Sunday, April 25, 2021

697..कुछ दिन और इसी तरह..

भगवान महावीर जयंती की शुभकामनाएं....

मौसम खराब चल रहा है..

पेनडेमिक माहौल है..

आगे की इच्छा ईश्वर की है..

Monday, April 19, 2021

696....चालीस घंटे...ज्योति खरे

सांध्य दैनिक के
सोमवारीय अंक में आप सभी का 
स्नेहिल अभिवादन

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आज सिर्फ़ एक रचना पढ़िए

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अपने होने 
और अपने जीने की
उम्मीद को
छाती में पकड़े पिता
ऑक्सीजन न मिल पाने की वजह से
अस्पताल में अकेले लेटे 
कराह रहे हैं
मेरे और पिता के बीच हुए सांत्वना भरे संवाद
धीरे धीरे गूंगे होते जा रहे हैं
पहली बार आभास हुआ
कि,मेरे भीतर का बच्चा
आदमी बन रहा है
मैं चीखता रहा उनके पास 
रहने के लिए
लेकिन विवशताओं ने 
मेरी चीख को अनसुना कर
बाहर ढकेल दिया 
मैं पिता का 
परिचय पत्र,राशनकार्ड,आधारकार्ड 
और उनका चश्मा पकड़े
बाहर पड़ी 
सरकारी टूटी बेंच पर बैठा 
देखता रहा उन लोगों को 
जो मेरे पिता की तरह
एम्बुलेंस से उतारकर 
अस्पताल के अंदर ले जाए जा रहें हैं
पूरी रात बेंच पर बैठा सोचता रहा
पास आती मृत्यु को देखकर
फ्लास्क में डली मछलियों की तरह
फड़फड़ा रहे होंगे पिता
इस कशमकश में 
बहुत कुछ मथ रहा होगा
उनके अंदर
और टूटकर बिखर रहे होंगे
भविष्य के सपने
सुबह
बरामदे में पड़ी 
लाशों को देखकर
पूरा शरीर कांपने लगा
मर्मान्तक पीड़ाओं से भरी आवाज़ें
अस्पताल की दीवारों पर 
सर पटकने लगीं
मेरे हिस्से के आसमान से 
सूरज टूटकर नीचे गिर पड़ा
लाशें शमशान ले जाने के लिए
एम्बुलेंस में डाली जाने लगी
इनमें मेरे पिता भी हैं
सत्ताईस नम्बर का टोकन लिए 
शमशान घाट में लगी लंबी कतार में खड़ा हूं
पिता की राख को घर ले जाने के लिए
एक बार मैंने पिता से कहा था
आपने मुझे अपने कंधे पर बैठाकर
दुनियां दिखायी
आसमान छूना सिखाया
एक दिन आपको भी
अपने कंधे पर बैठाऊंगा
उन्होंने हंसेते हुए कहा था
पिता कभी पुत्र के कंधे पर नहीं बैठते
वे हाँथ रखकर 
विश्वास पैदा करते हैं
कि, पुत्र अपने हिस्से का बोझ
खुद उठा सके
पिता सही कहते थे
मैं उनको अपने कंधे पर नहीं बैठा सका
पिता कोरोना से नहीं मरे
उन्हें अव्यवस्थाओं ने उम्र से पहले ही मार डाला 
चालीस घंटे बाद
उनको लेकर घर जा रहा हूँ
मां
थैले में रखे पिता को देखकर
पछाड़ खाकर देहरी में ही गिर जायेंगी
पिता अब कभी घर के अंदर नहीं  आयेंगे----

Sunday, April 18, 2021

695...एक ख़ुराफाती प्रश्न

 सांध्य मुखरित के रविवारीय अंक में
स्नेहिल अभिवादन।

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मैं जंगल भ्रमण के लिए
उत्सुक रहती हूँ
किंतु जालीदार गाड़ियों से
जानवरों को कौतूहल से देखकर,
पक्षियों की विचित्र किलकारी,
दैत्याकार वृक्षों की 
बनावट से अचंभित
जंगल की रहस्यमयी गंध
स्मृतियों में
भरकर ले तो आती हूँ
और सोचती हूँ
जंगल के कोने में 
उगी घास की भाँति
दुनिया की भीड़ में
तिनके सा जीना
 क्या यही है जन्म का 
उद्देश्य ?

