Thursday, December 31, 2020

586 ...जाते जाते आने वाले को कुछ सिखाने के लिये कान में बहुत कुछ फुसफुसा गया एक साल


सादर अभिवादन..
नए साल को परिभाषित कर
हम हरदम कुछ नयापन
ढूंढ ही लेते हैं
जैसे एक नाम दिया है
इक्कीसवां सदी का
इक्कीसवाँ साल
ये नयापन याद में
तबतक ही रहेगा
जबतक उसे
नए की तरह निभाया जाएगा...

 चलिए चलते है वर्ष के अंतिम अंक की ओर

 दुहाई ....वर्ज्य नारी स्वर

तुम्हारा दावा
कब हवा हो जाती है
कब तुम
बन जाते हो चक्रवात
प्यार का चिंदी-चिंदी उड़ाकर
तुम कर ही नहीं सकते- प्यार
तुम्हारी न शांत होने वाली भूख
तुम्हे क्या-क्या बना देती है ...


नयी उम्मीदें ...ग़ज़ल यात्रा
पूरी होंगी चर्चाएं जो बाकी हैं
नये साल में नयी उमीदें जागी हैं

आने वाले दिन शायद कुछ बेहतर हों
पिछली यादें बड़ी रुलाने वाली हैं

भरे हुए जो घर बाहर से लगते हैं
भीतर से वे बिलकुल खाली-खाली हैं


साल परिवर्तन ....कविताएँ
नया साल आया भी नहीं
कि तुम जश्न मनाने लगे,
लगता है, तुम्हें यक़ीन है
कि यह साल भी तकलीफ़ देगा
बीते साल की तरह.


असीम शुभकामनाएँ ..सोच का सृजन
सारे फ़साद की सोर उम्मीद है।
नमी में आग का कोर उम्मीद है।
सोणी के घड़े सा हैं सहारे सारे,
ग़म की शाम में भोर उम्मीद है।


सोचो क्या करना है ? ...आकांक्षा
मन मेरे सोचो क्या करना है ?
आने वाले कल के लिए
कोई उत्साह नहीं है अब  
जीवन की शाम का
इंतज़ार कर रहे हैं |


31 दिसम्बर...बजा रहा है सीटी



आते आते
सामने से
साफ साफ
दिख रहा है अब सीटी
बजाता
जाता हुआ एक साल

पिछले सालों
की तरह
हौले हौले
से जैसे
मुस्कुरा कर
अपने ही
होंठों के
अन्दर अन्दर
कहीं अपने
ही हाथ
का अँगूठा
दिखा गया
एक साल
....
अंततः आने वाले 

नववर्ष की शुभकामनाएँ
सादर



  

Wednesday, December 30, 2020

585 ..बड़ी खोखली, पाई तेरी ही झोली! जाते-जाते, ले गए तुम,

 नया साल दस्तक देने को है,
आपने भी कई संकल्प ले लिए होंगे
या..उन पर विचार कर रहे होंगे.
वादों-इरादों के फेर में छोटी-छोटी बातों को न करें..
नज़रअन्दाज..ये जीवन में बदलाव ला सकती है
हंसना मत भूलिए, अपनी झल्लाहट छोड़ विनम्र बनें
जुड़े रहें समाज व पड़ोसियों से,
किसी के मन की भी सुनें..
सबसे अहम बात अपनी सेहत के प्रति सजग रहें..
.....
और आज ही
आज हिन्दी के ग़ज़लकार 
स्मृतिशेष दुष्यन्त कुमार त्यागी जी की पुण्यतिथि है
उनके बारे में निदा फ़ाज़ली के कहा है
"दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से 
और नाराज़गी से सजी बनी है। 
यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और 
राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ 
नए तेवरों की आवाज़ थी, 
जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह 
पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।"
उनकी रचना की कुछ पंक्तियाँ...
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिंगारी कहीँ से ढूंढ़ लाओ दोस्तो,
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के ह्रदय सी,एक जंगली फूल सी,
आदमी की पीर गूँगी ही सही गाती तो है।
..
शत-शत नमन..
.....
अब रचनाएँ देखिए



कभी हल्के जाड़े सा सुहाना
कभी गर्मियों सा  दहकता
कभी बंसत सा मन भावन
कभी पतझर सा बिखरता


नग्न सारांश ..अग्नि शिखा



वृद्ध आँखों का सूनापन,
सर्द रातों में ढूंढता है,
परित्यक्त कोई कोना,
उतरती धूप की वसीयत में
अंधकार के सिवा कुछ नहीं होता,
सिमटती नींद के लिए ज़रूरी नहीं है
कोई चन्दन काठ का बिछौना।


ओ तथागत-2020 ..जीवन कलश



प्रतिक्षण, थी तेरी ही, इक प्रतीक्षा!
जबकि, मैं, बेहद खुश था,
नववर्ष की, नूतन सी आहट पर,
उसी, कोमल तरुणाहट पर!

