Thursday, April 30, 2020

340.बहुत ही छोटा था वो पर,,, था ग़ज़ब का कलाकार


इरफ़ान आखिर नहीं रहा..
बहुत ही छोटा था वो
पर,,,
था ग़ज़ब का कलाकार
अब यादों में शामिल हो गया
पद्मश्री इरफ़ान अब स्मृतिशेष बन गए
वो पांच फिल्में, जिनमें इरफान ने दिखा दिया- आखिर एक्टिंग क्या चीज होती है....
पान सिंह तोमर, लंच बॉक्स, हिंदी मीडियम, लाइफ इन मेट्रो और हासिल
मेरी ओर से भावभीनी श्रद्धांञ्जली
रचना कैसी पढ़वाएँ और क्या पढ़वाएँ
किंकर्तव्यविमूढ़ हैं हम...
फिर भी....


इरफ़ान .....शरद कोकास

तुमने तो मुझे डरा ही दिया था
जब तुमने कहा था
कि तुम्हें एक भयानक बीमारी है

जैसे कि रात में सांप का नाम नहीं लेते
तुम भी उस बीमारी का नाम
नहीं लेना चाहते थे
शायद तुम किसी को
भयभीत नहीं करना चाहते थे


बेटी की माँ ...अनीता सैनी

निधि ज्योति से मिलने वार्ड की तरफ़ क़दम बढ़ाती है परंतु न जाने क्यों उसके क़दम नहीं बढ़ रहे थे वह एक कश्मकश में उलझी थी वह और पता ही नहीं चला कब ज्योति के बेड के पास पहुँच गयी। 
"माँ जी ख़ुश हैं न?"
ज्योति ने बेचैनी से पूछा। 
"हाँ बहुत ख़ुश हैं।"
"क्यों "
निधि ने बेपरवाही से कहा। 
"उन्होंने पूजा रखी थी,मन्नतों में मांगा करती थीं घर का वारिस।"
अंतस में कुछ बिखरने की आवाज़ से ज्योति सहम-सी गयी। 
बेटी के लिए अब आँचल छोटा लगने लगा...  

मेरी ख़ातिर गाओ ना पापा ... सुबोध सिन्हा
बेटी का श्राप...

" है ना पापा ? बोलो ना पापा। गाओ ना पापा .. प्लीज .. एक बार .. बस एक बार .. अपनी पर कटी परी के लिए - ' मेरे घर आई एक नन्हीं परी, एक नन्हीं परी .. एक नन्हीं परी ...' "                       
** आप इसे पढ़िए या देखिये या दोनों ही कीजिए। पर बतलाना मत भूलियेगा कि इस वीडियो ने आपकी आँखों को नम किया या नहीं ..
....
अब नहीं लिखा जा रहा
कल देखेंगे शायद हम
वह तो नहीं देख पाया
सादर






Wednesday, April 29, 2020

339...फैला हुआ है कोरोना लेखन में भी..

सादर अभिवादन
10 और नए संक्रमण
छत्तीसगढ़ में
बात तो है ही चिन्ता की
विधि का लेखन
मेट सका है कौन...
फैला हुआ है कोरोना
लेखन में भी..
...
चलिए आज की रचनाओं की ओर...

Lockdown, Stay At Home, Stay Home
वार्डरॉब उदास हैं,
पोशाकें परेशान हैं,
कोई नहीं ले रहा 
उनकी सुध,
कोई नहीं पूछ रहा 
आईने से
कि कौन सी ड्रेस 
फबेगी उस पर.


जब भी कुछ परेशानी होती
या कोई कठिनाई आए
मुझे चिंता मुक्त करने के खातिर
कभी माँ, कभी बहन
कभी सखी बन जाती है
माँ तू कितने किरदार निभाती है l


मैं अंतर्मन तू है शरीर 
चंचल, चपल, विकल है तू, मैं गहन, 
धीर, गंभीर मैं अंतर्मन, 
तू है शरीर .... 


मिथ्या बौद्धिकता,
झूठे अहम और छद्म आभिजात्य
के मुखौटे के पीछे छिपा
तुम्हारा लिजलिजा सा चेहरा
मैंने अब पहचान लिया है
और सच मानो
इस कड़वे सत्य को
स्वीकार कर पाना मेरे लिए
जितना दुष्कर है उतना ही
मर्मान्तक भी है !