-श्वेता सिन्हा
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-

प्रश्न


वह सरल, विरल, काली रेखा

चींटी है प्राणी सामाजिक,

वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।"

कविता याद करते समय

 एक खुराफाती प्रश्न

मन में अक्सर  उभरता था

मगर…,


पता ही नहीं चला


इसी उधेड़ बुन के चलने में, कुछ उलझने सुलझाने में 
कब बच्चे से बड़े हो गए 
पता ही नहीं चला...
कुछ दोस्त पुराने, नए जमाने संग ताल बैठाने 
कभी ताल मिलाने कब अटके, कब निकल गए



लेती ज्यूँ आकार प्रिये

मन तुरंग सा दौड़ रहा है
जग के कोने-कोने में
देख दशा अति अकुलाता है
कविता लगता बोने में
चाक चले जब गीली मिट्टी
लेती ज्यूँ आकार प्रिये
स्वर्ण तपे कुंदन बन दमके
रमणी ज्यूँ श्रृंगार किये।



जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं

आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं


मेघदूत’ खंड-काव्य दो भागों में बंटा है – १. पूर्वमेघ, २. उत्तरमेघ । वर्मा ने पूर्वमेघ पर उन्नीस चित्र बनाए हैं जो कि रामगिरी से अलकापुरी के पथ का वर्णन करते हैं । उत्तरमेघ पर उन्होंने पंदरह चित्र बनाए हैं जो कि यक्ष की विरह-विदग्धा प्रेयसी श्यामा की अवस्था तथा यक्ष द्वारा उसे भेजे जा रहे प्रेम-संदेश का वर्णन करते हैं । वर्मा के कतिपय चित्र स्त्री के सौंदर्य तथा स्त्री-पुरुष के प्रेम को तो दर्शाते हैं किन्तु उनमें अश्लीलता लेशमात्र भी नहीं है । सौंदर्य-बोध एवं अश्लीलता के मध्य की क्षीण सीमा-रेखा को वर्मा की तूलिका भली-भांति पहचानती है । वर्मा की चितपरिचित पारंपरिक राजस्थानी शैली में बनाए गए इन चित्रों में रंग संयोजन भी उत्कृष्ट एवं सुरुचिपूर्ण है । इन चित्रों में रचा-बसा सौंदर्य कला-प्रेमी के नेत्रों को भी ठण्डक पहुंचाता है एवं उसके हृदय को भी ।

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आज के लिए इतना ही
कल परिस्थितिनुरूप।



Saturday, April 17, 2021

694....आशा का दामन छोड़ो न

सांध्य दैनिक के 
शनिवारीय अंक में आप सभी का
स्नेहिल अभिवादन।
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 सब्र
अन्धियारा, छा जाने तक,
चल, बुझता इक दीप, जला लें हम,
यूँ ही, घबराने की बातें, 
अब और करो ना!

यूँ ही, आशा का दामन छोड़ो ना!
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टेलीविजन आँसुओं,सिसकियों का सागर दिखाता है।
आशाओं का महल खण्डहर सा बिखरने लगता है।।
शाम आती चली जाती मिलने को हर दिल तरसता है।
कहां वो दोस्ते कहाँ वो महफ़िल अब सपना सा लगता है।।

