Sunday, February 28, 2021

645 ....वक़्त की रफ़्तार अपनी जगह -वही है, कुछ दूर उसके पीछे चल के देख लिया

सादर वन्दे
आज  छुट्टी है 
तो मैं यहां हूँ..
महीने के अंतिम दिवस पर
एक लक्ष्य़ का आंकड़ा पार करने वाली है
सदा से मौन रहती ये मुखरित मौन
अब मुखऱ होने लगेगी
रचनाओं का दायरा बढ़वाऊँगी अब
पाँच से सात रचनाएँ रक्खूँगी अगले सप्ताह
आपका अभिनन्दन

आइए रचनाओँ देखें....

अंदर का अमावस ज़रा भी न बदला,
चेहरे का उजाला बदल के देख लिया,
वक़्त की रफ़्तार अपनी जगह -वही है,
कुछ दूर उसके पीछे चल के देख लिया,

तेरे इश्क पर हम ऐतबार करते हैं
कहें ना कहें तुमसे प्यार करते हैं

मौसम कोई हो, चलेगें साथ तेरे
मूंद आंखें अभी इकरार करते हैं

वो पल जिसमें तुम शामिल नहीं
ऐसी जिन्दगी से इनकार करते हैं


कुछ कहना है कुछ सुनना भी बरसों पे मिले हैं
अब लाज-शरम, चुप्पी का कोलाज न होना

तुलसी, ये नए फूल सहन में ही लगा दो
पूजा के लिए माली का मोहताज़ न होना


देखो ,दिल वाला साबुन
महकता -सा ......
जैसे ही चेहरे पर लगाया
एक बडा़ -सा बुलबुला बना
उसमें तेरा अक्स दिखा
प्यारा -सा ....


हर बात के
न जाने मतलब कितने
हर शख़्स की
न जाने कितनी कहानियाँ ,
हर कहानी का
एक अलग किरदार
हर किरदार को
निबाहते हुए
करता है इंसान
अलग अलग
व्यवहार ,
....
आदेश दें
सादर


 

Saturday, February 27, 2021

644...और - बसंत मुरझा गया

दैनिक सांध्य अंक में
आपसभी का हार्दिक अभिनंदन।
--------
प्रेम की छटपटाहट महसूसने से
फूटी पहली अनगढ़,मासूम,कोमल
कविता की यात्रा
आदर्श, उसूलों, बड़े-बड़े सपनों,
कमज़ोरों के आँसू,दर्द और हक़ की
हिमायत करते नारों में 
टूटे सपनों की किर्चियाँ चुनती
लहुलूहान उँगलियों के लिए
मरहम की तलाश में
 खारे स्याही में डुबकी लगाती 
 क़लम की जीभ
 का स्वाद बदलता रहता है
शायद...
किसी विशेष पंथ,वाद,दल का
 प्रचारक बनने तक।
#श्वेता सिन्हा

आइये आज की रचनाएं पढ़े।

रूमानियत की नमी 

धरोहर-सी आज भी
यादों के कनस्तर में ,
जो फ़ुर्सत में ..
जब कभी भी 
सोचों की आँच पर 
नयनों से विरह वाले
रिसते तेल में 
लगा कर डुबकी
सीझते हैं मानो 
तिलमिलाते हुए।



चपल चंचल अल्हड़ बूँदें 
पलकों पर सपना बन उतरी 
कर्म रेख का झूल झूलना
 चक्षु कोर से फिसल झरी 
अजब खेल है विधना का भी
लगन सीप की स्वाति पुकारे।।



बन बैठ गई तुम्हारे भीतर 
ऊर्जावान हूँ गर्भ के अन्दर 
धीरे-धीरे बह रही हूँ 
रच रही हूँ 




बैसाखी तो हो नही
जो पास में रख लू 
इतना ही काफी है
जो तुमने खड़ा कर दिया ___
दौड़ भले  पाऊं
तुम्हारे बगैर ,
मगर चल तो लूंगी अब



राह बनाऊंगा पहाड़ काट,
लिया तब तुमने ठान।
अब किसी की प्रियतमा,
मरे न इलाज से बंचित।
अपार शक्ति हृदय में,
कर लिया तुमने संचित।
बाईस वर्ष परिश्रम कर,


अचानक ही 
मिल गयीं थीं 
पुरानी उदासियाँ 
पूछा उन्होंने 
कैसी हो ? क्या हाल है ? 
.....
कल की कल
-श्वेता
सादर


Friday, February 26, 2021

643 ...पग जोगी के काल का फेरा एक जगह कहाँ उसका डेरा

सादर नमस्कार
अचानक हम आ गए हैं
तो क्या हुआ......
चलिए पिटारे का ढक्कन खोलें....