गुजरा वो, क्षण भी! तुम आए...
ओ तथागत!


कोई दुःख इतना बड़ा नहीं होता ..मेरी धरोहर



कोई अनुभूति
इतनी गहरी नहीं होती कि
उसके मापन के लिए
असफल हो जाएँ-
सारे निर्धारित मात्रक..!
कोई रुदन
इतना द्रावक नहीं होता कि
बन जाए-
एक नया महासागर..!


"नये साल में" ....मंथन

मंगल मोद मनाये
कुछ हँस ले कुछ गाए
नये साल में...
भूलें जो दुःस्वप्न सरीखा था
जो भी था
सब अपना था
आशा के दीप जलाए
नये साल में..
....
आज बस
मिलते हैं अगले वर्ष फिर
सादर


Tuesday, December 29, 2020

584 ...पिछला साल गया, थैला भर गया, मुट्ठी भर यहाँ कह दिया



सादर अभिवादन..

गुज़रो न बस क़रीब से
 ख़याल की तरह
आ जाओ ज़िंदगी में
 नए साल की तरह ...
 
आज के अंक की शुरुआत 




थक गई हूँ मैं अब खुली हुई आँखों से
रोज रोज के झंझावातों से

आख़िर मिलता ही क्या है आंखें खोलकर
हर कदम रखना पड़ता है तौल तौलकर


सोचा-समझा प्यार ...ओंकार जी


बदले समय में ज़रूरी है
कि हम सोच-समझकर
नफ़ा-नुकसान देखकर
प्यार करना सीख लें.


गृहपालित पाखी ...शान्तनु सान्याल


उंगलियों के दाग़, अभी तक हैं - -
लिपटे हुए मृदु पंख में, मुक्त हो कर भी
मन, सुदूर उड़ नहीं पाता,
बारम्बार लौट आता है मायावी जाल में,
घना कोहरा झपटने को है आतुर,


नए साल में नई आस ...अपर्णा बाजपेई




2021 लाएगा
मतवाली हर शाम नई,
परिवारों में हो पाएगी
मस्ती वाली बात नई,
साथ बैठ कर खाएंगे सब
पूछेंगे सबका सब हाल,
दौड़भाग से बच थोड़ा सा
मन को करेंगे माला माल,
अपनी बातें अपने सपने
बांटेंगे परिवारों में,
एकाकी होते जीवन को,
खोलेंगे निज उपवन में,


29 दिसम्बर 


नये साल में
नये जोश से
उतार लेना
कहीं भी
किसी के
भी कपड़े

जो हो गया
सो हो गया

वो सब मत
लिख देना

जो झेल
लिया है
....
बस..
कल फिर
सादर

  

Monday, December 28, 2020

583 ...संघर्ष का दूसरा नाम ही है जीवन,

नमस्कार
तीन दिन बचे हैं दिसम्बर को
गुज़र जाएँगे
ठीक उसी तरह
जैसै 363 दिन गुज़रे
लीप इयर था न ये
जा  रहा है
लीप-पोत कर
....
आइए पिटारा खोलें...


जब शांति का आगार सब अंगार हो जाए
सारा मधुकलश ही विष का सार हो जाए
क्लेश , शोक हर उत्सव का प्रतिकार हो जाए
संकुचित , व्यथित विचलन हो जब डगर तुम्हारी
तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी





प्रसन्न चित्त भावना, 
विषाद को निगल गयी।
नयी नयी उमंग देख, 
आत्मा उछल गई।।



'ज़िंदगी के कई इम्तिहान अभी बाकी हैं 
ज़िंदगी की कई उड़ान अभी बाकी हैं' 
यही वह समय भी रहा जब जीवन से 
रफ़्तार थम गई। फुर्सत भरे पल नसीब हुए।



शून्य का ये चक्र सा जो चल रहा 
डोलते हैं हम सभी उस चाक में ।
कौन है जो अडिग अविचल जी सके  
कौन है जिसको न मिलना ख़ाक में ।।



हमेशा की तरह, 
ये साल भी आख़िर गुज़र ही गया, 
अंजुरी से बह कर 
एक सजल अहसास, 
कोहनी के रास्ते, 
स्मृति स्रोत में कहीं, 
निःशब्द सा उतर ही गया, 
....
दें इज़ाज़त
वक़्त गर मिला तो
तो फिर मिलेंगे
सादर

 

Sunday, December 27, 2020

582...तुम, अपरिचित तो न थे कभी


 सादर वन्दे 

एक छोटी सी लघुकथा



- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था?'
-हाँ बेटा.'
-  'काश वह आज भी होता.
' दूरदर्शन पर नेताओं और संतों के
वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा। 