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चलो, मैंने फ़ैसला कर लिया है,
फूल भी गिरा दूंगा एक-एक करके,
बिल्कुल ठूँठ बन जाऊंगा,
तब तुम देखना मेरी ओर,
हैरानी,दया या हिक़ारत से,
पर मेरी अनदेखी मत करना. 
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जिंदगी हराने का नाम नहीं है
जिंदगी लड़ने का नाम है
चाहे  कुछ भी हो जाये
तुम खुश रहोगे
तुम्हारी पहचान तुम्हारा हसमुख स्वाभाव है
तुम नहीं तो कुछ नही नहीं है
सारी  खुशिया तुमसे ही है

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मन ने मीत बना कर तुमको पाया कुछ भी सार नहीं है
तड़फाते हो, तरसाते हो, फिर भी तुमसे रार नहीं है
  जिसने तुमको मीत कहा है
    उससे कुछ तो प्रीत निभाओ
       तन को तो मैं....



Friday, April 16, 2021

693...उम्मीद

सांध्य मुखरित मौन.के
आज के अंक में आपसभी का
स्नेहिल अभिवादन
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उम्मीद से बढ़कर कोई दवा नहीं
निराश मन के लिए इसलिए-

इन सारी हुज्ज़तों से परे
एक शांत जहां अपना भी होगा
अभी तो ये दुनिया बेगानी सी लगती है
पर उम्मीद है, एक दिन इस धरती के साथ
ये अंतहीन आसमां भी अपना होगा .......
बात– बात पर लोग न जाने क्यों रूठने लगते हैं
छोटी छोटी मुसीबतों से हारकर टूटने लगते हैं
क्या खुदा पर से अब विश्वास हट गया है ?
या फिर हम खुद को पहचानना भूल गये हैं .
दिल रोता है तो क्या हुआ ??
सिने में छिपे दर्द के समंदर को छिपा तो लेता हूँ
लब्ज़ अब साथ नही देते हमारा, तो क्या हुआ ?
तो क्या हुआ ? ,कि हमारे नैन अब मुस्कुराना भूल गये हैं
उम्मीद है फिर भी वो दिन ज़रूर आएगा
जब खुशियों की बरसात होगी
आंसू तो अब भी निकलते है, तब भी निकलेंगें
बकायदा फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब आते है तो
सिने में बोझ डाल जाते हैं, जीने की उम्मीद तोड़ जाते हैं
पर तब आयेंगें तो , जीने की वजहें छोड़ जायेंगें ........
कभी कभार सोंचता हूँ कि
आखिर इतनी अबूझ सी पहेली क्यों है ये ज़िन्दगी
जीना चाहता हूँ तो, रुख मोड़ लेती है
मरना चाहता हूँ तो, सौ तरह की चिंताएं जोड़ जाती है
बहुत अजीब सी एहसास देती है, ज़िन्दगी
कभी इस बुद्धू मन को उम्मीदों से भर देती है
तो कभी ह्रदय को छलनी छलनी कर देती है ....
अब तक तो इसको समझ पाने में नाकाम ही रहा हूँ
बहुत कोशिश की ज़िन्दगी के फितरतों से पार पाने की
पर लगता है किसी अनजान रास्ते में बढ़े जा रहा हूँ
बहरहाल उम्मीदों का सिलसिला चलता रहेगा
मंजिल मिले न मिले ,हौसला मिलता रहेगा .....

आदित्य शर्मा, दुमका

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पता नहीं कब तक यशोदा दी की ज़िम्मेदारी निभा पायेंगे।

Thursday, April 15, 2021

692...प्रार्थना

यशोदा दी अस्वस्थ हैं,
करीब 2017 से जानते हैं उन्हें हम
आज पहली बार हुआ है कि
उन्होंंने कोई मैसेज न किया कि "आज की मुखरित मौन
आप बना लीजियेगा"।
अपने काम के प्रति अत्यंत सजग हैं,
बिना किसी बहाने के वो निरंतर अपना काम करती रहती हैं इसलिए
मैं चिंतित थी उन्होंने मैसेज का जवाब भी न दिया तो
दिग्विजय सर को फोन लगाई 
सर की बुझी और परेशान आवाज़ सुनकर
मन उदास हो गया है।

