,
आत्मविश्वास के प्रतीक सी उसकी आँखों मे आँखे डाल खड़ी हो गयी ,
"तुम जो ये इतनी देर से लिख लिख कर पन्ने काले कर रहे हो ,ये सब व्यर्थ है ।



वायु प्रदूषण तापमान में तेजी ,
ए मनुष्य तुम्हें किसी को भला- बुरा कहने का हक नहीं है किसी भी परिवर्तन का
मुख्य कारण तुम स्वयं ही हो अगर तुम चाहते हो यह धरती फिर से पहले जैसी हो जाए तो
अधिक से अधिक वृक्षों का रोपण करो ।


वह चित्र क्या
जो सोचने को बाध्य न करे
इसमें है ऐसा क्या विशेष
जो शब्दों में बांधा न जा सके
सोच तुरन्त मन पर छा जाए
शब्दों में सिमट जाए
तभी लेखन में आनंद आए


कभी उठा तो बिखर जाऊंगा सहर बनकर
बहुत थका हूँ मुझे रात भर को सोने दो

हँसी लबों पे बनाये रखी दिखाने को
अभी अकेला हूँ कुछ देर मुझको रोने दो


तुम्हारे चेहरे की
मासूम परछाई
मुझमें धड़कती है प्रतिक्षण
टपकती है सूखे मन पर
बूँद-बूँद समाती
एकटुक निहारती
तुम्हारी आँखें


बूँद का अस्तित्व छोटा मगर
काम बड़े कर जातीं
वर्षा की बूँदे
संग्रहित होकर
पोखर,नदियों को भरती हुई
जाकर मिलती सागर के जल में
सृजन करती धरती पर जीवन
प्रकृति को हरियाली देतीं
ओस की बूँदें

********
***इस प्रस्तुति के रचनाकार**
आदरणीया निवेदिता जी,आदरणीया ऋतु आसूजा जी, आदरणीयाआशालता जी,
भाई श्री अनुराग शर्मा जी, आदरणीया श्वेता जी व आदरणीयाअनुराधा जी हैं ।

इजाजत दें
"मीना भारद्वाज"



Saturday, June 1, 2019

42..."तपती गर्मी जेठ मास में "

सादर अभिवादन !
"सूर्य देव की तीव्र दृष्टि और धूप में पारा चरम पर ।
हो रिमझिम फुहारें तो मन की खिलन भी चरम पर ।।'
इन्द्र देव की कृपा वृष्टि के लिए इन दिनों
प्रकृति का कण-कण व्याकुल है ।
"मुखरित मौन" के बियालिसवें अंक में आपके लिए प्रस्तुत हैं विविध मनोभावों से सम्पन्न
सप्ताह भर के सूत्र--

बनाते नहीं हैं

सच्चाई,सुकून,भरोसा,येजीवन की खुश्बुएं हैं,
किसी से गर जो मिले,तो उसे भुलाते नहीं हैं,

ख्वाबों में जो खोया निश्छल,मुस्कुरा रहा हो,
ऐसी नींद से,उसको कभी भी,जगाते नहीं हैं।

ये बादल

छाने लगे अब थोड़े-थोड़े बादल लिये काली कोर
क्षितिज तक फैले कभी उस छोर कभी इस छोर।

पृथा पुलक रही मन मीत के आने की आहट सुन
कितनी क्लांत श्रृंगार विहीन हो बैठी थी विरहन ।
चल रे मन उस गाँव

आकाश जहाँ, खुलते थे सर पर,
नित नवीन होकर, उदीयमान होते थे दिनकर,
कलरव करते विहग, उड़ते थे मिल कर,
दालान जहाँ, होता था अपना घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......


बहाना लेकर
बन जाते हैं पहाड़ राई के
जो बातों ही बातों में
इतने बड़े हो जाते
फिर कोई नहीं चाहता है
चढ़ कर उतरना

उस शाम
गाँधी-घाट पर
दो दीयों से
वंचित रह गई
गंगा-आरती


जो थी नहीं
उस भीड़ में
कौतूहल भरी
तुम्हारी दो आँखें
मुझे निहारती


मिट्टी खाद धूप जल
और देखभाल ने
पौधे में रोप दी
जिजीविषा ।


आशा ने
औषधि का
काम कर दिखाया ।


आज सुबह देखा
ऐसा फूल खिला !
मानो किसी ने
मांगी हो दुआ ।



मन में जब से तुम आये हो
आँखों खिले पलाशी बादल।

तुझसे जग मीठा नग़मा है
तुझ बिन लगे मिरासी बादल।।


बोली अनबोली आंखें
पता मांगती घर का
लिखा धूप में उंगली से
ह्रदय देर तक धड़का
कोलतार की सड़कों पर   
राहें पिघली जेठ मास में---

*********
इजाजत दें… ..,

मीना भारद्वाज