सुखद एहसास ...ज़िन्दगी रंग शब्द
शब्दों का रह-रह कर के,यूँ बातों में बदलना,
यहाँ-वहाँ,दुनिया-जहान की,बातों का कहना,
यूूँ ही शब्द-शब्द चुनना,और बात-बात बुनना,
तुम संग तुममें ढलना,इक सुखद एहसास है।


बूढ़ी महिलाएं ...उम्मीद तो हरी है
अपनी जवानी को
गृहस्थी के
हवन कुंड में तपाकर
सुनहरे रंग की हो चुकी
बूढ़ी महिलाएं
अपने अपने घरों से निकलकर
इकठ्ठी हो गयी हैं

एक दिन शरीर भी मर जाता है,
उसे जला दिया जाता है
या दफना दिया जाता है,
अंतिम संस्कार शरीर का होता है,
आत्मा का हो ही नहीं सकता,
वह तो पहले ही मर चुकी होती है.


दौर कैसा आ गया है, देखिए !
दोस्तों में अब नहीं होती चुहल

शिव कहां ! अब पूछती व्याकुल धरा
जो स्वयं ही कण्ठ में धारे गरल

बूंद "वर्षा" की, सभी की प्यास को
तृप्ति देती है सदा निर्मल तरल


पग जोगी के काल का फेरा
एक जगह कहाँ उसका डेरा ?

कहीं दिन तो कहीं रात बिताये -
बादल सा उड़ लौट ना आये !

झूठा  अपनापन जोगी  का,
तन उजला ,मैला मन जोगी  का !

कलम लिखती मसी बहती,नयी रचना मुखर होती।
लिखे कविता सरस सुंदर, नवल रस के धवल मोती।
चटकते फूल उपवन में ,दरकती है धरा सूखी।
कभी अनुराग झरता है, कभी ये ओज से भरती।।

और कब तक
कहाँ तक
इन्तजार में खड़े रहकर
तुम्हारे सहारे को तकते रहें __
कभी तो
कहीं तो
तुम छोड़ ही दोगे
ऊब कर ।
...
बस
आज लिमिटेशन तोड़ दिया मैंने
सादर

 

Thursday, February 25, 2021

642 ...पानी भी है पास में फिर किस विधि निकले प्राण

सादर अभिवादन
अब ऐसा लगता है
बच्चे एक साल और रुक गए
घर में जितना पढ़ा सकें पढ़ा लें
पर स्कूल न भेजें...यही सलाह सब दे रहे हैं
आइए रचनाएँ देखें....

छींट-छींट चंदनिया चंदा
भगजोगनी संग इतराये रे,
रेशमी आँचल डुला-डुला
जोगिया टेसू मुस्काये रे।

दह-दह,दह दहके जंगल
दावानल का शोर मचा,
ताल बावड़ी लहक रहे
नभ वितान का कोर सजा,

है अंधेरे का तोहफ़ा,
तो दिल कादीया जला के देखेंगे,
इकचश्म ए शबनम मिलजाए,
रूह में छुपाके देखेंगे,
हरएक मोड़ पर खड़े हैं,
कई शुब्हचेहरों की मजलिस,
अंजामए दोस्ती जो भी हो,
फिर हाथ मिला के देखेंगे,


दोनों हिरनों के पास ही एक गड्ढा था
जिसमें थोड़ा सा पानी था। गुरु ने दोनों हिरनों को
देखा और सोच में पड़ गए।..

व्याधि  कोई लगती नहीं, न ही लगा है कोई बाण,
पानी भी है पास में फिर किस विधि निकले प्राण?  

पानी थोड़ा हित घना, लगे प्रेम के बाण,
तू पी- तू पी कहे मरे, बस इस विधि निकले प्राण!