आइये हमसब मिलकर
प्रार्थना करें  कि वो जल्दी स्वस्थ हो जायें।
और कुछ न सूझ रहा फिलहाल।

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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः

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(१)
प्रार्थना में शक्ति है ऐसी कि वह निष्फल नहीं जाती।
जो अगोचर कर चलाते हैं जगत को,
उन करों को प्रार्थना नीरव चलाती है।

(२)
प्रार्थना से जो उठा है पूत होकर
प्रार्थना का फल उसे तो मिल गया।

(३)
अर्थ नीचे ही यदि रह गया,
शब्द क्या उड़ते जाते हैं?
अर्थ के बिना शब्द हे मित्र!
स्वर्ग तक पहुँच न पाते हैं।


बह
"अनुभूति" के लिए
"शब्द" गर बने होते
सुगंध फूलों से नहीं
काँटों से जने होते

समाज में
उम्र की 
हरेक सीढ़ी 
का
कद 
निर्धारित है।


पीपल के विशाल तने के
पीछे सूरज के मुँह छुपाते ही
अक्सर क्षितिज के
पश्चिम में
साँझ का पहला तारा जो
थोड़ी
तुम्हारा एहसास 
और भी गहरा हो जाता है।


-रामधारी सिंह दिनकर


Wednesday, April 14, 2021

691 देवी गीत ...जिज्ञासा सिंह

मेरे मैया की ऊँची अंटारी,मैं तो धीरे धीरे चढ़कर आई

सास ससुर को साथ में लाई,अपने माता पिता भी लाई
मैं तो....

अपनी मैया के लिए चुनरी भी लाई,चुनरी मैं लाई
मैं तो भोजन भी लाई,मैं तो दीप जलाने आई,
मैं तो धीरे धीरे....

भरी रहें मेरे देश की नदियाँ, देश की नदियाँ,
औ ताल तलरियाँ  
मैं तो बरसात मांगन आई, मैं तो धीरे धीरे ....

फूलों फलों से लदीं हों बगियाँ,
 बागों में उड़ती हों, तितली औ चिड़ियाँ  
मैं तो हरियाली मांगन आई,मैं तो धीरे धीरे ....

देश की मेरे भरी हों भंडारे, चलते हो लंगर
और खाएं कतारें,
 मैं तो अन धन मांगन आई मैं तो धीरे धोरे.......

मेरे देश का आँगन भरा हो, सद्भाव शिक्षा का दीप जला हो
मैं तो घर बार मांगन आई, मैं तो धीरे धीरे...

मेरे मैया की ऊँची अटारी, मैं तो धीरे धीरे चढ़ कर आई ।।

Tuesday, April 13, 2021

690 ..माँ, कुछ तुमसे कह न पाया! ....विश्वमोहन कुमार

अहर्निश आहुति बनकर,
जीवन की ज्वाला-सी जलकर,
खुद ही हव्य सामग्री बनकर,
स्वयं ही ऋचा स्वयं ही होता,
साम याज की तू उद्गाता।

यज्ञ धूम्र बन तुम छाई हो,
जल थल नभ की परछाई हो,
सुरभि बन साँसों में आई,
नयनों में निशि-दिन उतराई,
मेरी चिन्मय चेतना माई।

मंत्र मेरी माँ, महामृत्युंजय,
तेरे आशीर्वचन वे अक्षय,
पल पल लेती मेरी बलैया,
सहमे शनि, साढ़ेसाती-अढैया,
मैं ठुमकु माँ तेरी ठइयाँ।

नभ नक्षत्रो से उतारकर,
अपलक नयनों से निहारकर,
अंकालिंगन में कोमल तन,
कभी न भरता माँ तेरा मन,
किये निछावर तूने कण कण।

