नदी जब चीरकर छाती पहाड़ों की निकलती है,
टकराकर वो चट्टानों से फिर थोड़ा सम्भलती है।
किसी नवजात बच्चे ने लिया हो जन्म जैसे कि,
हर्षित हो बड़े ही वेग से फिर वो नीचे उतरती है॥
बनाती राह ख़ुद अपनी सँवारे ज़िन्दगी सबकी,
पाले गोद में सबको करे ना बात वो मजहब की।
करे शीतल मरुस्थल को वनों को भी दे जीवन,
सींचकर फसलों को वो खेतों को दे नव यौवन।
करे निःस्वार्थ वो सेवा न थकती है न रुकती है॥
नदी जब चीरकर छाती पहाड़ों की निकलती है॥
हुए हम स्वार्थ में अंधे मिटाते रोज उपवन को,
करें दूषित उसे ही जो करे स्वच्छ तन–मन को।
बहाते मूर्तियाँ देवों की जब हम धारा में इसकी,
कभी सुनकर देखो लेती हैं प्रतिमायें वो सिसकी।
तुम्हें क्या भान है तब आस्था कैसे बिलखती है॥
नदी जब चीरकर छाती पहाड़ों की निकलती है॥
कूड़ों से, शवों से पाटते हैं हर दिन हम इसको,
ब्यथा अपनी सुनाये नदी जाकर अब किसको।
बाँधा हर कदम पर वेग को इसके अब हमने,
कहाँ देते हैं स्वच्छन्द हो इसको तो अब बहने।
बन्धन मुक्त होने के लिए यह हरपल तड़पती है॥
नदी जब चीरकर छाती पहाड़ों की निकलती है॥
सहन की दीवारें जब भी इसकी ध्वस्त होती हैं,
मनुष्यों की हर इक शक्तियाँ तब पस्त होती हैं।
सीमायें तोड़कर ये जब विनाशक रूप में आये,
इसके कोप के आगे न फिर तो कोई ठहर पाये।
प्रलय के बाद खुद भी "रजत" ये तो सिसकती है॥
नदी जब चीरकर छाती पहाड़ों की निकलती है॥
-अवधेश कुमार मिश्र "रजत"
वाह्ह्ह...बहुत सुंदर👌
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteभव्य भाव सुंदर रचना ।
ReplyDeleteसहन की दीवारें जब भी इसकी ध्वस्त होती हैं,
ReplyDeleteमनुष्यों की हर इक शक्तियाँ तब पस्त होती हैं।
सीमायें तोड़कर ये जब विनाशक रूप में आये,
इसके कोप के आगे न फिर तो कोई ठहर पाये।
बढ़िया प्रस्तुति