एक बात और बताऊं। मैं अपना लेखन खाली बैठकर ही किया करता हूं। खाली रहकर ही अधिक अच्छा लिख पाता हूं। लेखन है ही बैठे-ठाले का काम। पता नहीं अन्य लेखक लेख व किताब लिखने के लिए कई-कई दिन कैसे बर्बाद कर देते हैं। मैं उतना ही लिखता हूं, जितना मेरा खालीपन परमिशन देता है।

लॉकडाउन की छ्त्र-छाया में जो हैं, वे खाली रहें। स्वस्थ रहें। लेकिन घरों में ही रहें। घर में रहकर अपने खालीपन को एंजॉय करें।


जीना भी इक मुश्किल फन है 
सबके बस की बात नहीं 
कुछ तूफान ज़मीं से हारे, 
कुछ क़तरे तूफ़ान हुए 

अपना हाल न देखे कैसे, सहरा भी आईना है 
नाहक़ हमने घर को छोड़ा, नाहक़ हम हैरान हुए
आज बस
कल फिर
सादर




Tuesday, April 28, 2020

338 दुनिया दारी की बाजारी अंकगणित का प्रश्न नहीं है

आज वाकई अच्छा लग रहा है
एक नाई चिल्लाता हुआ घूम रहा था
बाल सेट करवा लो
भय तो लगा
पर डर के आगे जीत है
फार्मूला अपनाया..
बुलाकर बैठ गए सिर नवाकर...

अब आज की रचनाएँ देखें...

दुनिया दारी की बाजारी अंकगणित का प्रश्न नहीं है
रिश्तों की घट जोड़ उधारी स्वार्थ रहित शुभ स्वप्न नहीं है
अपने मन के बीतराग को कौन समझ सकता है बेहतर
आत्म तत्व की सहज समाधि नहीं मिली माया में रहकर ||


आदमी, आदमी से आदमी का 
पता पूछता है 
खुदा का बंदा खुदा को 
हर बन्दे में ढूँढता है । 


आओ आज कतरनों से कविताएं रचते हैं 
और मिलकर कचरों से कहानियाँ गढ़ते हैं।


रहें आबाद वो चाहे जहां हो।
खुदा शायद यही अब चाहता है।

हुई मुद्दत उसे देखे हुये तो।
बिना उसके जीना लगता सजा है।।


ऊबड़-खाबड़ सी वो राहें,
शान्ति अनंत थी घर-आँगन में।
अपनापन था सकल गाँव में,
भय नहीं था तब कानन में।
यहाँ भीड़ भरी महफिल में,
मुश्किल है निर्भय रह पाना।
दशकों पहले शहर आ गये,
नहीं हुआ फिर गाँव में जाना।


भूख पेट में थी
खाना मदद के इश्तिहारों में
और रास्ता लम्बा

भूख ने दम तोड़ दिया
इश्तिहार चमकते रहे.

उलूक की खबर है क्या

बेवफाई कर
जिंदा रहेगा

घर में रहेगा
खबर में रहेगा

वफा करेगा
वफादार रहेगा

कोई
कुत्ता कहेगा
बेमौत मरेगा




Monday, April 27, 2020

337 ...है वह आइना तेरा हर अक्स का हिसाब रखता है

सादर अभिवादन.
मात्र छः दिन बचे
लाक खुलने के
पर खुशियां न मनाएँ
अपनी दिनचर्या न बदलें
वो विषाणु
चालिस दिन के बाद
फिर आता है ये देखने कि
लोग सुधरे या नहीं..
....
चलिए रचनाओँ की ओर..
इस ब्लॉग मे पहली बार
पिता-पुत्र की दोस्ती है बहुत प्यारी, 
बिना बोले वो समझे पुत्र की परेशानियाँ सारी| 
आने लगे पुत्र को पिता के जूते तो 
है ये इस बात की तैयारी,अब 
पुत्र भी समझें पिता की परेशनियाँ सारी
.....
शुभकामनाएँ भाई पुरुषोत्तम जी को
उनकी 
1200 वीं प्रस्तुति के लिए

फिर, चुन कर, राहों के काँटों को,
फिर, पोंछ कर, पाँवों से रिसते घावों को,
फिर, बुन कर, सपनों के जालों को,
देख कर, रातों के, उजालों को,
या, तोड़ कर, सारे ही मिथक,
कुछ, लिखता हूँ हर बार!