गूंजे कान में झूमर लोरी,
मुँह तोपती चूनर तोरी,
करूँ जतन जो चोरी चोरी,
फिर मैया तेरी बलजोरी,
बांध लें तेरे नेह की डोरी।

तू जाती थी, मैं रोता था,
जैसे शून्य में सब खोता था,
अब तू हव्य और मैं होता था,
बीज वेदना का बोता था,
मन को आँसू से धोता था।

सिसकी में सब कुछ कहता था,
तेरी ममता में बहता था,
मेरी बातें तुम सुनती थी,
लपट चिता की तुम बुनती थी,
और नियति मुझको गुनती थी।

हुई न बातें अबतक पूरी,
हे मेरे जीवन की धुरी,
रह रह कर बातें फूटती हैं,
फिर मथकर मन में घुटती है,
फिर भी आस नहीं टूटती है।

कहने की अब मेरी बारी,
मिलने की भी है तैयारी,
लुप्त हुई हो नहीं विलुप्त!
खुद को ये समझा न पाया,
माँ, कुछ तुमसे कह न पाया!
....
आज बस
कल शायद फिर ऐसा ही
सादर

Monday, April 12, 2021

689 ..दिलों की आलमारी में हिफ़ाजत से इसे रखना

सादर अभिवादन
आज भूल ही गए थे

आज की रचनाएँ देखिए


इश्क़ में अब तकलीफ़
क्यों हो रही है?
तुम्हारी तो जान बसती थी
उस दीवाने में?


दिलों की आलमारी में हिफ़ाजत से इसे रखना
इसी घर में मैं सब यादें पुरानी छोड़ जाऊँगा

मैं मिलकर ॐ में इस सृष्टि की रचना करूँगा फिर
ये धरती ,चाँद ,सूरज आसमानी छोड़ जाऊँगा


नदी ढूंढ लेती है अपना मार्ग
सुदूर पर्वतों से निकल
हजारों किलोमीटर की यात्रा कर
बिना किसी नक्शे की सहायता के
और पहुँच जाती है
एक दिन सागर तक
....
आज बस
कल भले ही तीस ले लीजिएगा
सादर


Sunday, April 11, 2021

688 ...छोड़ अहम को लक्ष्य रखें ये,सकल जगत उद्धार की

सादर वन्दे..
कह दिया सो कह दिया
कि आज मैं आऊँगी सो आऊँगी
अभी कुछ दिन पहले संगीता दीदी ने
प्रतिक्रिया में लिक्खा था
कुछ रचनाकार टिप्पणी का डब्बा ही नहीं रखते
वे टिप्पणियों को भूखे नही होते
वे सिर्फ और सिर्फ अपने आप को शान्त रखनें के लिए लिखते हैं
अब रचनाएँ देखें ...

मैदानों में दौड़ लगाते,
खेलते-कूदते,पढ़ते-लिखते
अपना मुकद्दर गढते बच्चे ।
हँसती-खिलखिलाती,
सायकिल की घंटी बजाती
स्कूल जाती बच्चियाँ ।

मिट्टी के कुल्हड़ में धुआँती
चाय की आरामदेह चुस्कियां ।
थाली में परोसी चैन देती
भाप छोड़ती पेट भर खिचड़ी ।


श्रेष्ठ जनम मानव का मिलता,बुद्धि सदा सत्मार्ग हो।
पांच इंद्रियों को जो साधे, नींव पड़े व्यवहार की।।

ज्ञानी जन अभिमान करें जब,बढ़ा रहें संताप वो
छोड़ अहम को लक्ष्य रखें ये,सकल जगत उद्धार की।


पर्वतारोही नहीं पहुँच पाते हैं उस
अलौकिक बिंदु पर, फिर भी
जीवन यात्रा नहीं रूकती,
नदी, अरण्य, प्रस्तर -
खंड, झूलते हुए
सेतु बंध,
सभी