अब चले रचनाओं की ओर



हाल नया, साल नया
होगा उल्लास नया,
आंगन में सपनों का
होगा जहान नया,
ख़ाली हुई जेबें
फ़िर से भर जाएंगी,
टलती हुई खुशियां
जल्दी घर आएंगी,
रुकी हुई रेलों में
रौनक फिर छाएगी,
ख़ाली हुई सड़कें 
फिर से भर जाएंगी।





ग़र समझ लो वक्त रहते इश्क़ की गुस्ताखियाँ 
फिर मुझे हर वक्त पड़ता यूँ नहीं रोना प्रिये 

मेरे नैनों ने विवश हो, कल ये मुझसे कह दिया 
थक गया हूँ साथ रहकर, स्वप्न मत देखो प्रिये 





अंतिम पहर में थम गए 
सभी कायिक उफान, 
बहुत अनिश्चित होता है 
चाहतों का निद्राचलन,
देह और प्राण के मध्य 
निरंतर चलता रहता है 
एक असमाप्त खींचतान, 
अंतिम पहर में थम गए सभी कायिक उफान।





उपमा मन की मीत मिट्टी-सी महकी  
रुपक मौन ध्वनि सप्त रंगों-सा शृंगार
यति-गति सुर-लय चितवन का क़हर  
अक्षर-अक्षर में उड़ेला मेघों का उद्गार
शीतल बयार स्मृतियों के पदचाप 
मरु ललाट पर  छाँव उकेर  रही हूँ।




कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!





जन्मदात्री होती हैं..; 
कलाओं की..! 
आसन्नप्रसवा वेदना से 
हूकता है-मन..!
किसी भयावह,निर्जन जंगल में 
भटकते-भटकते
जो पागल हो जाते हैं..; 
वे भी जन्म लेते होंगे- 
किसी अग्निधर्मा,उर्वर गर्भ से ही..!
......
आज बस
सादर




Saturday, December 26, 2020

581 ..ये है उसकी माया, तू क्यूँ भरमाया!

 सांध्य अंक में आप सभी का
स्नेहिल अभिवादन
------//-----
दुनिया की वीभत्सता जब भी सताये
अपने मन की दुनिया में डुबकी लगाइये
तनाव और शोरगुल नज़र अंदाज़ कर
प्याले भर स्मृतियों की चुस्की लगाइये

बिला उन्वान

इबादतों को रहने दो ज़ाती दायरे तक ही महदूद,
नशा बना तो नस्ले आदम ही काफ़िर हो जाएगा,

इज़हारे आज़ादी क्या सिर्फ़ उनकी है मिल्कियत,
ज़ुल्म हद से बढ़ा तो हर लब शमशीर हो जाएगा 

कठपुतली

ईश्वर के हाथों, इक कठपुतली हम!
हैं उसके ही ये मेले, उस में ही खेले हम,
किस धुन, जाने कौन यहाँ नाचे!
हम बेखबर, बस अपनी ही गाथा बाँचे,
बनते हैं नादान!

यदि भीतर क्षमा हो 
तो क्षमा निकलेगी ।
और यदि भीतर 
क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या,अहंकार 
रूपी आडंबर,गंदगी भरी है
तो जिह्वा मूल से वही निकलेगी ।


लीलती हैं प्राण कितने
भूख ये जो बलवती है
सूखते नयनों के आँसू
पीर बनती पर्वती है
मनुजता सिर को पटकती
धूर्त जब मिलते अनेकों।।


बॉक्सिंग डे को मनाने का कोई बहुत ही कठोर नियम नहीं है।
कभी-कभी जब 26 दिसम्बर को रविवार पड़ जाता है तो  
इसे अगले दिन अर्थात 27 दिसम्बर को और यदि बॉक्सिंग दिवस
शनिवार को पड़ जाये तो उसके बदले में आने वाले
सोमवार को अवकाश दिया जाता है। परन्तु यदि क्रिसमस शनिवार को हो तो क्रिसमस की सुनिश्चित छुट्टी सोमवार 27 दिसम्बर को होती है और
बॉक्सिंग दिवस का सुनिश्चित अवकाश मंगलवार 28 दिसम्बर को होता है
....
कल आएगी दिव्या
सादर 
-श्वेता





,

Friday, December 25, 2020

580 ..लाल, नील, हरे, गेरु रंगों से नहीं बुझेगी ये जठराग्नि

नमस्कार
आज मेरी बारी
मैं वो सवाल हूँ , 
जिसका कोई जवाब नहीं…
हर कोई इस तरह से 
टालता है मुझे…

चलें आज का पिटारा देखें

अंधों के शहर आईना ...

फिर से आज एक कमाल करने आया हूँ
अँधों के शहर में आइना बेचने आया हूँ।

सँवर कर सूरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे में
आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूँ।


क्या कहूँ मैने किस पे ...