है वह आइना तेरा
हर अक्स का हिसाब रखता है
तू चाहे याद रखे न रखे
उसमें जीवंत बना रहता है
बिना उसकी अनुमति लिए
जब बाहर झाँकता है


क्या आप भी आरओ (RO) का पानी पीते हैं?
ब्यूरो ऑफ इंडीयन स्टैंडर्ड (BIS) के मुताबिक, मानव शरीर अधिकतम 500 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियम) टीडीएस सहन कर सकता हैं। आरओ के पानी से सामान्यत: 18 से 25 पीपीएम टीडीएस मिल रहा हैं, जो काफ़ी कम हैं। टीडीएस का मानक स्तर 70-150 के बीच होना चाहिए। वरना पानी डिस्टिल वाटर बन जाता हैं। 



निराशा के बादलों से
सूर्य आशा का दिखेगा
कालिमा के मध्य से जब
चाँद भी खुलकर हँसेगा
जिंदगी फिर पूर्ण होगी
लग रही है जो अधूरी।


आँसू और मुस्कान के हिसाब
बुझी आग के राख में
उड़ती है
पीढ़ियों की लोककथाएँ
बुझे चूल्हे बहुत रूलाते हैं
स्मरण करवाते हैं
जीवन का सत्य 
कि यही तो होते हैं 
मनुष्य के
जन्म से मृत्यु तक की 
यात्रा के प्रत्यक्ष साक्षी।
....
आज बस
सादर


Sunday, April 26, 2020

336 इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया

सादर अभिवादन
कल शहर घूमने की प्रबल इच्छा ने
हमें बीमार कर दिया
शाम तक सभी से मुलाकात करके
वापस आए..
आज की रचनाएँ..

महाभारत का युद्ध और माँ ...कुमार कृष्ण

रविवार को बचाकर रखना चाहती है सिर्फ अपने लिए
वह देख सके इतमिनान से महाभारत का युद्ध
माँ को समझ नहीं आती बड़ी-बड़ी बातें
बहुत खुश नजर आती है माँ जब-
एक-एक के मरते हैं कौरव
पांचाली के चीर हरण पर-
बहुत जोर-जोर से रोती है माँ।


रामलीला में परशुराम ..कविता रावत

ऐ मूढ़ जनक तू सच बतला, ये धनुवा किसने तोड़ा है।
इस भरे स्वयंवर में सीता से नाता किसने जोड़ा है।
जल्दी उसकी सूरत बतला, वरना चैपट कर डालूँगा।
जितना राज्य तेरा पृथ्वी पर, उलट-पुलट कर डालूँगा।
मेरे इस खूनी फरसे ने खून की नदिया बहाई है।
इस आर्य भूमि में कई बार, क्षत्राणी विधवा बनाई है।


पर तन का अनुराग प्रबल है ...पवन
युगों युगों  की एक कहानी 
तृष्णा मन की बहुत पुरानी 
प्राणों की है प्यास बुझाना,
लेकिन नए स्वाद भी पाना 

पतन हुआ था जिसको पाकर, मांगे वही स्वर्ग का फल है ।
 मन कब का बैरागी होता  पर तन का अनुराग प्रबल है।


"क रोना" का शर्तिया ग्यारंटेड ईलाज ...बाबाश्री ताऊ महाराज

कुछ पति भी पत्नियों पर अत्याचार कर रहे हैं जिसकी वजह से पुलिस भी परेशान है. अब पुलिस लोक डाऊन को मैनेज करे या इन खूसट पतियों की खबर ले? चारों तरफ़ हालत बहुत ही नाजुक और दयनीय हैं.

आपको इन कष्टों से छुटकारा दिलाने के लिये बाबाश्री ताऊ महाराज ने अचूक उपाय खोज निकाले हैं. और कोरोना के लोक डाऊन को देखते हुये आपको बाबाश्री के पास आने की आवश्यकता भी नहीं है बल्कि मोबाईल पर ही आपका ग्यारंटेड इलाज उपलब्ध करवा दिया जायेगा.

उलझन किशोरावस्था की ....सुधा देवरानी

सुनो माँ अब तो बात मेरी
और आर करो या पार!
छोटा हूँ तो बचपन सा लाड दो
हूँ बडा़ तो दो अधिकार !