मधु रसा वो कोकिला भी
गीत मधुरिम गा रही।
वात ने झुक कान कलि के
जो सुनी बातें कही।
स्वर्ण सा सूरज जगा है
धार आभूषण खरे।।
...
आज बस इतना ही
दो बज रहे हैं
बस
सादर


Saturday, April 10, 2021

687.... वो पल ही चुन लूँ

सांध्य दैनिक के
शनिवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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बढ़ने लगी आसमां की तन्हाईयाँ
फिजांं में खामोशियों का रंग चढ़ा
बेआवाज़ लौटने लगे परिंदें भी 
थके सूरज की किरणें कहने लगी
अब शाम होने को है।
-श्वेता

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आइये रचनाएँ पढ़ते हैं-

विभा दी की लघुकथाएं
दैनिक जीवन के झकझोरते अनुभव होते हैं-

 पश्चाताप

"मेरे हठ का फल निकला कि हमारी बेटी हमें छोड़ गयी और बेटा को हम मरघट में छोड़ कर आ रहे ड्रग्स की वजह से..। संयुक्त परिवार के चौके से आजादी लेकर किट्टी पार्टी और कुत्तों को पालने का शौक पूरा करना था।"

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पुरूषोत्तम सर की रचनाएँ
भावनाओं का खूबसूरत ताना-बाना
बुनकर पाठकों के अंतस में उतर जाती हैं-

उभर आओ न


झंकृत, हो जाएं कोई पल,
तो इक गीत सुन लूँ, वो पल ही चुन लूँ,
मैं, अनुरागी, इक वीतरागी,
बिखरुं, मैं कब तक!

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शंकुतला जी की रचनाएँ
मानव मन की महीन भाषा का अनुवाद
बखूबी करती हैं-

मेरा कमरा जानता है 

मेरा कमरा जानता है.....
कि मैंने न जाने कितनी सारी 
यादों को संजो के रखा है
न जाने कितनी बातें सांझा की है
मेरा कमरा जानता है..…
मेरे बचपन की कितनी खट्टी मीठी बातें

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जेन्नी शबनम जी की लेखनी के सम्मान में
शब्द नहीं सूझ रहे,इनकी लिखी परिपक्व रचनाएँ पाठकों को सहज आकर्षित 
करती हैं-

ज़िंदगी भी ढलती है

पीड़ा धीरे-धीरे पिघल, आँसुओं में ढलती है   

वक़्त की पाबन्दी है, ज़िन्दगी भी ढलती है।   

अजब व्यथा है, सुबह और शाम मुझमें नहीं   
बस एक रात ही तो है, जो मुझमें जगती है।   
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ज्योति जी की प्रतिभा संपन्न लेखनी
से कम शब्दों में संपूर्ण मनोभाव
उकेरने की कला हायकु पढ़िए-

सारा आकाश

रहे अछूता
विकट विकारों से
भाव-भवन ।

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आज के लिए इतना ही

-श्वेता


Friday, April 9, 2021

686 ..कहीं कोई हलचल नहीं है और न ही कोई विचलन है

सादर अभिवादन
आज रचनाएँ कम है पर
आनन्दित करने वाली है
..........
 गहरे में कहीं इतना नीरव सन्नाटा है कि आती-जाती हुई साँसें विराम बिंदु पर टकराते हुए शोर कर रही है । हृदय का अनियंत्रित स्पंदन चौंका रहा है । शिराओं में रक्त-प्रवाह सर्प सदृश है । आँखें देख रही है पर पुतलियां बिंब विहीन हैं । स्पर्श संवेदनशून्य है । गंध अपने ही गुण से विमुख है । कहीं कोई हलचल नहीं है और न ही कोई विचलन है ।


