सादर अभिवादन
दिसम्बर का बीसवां दिन
धीरे -धीरे बीत रहा है साल
दुख हो रहा है जाने में
दूसरों की खुशियों का
अंदाजा नहीं है इसे.
....
आज की रचनाएँ..
धीरे -धीरे बीत रहा है साल
दुख हो रहा है जाने में
दूसरों की खुशियों का
अंदाजा नहीं है इसे.
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आज की रचनाएँ..
अंतरस्थ मेरे है,
एक मुलायम साप्रदेश,
जो बिखरने नहीं देता
मुझे, समेट के रखताहै,
अपने सीनेके अदृश्य
नीड़में, उन असमय के लड़खड़ाहटों में,
वो मेरा स्वागत करता है
मुटिठयों में प्यास भींचे ...
भीतरी मन
और आंगन
ओढ़ते
गहरी उदासी
रक्तपाती
रास्तों से
दूरियां हैं
बस, ज़रा-सी
जाता हुआ साल
खून-पसीना एक करके
तिनका-तिनका जोड़ा
प्यारा सा सुंदर घरौंदा
अपनों ने ही तोड़ा
हाथों से सहला दुलराते
दीवारों को सजाया
शीशा चुभे या कांटा ...
गंवार हूं मेरा दर्द कुछ खास नहीं होता
शीशा चुभे या कांटा मुझे अहसास नहीं होता।
जब भी लगी ठोकर हम रोकर संभल गए
गैर क्या अपना भी कोई पास नहीं होता।
....
इति शुभम
सादर
इति शुभम
सादर
वाह बेमिसाल प्रस्तुति
ReplyDeleteयशोदा अग्रवाल जी,
ReplyDelete"सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" में मेरे नवगीत को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार। आपकी इस सदाशयता के प्रति हार्दिक धन्यवाद 🌷🙏🌷
- डॉ शरद सिंह
ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती रचनाएँ मुखरित मौन को एक नई दिशा देती हैं - - सभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं, मुझे जगह प्रदान करने हेतु ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति, "सांध्य दैनिक मुखरित मौन" में मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया यशोदा जी।
ReplyDeleteदेर से आने के लिए खेद है, सुंदर रचनाओं का चयन, अन्य रचनाकारों को बधाई ! आभार !
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