क्या है मेरी बारी में।
जिसे सींचना था मधुजल से
सींचा खारे पानी से,
नहीं उपजता कुछ भी ऐसी
विधि से जीवन-क्यारी में।
क्या है मेरी बारी में।
आंसू-जल से सींच-सींचकर
बेलि विवश हो बोता हूं,
स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है
मेरी इस लाचारी में।
क्या है मेरी बारी में।
टूट पडे मधुऋतु मधुवन में
कल ही तो क्या मेरा है,
जीवन बीत गया सब मेरा
जीने की तैयारी में|
लाजवाब थोडे मे गहराई तक छू लेना बच्चन जी का अप्रतिम हुनर था आज के परिवेश मे भी उनके कथन बिल्कुल ताजा और मौलिक।
ReplyDeleteमनको चिंतन देती रचना।
नमन।
अप्रतिम ...बच्चन जी के लेखन के बारे मै कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने जैसी गुस्ताखी !
ReplyDeleteचिँतन और मनन सी रचना
वाह !!! क्या बात है
ReplyDeleteबहुत उम्दा.....
बहुत ही संवेदनशील रचना है
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