किसलय की आहट है
रँग की फगुनाहट है
प्रकृति की रचना का
हो रहा अब स्वागत है

मन मयूर थिरक उठा
आम भी बौराया है
चिड़ियों ने चहक चहक
राग कोई गाया है


वह अपने तीनों पैरों से दौडने, कूदने, सायकिल चलाने, स्केटिंग करने के साथ-साथ बाल पर बेहतरीन ‘किक’ लगाने में पारांगत हो गया था। ऐसे ही उसके एक शो को देख एक नामी फुटबाल क्लब से उसे खेलने की पेशकश की गयी। फ्रैंक ने मौके को हाथ से नहीं जाने दिया। देखते-देखते वह सबसे लोकप्रिय खिलाडी बन गया। खेल के दौरान जब वह अपने दोनों पैरों को स्थिर कर तीसरे पैर से किक लगा, बाल को खिलाडियों के सर के उपर से दूर पहुंचा देता तो दर्शक विस्मित हो खुशी से तालियां और सीटियां बजाने लगते।  उसे अपने तीसरे पैर से किसी भी तरह की अड़चन नहीं थी। सिर्फ कपडे सिलवाते समय विशेष नाप की जरूरत पडती थी और रही जूतों की बात तो उसने उसका भी बेहतरीन उपाय खोज लिया था , वह दो जोडी जुते खरीदता और चौथे फालतू जूते को किसी ऐसे इंसान को भेंट कर देता जिसका एक ही पैर हो................!!


आग लगी, भगदड़ मची, शोर हुआ
सब एक-दूसरे को धक्का दे भागने लगे आयें-बांयें
सारे उस धधकती आग के डर से चीखने-पुकारने लगे
कुछ तो आनन-फानन में खिड़की से ही कूदने लगे
तो कुछ उस जानलेवा आग की लपटों में झुलसने लगे
...
बस
सादर


Thursday, April 8, 2021

685 ..दिल में हूक उठे, तब, कोई कविता लिखे,

 सादर अभिवादन

इश्क के बाज़ार में बिक गए,
वफ़ा की दुकान में टिक गए।

वो निकला दुश्मन हमारा,
उनसे दोस्ती कर मिट गए।

जवानी पे अपनी गुरुर था बड़ा,
आया बुढ़ापा तो झुक गए।

उपरोक्त पंक्तियां किसने लिखी है
आपसे ही पूछ रही हूँ...

अब रचनाएँ......

शब्द-शब्द, हों कंपित,
हों, मुक्त-आकाश, रक्त-रंजित,
वो मन के, खंड-खंड, भू-खंड लिखे,
ढ़हती सी, हिमखंड लिखे,
रक्त बहे, शब्द हँसे!
इसको खता कहें के कहें इक नई अदा,
हुस्ने-बहार रोज़ लुटाएँ … मुझे न दें.
 
सुख चैन से कटें जो कटें जिंदगी के दिन,
लम्बी हो ज़िन्दगी ये दुआएँ … मुझे न दें.


तुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि
उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है
और प्रेम का अनुरोध निहित है....।

यह सारी कायनात
उस दिन चलेगी
हमारे इशारे पर भी
जब हमारी रजा
उस मालिक की रजा से एक हो जाएगी


ये ख़ुशियों का खेल, भावनाओं का अदल -
बदल, जो बंद है उनकी सोच में कहीं,
वो अक्सर चाहते हैं अन्तःस्थल
से बाहर छलकना, अंदर का
रिले रेस, हर हाल में
चाहता है, तुम
तक
पहुंचना।
.....
आज बस
सादर

Wednesday, April 7, 2021

684 ..“पापा अब आपसे मैं जो दहेज में मांगू वो दोगे ?"

नाजुक वक्त है
ना रखना किसी से बैर
हो सके तो हाथ जोड़कर
ईश्वर से मांगना
हर किसी की खैर..

सादर अभिवादन..
कोरना काल का द्वितीय चरण..
बेवकूफ और मंदबुद्धि लोग ही
इस दूसरे चरण के प्रसार के साधन हैं

आज की रचनाएं...