टीवी मोबाइल हो या कम्प्यूटर
मेरे लिए सब लॉक
थोड़ी सी गलती कर दूँ तो

सब करते हो ब्लॉक

कलयुग का काँटा ...पुरुषोत्तम सिन्हा

इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
काँटा ही कहलाया,
कुछ तुझको ना दे पाया,
सूनी सी, राहों में,
रहा खड़ा मैं!
..
अब बस
कल की कल
सादर
#हिन्दी_ब्लॉगिंग



Saturday, April 25, 2020

335 एक शोध..ऊपर वाला एक वैज्ञानिक है

देवी जी आज व्यथित है
उनका व्यथित होना संदेहास्पद है
कारण अब तक लापता है...
कल तक पता चलेगा
चलिए छोड़िए...
होइहै वही तो राम रचि राखा
को करि तर्क बढ़ावे साखा

कल का अंक लघुकथा अंक सा लग रहा था...
देखें आज क्या है......


बीती रात की बारिश ...प्रतिभा कटियार

कल रात बारिश हुई...रात भर...तेज़ नहीं मध्धम बारिश. मैं रात भर भीगती रही...कांपती रही. सुबह को उठी हूँ तो धरती सूखी है, पत्तियों पर, फूलों पर, तितलियों पर कहीं बारिश के नामो निशान नहीं हैं. लेकिन मैं खुद को भीगा हुआ ही महसूस कर रही हूँ. काँप रही हूँ. 


फिक्र ...आशा सक्सेना

हो किस बात की फिक्र
मन सन्तुष्टि से  भरा हुआ है
कोई इच्छा नहीं रही शेष
ईश्वर ने भरपूर दिया है |
है वह इतना मेहरवान कि
कोई नहीं गया भूखा मेरे द्वार से
होती चिंता चिता के सामान
पञ्च तत्व में मिलाने का
एहसास भी नहीं होता


काबिले तारीफ- ओडिशा ....आत्ममुग्धा
My Photo
बस, यही अब हमे करना है। किसी वर्ग विशेष पर दोषारोपण करना छोड़िये और बचाव कार्यों पर ध्यान केंद्रित करे। किस देश ने गलती की, किस वर्ग विशेष ने गलती की....अब ये न गिने....अब देखे कि हम अपनी तरफ से बेहतर क्या कर सकते है। फिलहाल तो हमे घरों में रहना है, हमारी जिंदगियों का पैटर्न बदल रहा है । लॉकडाउन के बाद हम कैसे रहेंगे ये बात अभी विचाराधीन है । कमिया मत निकालिये....एक ईकाई के स्तर पर रहकर सोचे। आत्मनिर्भरता बढ़ाये। ये जिंदगी की जंग है....कंम्फर्ट जोन में रहकर तो कभी न जीत पायेंगे। पूरी लाइफ स्टाईल बदलने वाली है आपकी, इस बदलाव को सहजता से लेकर आगे बढ़े....मन के साथ की अपेक्षा भले ही रखे पर बढ़े हाथ की नहीं । अपने कार्यों और क्रियाओं की जवाबदारी लेना सीखे। 


मेरी फ़ितरत में है लड़ना ...निजाम फतहपुरी

मेरी फ़ितरत में है लड़ना सच के लिए 
तू  डराएगा  तो  क्या  मैं  डर जाऊँगा  

झूठी दुनिया में दिल देखो लगता नहीं 
छोड़ अब ये महल अपने घर जाऊँगा  

मौत सच है यहाँ बाक़ी धोका "निज़ाम" 
सच ही कहना है कह के गुज़र जाऊँगा  


भला क्यों ? ...सुबोध सिन्हा

आपादमस्तक
बेचारगी के
दलदल में भी
ख़ुशी का
हर गीत..सच में
चमत्कार-सा लगे

चलते- चलते उलूक का एक शोध

ऊपर वाला
जरूर किसी
अन्जान
ग्रह का
प्राणी वैज्ञानिक

और मनुष्य
उसके किसी
प्रयोग की
दुर्घटना
से उत्पन्न

श्रंखलाबद्ध
रासायनिक
क्रिया का
एक ऐसा
उत्पाद
रहा होगा

जो
परखनली
से निकलने
के बाद
कभी भी
खुद सर्व
शक्तिमान
के काबू में
नहीं रहा होगा

आज बस
देवी जी को कल आना है
वे डिप्रेशन से बाहर आ गई है
सादर











Friday, April 24, 2020

334 "अम्मा! अब नहीं चला जाता है

सादर नमस्कार
आज हम हैं
घर से बाहर नहीं निकले
इसीलिए हैं..

