सादर अभिवादन
आज धूप खिली हुई है
लोगों की छतों पर
कई रंग को कपड़े
झूल रहे है तारों पर
...चलिए चलें हम भी धूप सेंक लें..ज़रा सा
हम नहीं शर्मिंदा हैं ....श्वेता सिन्हा
गोरखपुर,कोटा,लखनऊ या दिल्ली
खेल सियासती रोज उड़ाते खिल्ली
मक़्तल पर महत्वकांक्षा की चढ़ते
दाँव-पेंच के दावानल में जल मरते
चतुर बहेलिये फाँसते मासूम परिंदा है
पर ज़रा भी, हम नहीं शर्मिंदा हैं!
चेतावनी...... रश्मि प्रभा
धू धू जलती हुई जब मैं राख हुई
तब उसकी छोटी छोटी चिंगारियों ने मुझे बताया,
बाकी है मेरा अस्तित्व,
और मैं चटकने लगी,
संकल्प ले हम एक हो गए,
बिल्कुल एक मशाल की तरह,
फिर बढ़ चले उस अनिश्चित दिशा में,
जो निश्चित पहचान बन जाए ।
हंसमाला छंद .....अनीता सुधीर
वह बातें पुरानी
ऋतु थी वो सुहानी।
ढलती यामिनी में
खिलती चाँदनी में ।
खनकी चूड़ियाँ थीं
बजती झांझरे थीं।
महकी टेसुओं सी
चहकी कोयलों सी।
हाईकू .....आशा सक्सेना
सूरज छिपा
बादलों की गोद में
गर्मी ना आई
वाह मौसम
तेरे नखरे बड़े
सर्दी है आज
पूरब की हूँ - श्यामल सी..... मीना चोपड़ा
पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
पहन के पैरों में पायल
बहकती हवाओं की
फ़िज़ाओं के सुरीले तरन्नुम में
गुनगुनाहटें ज़िन्दगी की ढूढ़ती हूं
मेरी वेदना - मेरी संवेदना ...व्याकुल पथिक
नववर्ष के प्रथम दिन सुबह होते ही यह सुनने को मिला कि ईसाई हो या हिन्दू.. !
मैंने सोचा ,चलो अच्छा हुआ कि किसी ने मुसलमान तो नहीं कहा और कह भी देता तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता मुझपर, जब हम यही मानते हैं कि सबका मालिक एक है,तो फिर मजहब को लेकर
यह बखेड़ा क्यों?
आज धूप खिली हुई है
लोगों की छतों पर
कई रंग को कपड़े
झूल रहे है तारों पर
...चलिए चलें हम भी धूप सेंक लें..ज़रा सा
हम नहीं शर्मिंदा हैं ....श्वेता सिन्हा
गोरखपुर,कोटा,लखनऊ या दिल्ली
खेल सियासती रोज उड़ाते खिल्ली
मक़्तल पर महत्वकांक्षा की चढ़ते
दाँव-पेंच के दावानल में जल मरते
चतुर बहेलिये फाँसते मासूम परिंदा है
पर ज़रा भी, हम नहीं शर्मिंदा हैं!
चेतावनी...... रश्मि प्रभा
धू धू जलती हुई जब मैं राख हुई
तब उसकी छोटी छोटी चिंगारियों ने मुझे बताया,
बाकी है मेरा अस्तित्व,
और मैं चटकने लगी,
संकल्प ले हम एक हो गए,
बिल्कुल एक मशाल की तरह,
फिर बढ़ चले उस अनिश्चित दिशा में,
जो निश्चित पहचान बन जाए ।
हंसमाला छंद .....अनीता सुधीर
वह बातें पुरानी
ऋतु थी वो सुहानी।
ढलती यामिनी में
खिलती चाँदनी में ।
खनकी चूड़ियाँ थीं
बजती झांझरे थीं।
महकी टेसुओं सी
चहकी कोयलों सी।
हाईकू .....आशा सक्सेना
सूरज छिपा
बादलों की गोद में
गर्मी ना आई
वाह मौसम
तेरे नखरे बड़े
सर्दी है आज
पूरब की हूँ - श्यामल सी..... मीना चोपड़ा
पूरब की हूँ - श्यामल सी
सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
पहन के पैरों में पायल
बहकती हवाओं की
फ़िज़ाओं के सुरीले तरन्नुम में
गुनगुनाहटें ज़िन्दगी की ढूढ़ती हूं
मेरी वेदना - मेरी संवेदना ...व्याकुल पथिक
नववर्ष के प्रथम दिन सुबह होते ही यह सुनने को मिला कि ईसाई हो या हिन्दू.. !
मैंने सोचा ,चलो अच्छा हुआ कि किसी ने मुसलमान तो नहीं कहा और कह भी देता तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता मुझपर, जब हम यही मानते हैं कि सबका मालिक एक है,तो फिर मजहब को लेकर
यह बखेड़ा क्यों?
बहुत अच्छी संध्या दैनिक मुखरित प्रस्तुति
ReplyDeleteधूप इसी तरह से खिल जाए ताकि अलाव की हो रही लूट थम जाए, निर्धन वर्ग को ठंड के प्रकोप से राहत मिले और कंबल बांटकर फोटो खिंचवा अखबारों में प्रकाशित करने के लिए फोन करने वाले तथाकथित समाजसेवियों से हमें भी मुक्ति मिले।
ReplyDeleteमेरे लेख को अपने ब्लॉग पर स्थान देने केलिए आपका हृदय से आभार, सभी को प्रणाम।
बेहतरीन
ReplyDeleteमेरे छन्द को स्थान देने के लिए आभार
सुप्रभात
ReplyDeleteमेरी रचना शामिल करने के लिए आभार यशोदा जी |