याद उसको उसी रास्ते की कथा
जिसमें मिलती रही है व्यथा ही व्यथा

तेज़ रफ़्तार थी ज़िन्दगी की बहुत
काम तो थे कई किंतु अवसर न था


आज ये पूर्णमासी का चांद भी
कितनी तेजी से चमक रहा है
जैसे कि वो भी खुश हो रहा है
हमारे मिलन का साक्षी बनकर
अजी सुनो देखो न!
आज ये पूर्णमासी का चांद भी
कितनी अटखेलियां कर रहा है
कभी बादलों के पीछे छिप जा रहा है
और झांक झांक के हमें निहारता है


अब तो आ जाओ
युग युगांतर से  
तुम्हारा इंतज़ार करते करते
तुम्हें ढूँढ़ते ढूँढते न जाने
कितनी सीढ़ियाँ चढ़ कर
आ पहुँची थी मैं फलक तक
और बुक कर लिया था
...
बस
सादर

 

Wednesday, February 24, 2021

641 ...चांद सो गया जाके,अंधेरों का अब पहरा होगा

सादर अभिवादन
चौबीस दिन परवरी के
आज के अखबार में पढ़ी कि कोरोना
फिर से आ रहा है
छत्तीसगढ़ शासन ने कहा है
यदि कोई बाहर बगैर मास्क दिखा तो
चालान होगा और
10 घंटे की जेल होगी
दहशत तो है
खैर..
होइहैं वही  जो राम रचि राखा
हमारे भारत में भगवान भी रहते हैं
आइए रचनाएं देखें..

गेसुओं में खिले गुलाब तरोताज़ा थे
उन हांथों के स्पर्श से
भोर में जो रख देते थे माथे पर एक मीठा चुम्बन,
उसने नहीं देखा था सुबह का सूरज कभी,
माँ के चरणों से छनती स्नेह-धूप
हजार सूरजों पर भारी थी...

तारों ने बिसात उठा ली, असर अब  गहरा होगा ।
 ।

फक़त खारा पन न देख, अज़ाबे असीर होगा।
मुसलसल बह गया तो, समन्दर लहरा होगा ।


हे इमली के पेड़
तुम्हारे स्वभाव में
इतनी खटास क्यूँ ?
क्या तुम कभी
मीठे हुए ही नहीं |

पिता, तुम्हें याद है न,
कौए मुझे कितने नापसंद थे,
सख़्त नफ़रत थी मुझे
उनकी काँव-काँव से,
उनका मुंडेर पर आकर बैठना
बिल्कुल नहीं सुहाता था मुझे,
उड़ा देता था मैं उन्हें
तरह-तरह के उपाय करके.


1970 में आयी किशोर साहू जी की फ़िल्म -
'पुष्पांजलि' का वो गाना , जिसे आनंद बक्षी साहब ने लिखा था ,
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जी ने संगीतबद्ध किया था और
मुकेश जी ने गाया था ; की आवाज़ बेसाख्ता
कानों में गूँजने लगती है .. शायद ..

अब बस
सादर

 

Tuesday, February 23, 2021

640 ..अनहद चेतन अंतर्मन में, मानेगी मेरी कविता!!!

सादर अभिवादन
आज का आगाज
फिर से उलूकनामे के साथ
ऐसे
माहौल में
कुछ कहना
जैसे
ना कहना है

सिक्का
उछालने वाला
बदलने वाला नहीं है

चित भी उसकी
पट भी उसकी
सिक्का भी
उसी की तरह का

अब रचनाओं पर एक नज़र...

कान्हां तुम  न आए मिलने
जमुना किनारे
वट वृक्ष के नीचे
रोज राह देखी तुम्हारी
पर तुम न आए |
इतने कठोर कैसे हुए


करते है श्रृंगार कविता वीर हास्य रस रोद्र में
मुक्त छंद में लिखी कविता रहस्यवाद की ओट में
लोक गीत की भाषा में जो चित्र कविता रचते है
प्रगतिवाद के रचनाकार फिर कवि निराला बनते है


सरे बज़्म में हम, बहुत अकेले से -
रह गए, अनकहे लफ्ज़, ओठों
पे कांपते से रह गए, गहरे
भंवरजाल में था कहीं,
उसका पता,
ताउम्र
मिलने की चाह में, खड़े से रह गए,

उम्मीद के धागों से भविष्य की चादर बुन लेते हैं
विविध रंगों से भ्रमित कोई चटक चित्र चुन लेते हैं
समय की दीर्घा में बैठे गुज़रती नदी की धार गिनते
बेआवाज़ तड़पती मीनों को नियति की मार लिखते


अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,
गढ़े ज्ञान की गीता।
अनहद चेतन अंतर्मन में,
मानेगी मेरी कविता!!!