लीजिए आज की मिली-जुली रचनाएँ
एक कहानी सूरज नारायण की

एक परिवार में रहते तो केवल तीन सदस्य थे ,पर महिलाओं में आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी | सारे दिन आपस में झगडती रहती थी । घर में सारे दिन की कलह से सूरज नारायण बहुत तंग आ चुका था | न तो घर में कोई बरकत रह गई थी और न ही कोई रौनक | यदि कोई अतिथि आता ,सास बहू के व्यबहार से वह भी दुखी होकर जाता | धीरे धीरे घर के वातावरण से उकता कर वह घर से बाहर अधिक रहने
लगा| जब इतने से भी बात नहीं बनी ,एक दिन शान्ति की तलाश में सूरज ने घर छोड़ दिया|


'बेबसी'

देर सुबह जगा तो झुग्गी का द्वार बन्द था, पत्नी जो हमेशा उससे पहले उठ जाती थी आज निश्चेत सी लेटी थी।उसे उठाने के लिए छुआ तो सन्न रह गया।पत्नी का बदन बुखार से तप रहा था पास में लेटा बच्चा भी जोर-जोर से खाँस रहा था ।उसने उठने की कोशिश की तो उसका सिर चकराने लगा। बुरी आशंका से उसका हृदय काँप उठा।
सामने पड़ी राशन की थैलियाँ उसे मुँह चिढ़ा रही थी.......।


स्त्री और सम्मान...

एक स्त्री के लिए 
प्रेम से बढ़कर भी 
कुछ हो सकता है, 
तो वो है सम्मान 
या रिस्पेक्ट..।


बड़ों का फर्ज ....


उसकी इस क्रिया को उसके निकट घास चरता हुआ एक साँढ़ बड़ी तन्मयता से देख रहा था।उसने गाय से पूछा-तुमको इतनी रोटियाँ खाने के लिए मिलती हैं जिसे खाकर तम्हारा पेट भर जाता।पर, तुम उन प्राणियों के आगे बढ़ते ही उनके लिए रोटियाँ छोड़ दी।क्या तुम्हें रोटियाँ अच्छी नहीं लगती।
गाय बोली- मुझे रोटियाँ अच्छी तो बहुत लगती हैं।लेकिन उतनी रोटियों से मेरा पेट नहीं भरता।अगर मैं उनके लिए रोटियाँ छोड़ दी तो उनकी भूख तो मिटी।मैं तो अपना पेट घास खाकर भी भर लूँगी।लेकिन कुछ जीव एैसे हैं जो घास नहीं खा सकते।उनके लिए रोटियाँ उपयोगी थीं।


एक अंतहीन सफर का झूठा अंत ....

"अम्मा!
अब नहीं चला जाता है, 
पैर दुखने लगे हैं |"
"अब अरे ऊ... देख सामने हमारे गांव की बस्ती नज़र आ रही है।
बस थोड़ा सब्र कर बिटिया हम पहुंचने ही वाले हैं|"
"क्या अम्मा,  काहे तू झूठ बोल रही है!
"दूई दिन से तोहार ई बात सुन-सुनकर हमार कान पक गईल बा....
ऐ दिदीया!!

सादर
आभार..




Thursday, April 23, 2020

334अच्छा बुरा होता नही दुनियाँ में कोई यारों

सप्रेम वन्दे
.....
आज 23 अप्रैल
विश्व पुस्तक दिवस


23 अप्रैल 1564 को एक ऐसे लेखक ने दुनिया को अलविदा कहा था, जिनकी कृतियों का विश्व की समस्त भाषाओं में अनुवाद हुआ। यह लेखक था शेक्सपीयर। जिसने अपने जीवन काल में करीब 35 नाटक और 200 से अधिक कविताएं लिखीं। साहित्य-जगत में शेक्सपीयर को जो स्थान प्राप्त है उसी को देखते हुए यूनेस्को ने 1995 से और भारत सरकार ने 2001 से इस दिन को विश्व पुस्तक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।
.....
और आज

एक अजीब सी पोस्ट दिखी कि जर्मनी  ने
 चीन को 130 बिलियन पौंड का बिल
कोरोना वायरस के लिये भेजा है
जिससे बीजिंग में सरसराहट शुरू हो गई है
 क्या यही विश्वयुद्ध की शुरुआत है,
और इस डिबेट मे फेसबुक के सदस्य और कतिपय
ब्लॉगर भी शामिल है
तसल्ली कर लीजिए




अब रचनाओं की ओर...