क्या कहूँ मैने किस पे कही  है ग़ज़ल।
सोच जिसकी थी जैसी, सुनी है ग़ज़ल ।

दौर-ए-हाज़िर की हो रोशनी या धुँआ,
सामने आइना  रख गई है  ग़ज़ल   ।


वह स्त्री ....

एक दिन वह मर गई,
किसी ने नहीं पूछा उससे,
'तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है?'
कोई पूछ भी लेता,
तो वह क्या जवाब देती,
उसे तो बोलना आता ही नहीं था.


तृतीय जगत .....

आंख मूँद कर, तुम निगल रहे हो
खाद्य अखाद्य सब कुछ,
लेकिन, मैं नीलकंठ नहीं हूँ, कि
कर जाऊं हर चीज़ को हज़म,
मेरी अंतःचेतना अभी तक है जीवित,
वो तमाम लाल, नील, हरे, गेरु रंगों से
नहीं बुझेगी ये जठराग्नि,
मुझे ज़रा ध्यान से देखो,


ईसा मसीह ....

ईसा जब जब तुम्हें 
यूं सूली पर
लटका हुआ देखती हूँ
तब तब तुम्हारे बारे में
सोचने लगती हूँ
और तुमसे ये
पूछ ही बैठती हूँ
ईसा तुम
अच्छाई को ठुकते
देख रहे थे 
....
बस
सादर




 

Thursday, December 24, 2020

579 ...घुल रहा है हवा में ज़हर ही ज़हर

सादर वन्दे
क्रिसमस की पूर्व संध्या में आपका स्वागत
कल सान्ता जी आएँगे
बच्चे लालायित हैं
गिफ्ट मिलेगा

.....
टलिए टलें (बच्चों की भाषा)
आज की रचनाएँ देखें


समय के अंगविक्षेप में दंभ रहता है भरा, 
निःशब्द मंचित हो कर छोड़ जाता है 
सब कुछ जहां के तहां,मुड़ कर 
वो देखता भी नहीं कि कौन हो तुम, 
दिग्विजयी सम्राट या कोई रमता जोगी,




मै तो तेरे रूह का हिस्सा हूं
जिसे तू भी मिटा नहीं सकता
अपने नाम से मेरा नाम
हटा नहीं सकता





घुल रहा है हवा में ज़हर ही ज़हर
कुछ जतन कीजिए कोंपलों के लिए 

साथ "वर्षा" निभाती रहेगी सदा 
आस्था शेष है बादलों के लिए





रोज़ सूरज 
घूमता है सिर झुकाए
बंद मुट्ठी में 
उजाले को दबाए




महज़ ...
सीने की आग ही
एक ढर्राए पिरामिड को 
भस्म कर
फिर से खड़ा कर सकती है
एक सपनों का महल ।।


Wednesday, December 23, 2020

578 ...बन्द पलकें सजल डबडबाने लगीं

 सादर अभिवादन
समझ नही पा रही हूँ
विदाई दूँ
या बधाई दूँ
आने वाला भी 
कहीं 20 से 21 निकल गया तो
वाकई लोग रो पड़ेंगे
अब रचनाएँ देखिए...


जो उस पल में रेहने संवरने के ख़ुशी में 
बाकि हर पल को भूल जाने या भुला देने में 
जो शायद उम्र भर फिर हो और 
इस पल के बाद फिर शायद कभी न हो  
इस बात का कोई आसरा न भरोसा हो 
मगर उस पल में सौ बार जीने मरने का 



सब छोड़ दिया, 
ठीक नहीं किया,
पर तुमने बहुत ग़लत किया 
कि हँसना छोड़ दिया.




हर एक विध्वंस के पश्चात, खुलते
हैं सङ्घ के कपाट, नील नद
से कलिंग तक, उत्थान
पतन है सृष्टि का
अवदान, मृत्यु
तट से ही होता है




संसार जहाँ,
सुख-सार, कहाँ!
व्यस्त रहा,
विवश रहा, प्राणी,
बिछड़न-मिलन के मध्य,
बह चला,
आँखों का पानी,
बरसा सावन,
फिर भी क्यूँ तरसा,
मन,




मन पर मढ़ी
ख़्यालों की जिल्द
स्मृतियों की उंगलियों के
छूते ही नयी हो जाती है,
डायरी के पन्नों पर 
जहाँ-तहाँ
बेख़्याली में लिखे गये
आधे-पूरे नाम 





बह चली नेह गंगा नयन कोर से
भीगते छोर आँचल किनारों से हैं

प्रीति भरके प्रवाहित हुई एक नदी
झूमती दस दिशाऐं बहारों से हैं

तब प्रणय गीत अधरों पे सजने लगे
बन्द पलकें सजल डबडबाने लगीं
....
बस आज एक ज्यादा है
झेल लीजिएगा
सादर