तो शुरुआत अतीत की एक झलक से

दाँव पर प्राणों को रख कर ।
फेंकता रहता हूँ पासा ।
दूसरा पानी क्यों पीऊँ ।
स्वाति जल का मैं हूँ प्यासा ।


दाने चुगाओ कबूतरों को, या चीटियों
को कराओ मधु पान, अतीत के
पृष्ठ नहीं बदलते, वो सभी
बंद हैं दराज़ में, मुद्दतों
से बाक़ायदा, जो
कुछ लिखा
जा चुका
है उसे


समझ पाते नेक इंसानों को तो खोजते नहीं मूक मूर्तियों में मसीहा,
मानो 'पैलेडियम' को जाने बिन,बेशकीमती लगा हमें सदा ही हीरा।

हर दिन वेश्याओं की बस्ती में बच्चों को पढ़ाने जाना भूलता नहीं,
समझते रहें लाख उसे शहर वाले भले ही आदमी निहायत गिरा।


कबूतर आपस में बतिया रहे थे "अरे आज तो खूब दाना मिल गया, तूने सच ही कहा था मेरे भाई ! कि ये मनुष्य बड़े तमाशबीन होते हैं थोड़ा लड़ने का नाटक क्या किया कि इतना सारा दाना मिल गया" !....                        
"तो सही है न...... 'तमाशा देखो दाना फेंको'          
समवेत स्वर में कहकर
सारे कबूतर खिलखिला कर हँसे और फड़फड़ाकर उड़ गये।


 “पापा अब आपसे मैं जो दहेज में मांगू वो दोगे ?"
 अशोक भाई भारी आवाज में -"हाँ बेटा", इतना ही बोल सके.
 "तो पापा मुझे वचन दो
 आज के बाद सिगरेट के हाथ नही लगाओगे....
 तबांकू, पान-मसाले का व्यसन आज से छोड दोगे.

आज बस
सादर


Tuesday, April 6, 2021

683 ..जो दुःख में किसी से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रो ले

सादर नमस्कार
पहले तो उसने
खूब रुलाया मुझे
बाद में कहा
अब मुस्कुराओ
मैं खुलकर हंसा
क्यों कि सवाल
हँसी का नहीं
उसकी खुशी का था !

अब रचनाएँ...

और सुनो न ऐ मेरी उदासी !
जबसे मैंने बदली है अपनी ऐनक
दूसरों की पीड़ा और उदासी ने भी
मेरे दिल को घेरा है और मैंने
उस ऊपरवाले को याद किया
अपनी छटपटाहट को भूल गयी
उदासी को बेघर करने की अहद उठाई
कहीं आम्र पल्लव में कोयल है कूकी !


कोई पार्टी नहीं हम किसी पार्टी के नहीं
अब तक जिसने सब ख्याल रखा हमारा
बिजली पानी और सड़क घर तक लाया
साफ़ सुथरे अस्पताल तो दवाइयाँ मुफ्त
हर मांग पूरी करने वाले को ही वोट देंगे


यह भय का दौर है
आदमी डर रहा है आदमी से
गले मिलना तो दूर की बात है
डर लगता है अब तो हाथ मिलाने से
घर जाना तो छूट ही गया था
पहले भी अ..तिथि बन  
अब तो बाहर मिलने से भी कतराता है


मर्दो पर हर बात को सहते हुए ज़िंदगी की लड़ाई को 
जीतने का प्रेशर होता है! 
प्लीज़ यूं ख़ुद को किसी भी प्रेशर में मत डालिए। 
मर्द से पहले इंसान बनिए। ऐसा इंसान 
जो दुःख में किसी से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रो ले...
जो दर्द से कराह उठे...जो खुल कर हंसे...
जो ज़िंदगी को जिएं...


किस से कहें अपनी व्यथा,
खड़े हैं सामने कुछ
प्रणम्य चेहरे और
कुछ पुरातन पत्थर के स्तम्भ,
सिंहासन पर हैं
पसरे हुए बिसात और पासा,
...
बस
दिग्विजय