राह निहारूँ उस पहरी की,
मनमीता मोरी मानें।
काल-चक्र की क्रीड़ा-कला,
जड़-चेतन सब पहचानें।

रचने लगा शिरीष खुशबू के गीत अब
वासन्ती सरसों ,उमंगों की जीत अब
झौर झौर बौर बौर महकी अमराई
गूँज उठी सुधियों के आँगन शहनाई
.....
थोडी सी अझेल प्रस्तुति
मेरे सहनशील पाठक झेल लेंगे
सादर

Monday, February 22, 2021

639 ...दुनिया को समझने के लिए जानने के लिए जिंदगी ही काफी है

सादर अभिवादन
2222021
अगले वर्ष आज के दिन
उपरोक्त संख्या  बदली हुई दिक्खेगी
अब
अपने खेत में भी
अपना ही
अनाज उगाना
जैसे
कोई गुनाह होते जा रहा है

जिसे देखो
जोर लगा कर पूछते हुऎ
जरा भी
नहीं शरमा रहा है 
हड़ताल व
दंगे किए जा रहा है
और फ्री मे
लंगर खा रहा है
दाढ़ी वाला
तेल और
तेल की धार
देख रहा है

......अब रचनाएँ देखें

जीवन से सारे संबंध धीरे-धीरे वि‍लग क्‍यों होते जाते हैं ?
अलग होने पर ही नए पत्‍ते आते हैं। शायद एक दि‍न मैं भी...
तुम पत्‍ता नहीं हो मेरे लि‍ए !
तो क्‍या हूं ?


हिमयुग का अंत हो न हो, बसंत दिलों
में रहे हमेशा बरक़रार, न जाने क्या
ढूंढती हैं, नीलाकाश की ओर,
चिनार की वो टहनियां
नोकदार, शीत -
निद्रा के
भंग होते ही उभर आते हैं अनगिनत
झिलमिलाते हुए, अवशिष्ट
तुषार कणिका, शायद
उन्हें है किसी
अलौकिक
पलों
का इंतज़ार,


दोराहे पर खड़ा राहगीर
सोच रहा
कदम किधर बढायें
मौन को कैसे साधें
विकट समय है
निर्णयन की घड़ी है
वरदान या अभिशाप


मुक्कमल जहां किसी को
मिलता नही
न मिले न सही
कोई बात नही ,
दुनिया को समझने के लिए
जानने के लिए
जिंदगी ही काफी है
यहाँ जिंदगी ही बहुत कुछ
दे देती है हमें
ये भी कम नहीं ,
ये जिंदगी ही
सही सलामत रहे
बहुत है कही ।
...
सादर


Sunday, February 21, 2021

638 ...वह शोर सामान्य नहीं होता। वार्तालाप होता है बहती हुई नदी और पत्थरों के बीच

सादर नमस्कार
आज रविवार
हम हैं पिटारा लेकर
देखिए क्या है....


मोह निद्रा सूखती नहीं, बहे जाती है,
सीने के बहुत नीचे, अंतःसलिला
की तरह, रेत के परतों पर
चाँदनी का रहता है
एकछत्र राज,

मैं तेरे बागों  की शोभा
दूर्वा बनकर बिछ जाऊँ
रात चाँदनी तारों वाली
सपना बनकर सज जाऊँ
खिल जाऊँ बन प्रेम पुष्प
पाँव चुभे न काटें साथी ।।


किसी नदी के भीतर
पत्थरों का शोर कभी सुना है,
सुनियेगा क्योंकि
वह शोर सामान्य नहीं होता।
वार्तालाप होता है
बहती हुई नदी और पत्थरों के बीच।
नदी के साथ बहते
पत्थरों के जिस्म
बेशक कई बार चोटिल होते हैं


नैनों में बस एक तुम्हीं तो बसते हो
मधुर मिलन की सुधियों में तुम हँसते हो
वंशी के स्वर के संग जो बह जाती थी
उर संचित उस व्यथा कथा को कौन गहे !