पकवानों ने
खिड़की से झांक कर
सड़क पर चलती भूख को कोसा।

भूख ने ईश्वर से कहा
मरने से पहले घर पहुंचा देना।

* * *
तस्वीरें डालकर
अघाये हुए पकवान
इस सोच में गुम थे
कि नया क्या किया जाए।


दुकानें बंद हैं अब शहर भर में
निज़ाम-ए-ज़िंदगी बदला हुआ है

हुए हैं क़ैद अपने ही घरों में
कि दुश्मन का अजब ये पैंतरा है

अजब ये जंग-ए-पोशीदा है इस को
घरों में बंद हो कर जीतना है


पाया है कि
टूटे हो तुम
हर सफर में,
'उस ' से हो
खुद तक पहुंचने की
हर एक कोशिश में
सच है कि
तुम्हारे आसमां में
अब नहीं कोई
चांद न सूरज न तारा


सदी को पल में रौंदने वालों ! .. 
है सवेरा एक .. शाम एक
प्यार का पैगाम एक .. 
फाल्गुन तो कभी रमज़ान कहते हैं।

ख़ुशी आज़ादी का फहरा कर 
तिरंगा मनाता है सारा शहर
पर ख़ून से तराबोर सन्नाटे सारे, 
सारे सच बयान करते हैं।


ख़ुशनुमा  मौसम में  भी पतझड़  होगया हूँ!
आँसुओं को छुपाते छुपाते पत्थर होगया हूँ!!

अच्छा  बुरा  होता  नही  दुनियाँ में  कोई यारों!
हर जितने वाला समझता सिकन्दर हो गया हूँ!!
आज बस
कल देखते है
यदि कल दिखी तो आएंगे



Wednesday, April 22, 2020

333..आज हमारी पृथ्वी भी आनन्दित है क्योंकि हम नज़रबंद हैं

वायदा किया था किसी से
कि आज हम
कुछ ऊल-जुलूल ही लिक्खेंगे
पर अफ़सोस हम
वादा फ़रामोश निकले
....
आज विश्व पृथ्वी दिवस है
भरपूर शुभकामनाएँ
आज हमारी पृथ्वी भी आनन्दित है
क्योंकि हम नज़रबंद हैं
गंदगी और कूड़ा नहीं है
पृथ्वी पर
अमन-चैन है
पशु-पक्षी निर्भय हैं
लिखने जाएँ तो रचना बन जाएगी..
पर अभी..
चलिए रचनाओँ की ओर...

सांगरी
ताप पाप से दहक-दहक
धिप-धिप धँस गयी धरती।
परत-परत बे पर्दा करके
सुजला सुफला भई परती।

मत रो माँ !  मरुस्थल में हम
अजर, अमर और जीवट।
जाल, खेजड़ी, रोहिड़ा
कैर, बैर और कुमट।


बुद्धिजीवी बन इतराते तुम
तो चलो लगाओ बुद्धि ज़रा
वो कौन सी बोली बोलें हम
जो प्रेम-सद्भाव की बात करे
न  तेरे  मेरे  की  जात  गढ़े
भटकों को राह दिखाए वो
कड़ी बीच की बन जाए जो
ऐसी राह कहाँ से पाएँ  हम


कोरोना से थम गई,  दुनिया की रफ़्तार।
त्राहि-त्राहि जग कर रहा, नजरबंद संसार।।

मरहम रखने को गये, लौटे ले कर घाव।
परहित में जो हैं लगे, उन पर ही पथराव।


माँज रहा था समय,
 दुःख भरे नयनों को,
स्वयं को न माँज पाई, 
एक पल की पीड़ा थी वह,
कल्याण का अंकुर,
उगा था उरभूमि पर,
बिखेर तमन्नाओं का पुँज,
हृदय पर लगी ठेस,
प्रीत ने फैलाया प्रेम का,
दौंगरा था वह।


चाँद की व्यथा ....
ओ मानव!
आज देखा तुमने 
मुझे ग़ौर से 
मैं तो सदियों से 
ऐसा ही हूँ 
रोज़ आता हूँ ,
रोज़ जाता हूँ 
ख़ुद ताप सहकर
सारे जग को
अपनी शीतलता 
बिना भेदभाव
प्रदान करता हूँ

नज़रबंदी का दौर चालू आहे...डॉ. सुशील जोशी

समझ
लेता है
इशारा
समझने वाला

कौन
शायर है
कैसा
कलाम है

बचा
जमाना है
नासमझ है

जब
हो चुका
खुद ही
शौक से
नजरबन्द है ।

..
आज इतना ही
कल की कल देखेंगे
सादर