मत होने दो
शोषण किसी का
मत होने दो भ्रष्टाचार
मानवता की बलि चढ़ाते
यह मानवीय अत्याचार
जगह जगह पे हिंसा होती
निर्बल मरता भूखा
धनवानों पर धन की बारिश

इज़ाज़त दें
कल की कल
सादर

Saturday, February 20, 2021

637...दो घरों की चिराग होती हैं बेटियाँ

सांध्य दैनिक के
शनिवारीय अंक में आप सभी का
स्नेहिल अभिवादन।

कुछ भी लिखने कहने का मोल नहीं हैं,
अर्थहीन शब्द मात्र,भावों के बोल नहीं हैं।
-----
आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-

अंधेरा बो रहा है


खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,
जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।

रुखसार पर है  हंसी का ही पहरा,
आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।


दो घरों की चिराग होती हैं बेटियाँ

“क्या कहूँ ऐ गुरुजी मैं अपनी व्यथा, 
मुझको औलाद का गम सताता रहा
हर तरह से हुई ना उम्मीदी मुझे, 
अब जमाना जवानी का जाता रहा
जो जवानी भी ढल-ढल के जाने लगी, 

अब अवस्था बुढ़ापे की आने लगी

अधरोंं के मृगजल



अनसुलझे समीकरण में कहीं,
जीवन लिखे जाता है,
मुक्त छंदों की
कविता,
सभी
विसंगतियों को एक बिंदु पर
मिलाने का प्रयास, हर
सुबह एक निःशर्त

चले जा रहे हैं


कुछ ख्वाबों की परछाइयाँ 
आँखों के सागर में
मुसलसल डोलती हैं 
कैसे कह दें कि
ख्वाब हम नहीं देखते हैं !
दिल के बागानों में पलती 
खुशबुएँ दिखती तो नहीं 
हाँ पर साथ चलती हैं

और चलते-चलते पढ़िए

मन का व्याकरण

काश ! कि ..
गढ़ पाते जो 
कभी हम
व्याकरण
मन का कोई
और पाते
कभी जो
सुधार हम
वर्तनी भी
------
आज बस इतना ही
आज्ञा दीजिए अगली प्रस्तुति तक। 








Friday, February 19, 2021

636....कौन पूछता है, बेजान से पत्थरों को

सादर अभिवादन
कल दिव्या ने सही लिक्खा
शान्त सा है फरवरी
पर अन्दाजा नहीं न है उसे
ये तूफां से पहले की शान्ति है
खैर जो है सो...
रचनाएँ देखें..

तन को पुकारती बूंदें
मन से गुजरती रागिनी
नयन की अनबुझ प्यास
कर्णप्रिय ये मधुर नाद
प्रतीत होता मुझे हृदयवास..


मरुथल में
एक फूल खिला
कैक्टस का ,
तपते रेगिस्तान में
दूर दूर तक रेत ही रेत ,
वहाँ खिल कर देता ये संदेश
विपरीत स्थितियों में
कैसे रह सकते शेष !


हो गए निष्प्राण रिश्ते, गुम हुआ अपनत्व भी
कोबरा से भी विषैला, स्वार्थपरता का ज़हर

खाईयां इतनी खुदी हैं दो दिलों के बीच में
अब नहीं आता मुझे पहचान में मेरा शहर


श्रृंगार बन सका तेरा, उद्गार ले लो,
इन साँसों का, उपहार ले लो,
इक निर्धन, और दे पाऊँ भी क्या,
मैं, याचक हूँ तेरा ही!


बसंत फिर आया तो है !
पर यह कैसा हो गया है,
सुस्त, मलिन सा !
जर्जर सी काया !
कांतिहीन चेहरा !
मुखमण्डल पर विषाद की छाया !
पहले कैसे इसके
आगमन की सूचना भर से
प्रेम-प्यार, हास-परिहास,
मौज-मस्ती, व्यंग्य-विनोद का
वातावरण बन जाता था !

प्रेम स्वीकृति चाहता है,
अंदर की सत्ता का
चाहे वो जैसा भी हो,
क्योंकि उस भीतर की सुंदरता में ही रहता है,
परम सत्य का वास,
बाह्य खोल समय के साथ
अपनी मौलिकता खो देता है,
...
आज बस
सादर