Wednesday, March 31, 2021

677 ..हो गई होली मार्च भी आज जा रहा है

सादर नमस्कार
हो गई होली
मार्च भी आज जा रहा है
इक्कीस का चौथाई
आज गुज़र जाएगा
दुनिया के लोग अब भी
न चेते तो, न चेतने वाले भी
गुज़र जाएंगे साथ
अपने यारों को भी ले जाएंगे
अब पिटारें में देखें आज क्या है ...

कभी मेरे लिए
तेरी आँख से
एक कतरा निकले
भीग जाऊँ मैं


घर में भरा सब सरंजाम
भूल गए हम तो व्यायाम

स्विगी जोमैटो खूब मंगाया
दावत में भी माल उड़ाया

चेहरे की तो बढ़ी लुनाई
कटि सम हो गयी कलाई


कुछ भावनाएं हैं कोषस्थ कीट, झूलते
रहते हैं जीर्ण पल्लव के तीर, वो
रेशमी तंतुओं को चीर, एक
दिन उड़ जाएंगे बहुत
दूर, किसी ऐसे
जगह जहाँ
रहती है
अंतहीन नमी, जीवन खोजता है शाखा


शर्बत उत्तम बेल का,ठंडी है तासीर।
औषधि है सौ मर्ज की,हरे मनुज की पीर।।

वृक्ष तुल्य संबल मिला,सदा सजन के साथ।
लता बनी लिपटी रहूँ,ले हाथों में हाथ।।


फैसला तक़दीरों का क्या ये लकीरें करेंगी
ग़र है जज़्बा जीत का मुकाबलों से डरेंगी
भले दूर हो मंज़िल कदम मगर ना रोकना
पूरा करना मकसद बस सफ़र का सोचना
....
आज बस
ध्यान रखें...
कल एक एप्रिल है..
सादर

 

Tuesday, March 30, 2021

676 ..पड़ ना सका जिसका रंग फ़ीका , कहो !कैसा था वो अबीर सखा !

कल ही हुई है होली
होने को तो कल हो गई
पर नहीं न हुई है खतम होली
हथेलियों का रंग..
कानों को पीछे का रंग
फलाने और ढिकाने जगह का रंग
इत्ती जल्दी कहां पीछा छोड़ता है
चलिए चलें शायद कुछ सामान्य रचनाएं मिल जाए..
...
मैं भी कुछ पंक्तियां प्रस्तुत कर रही हूँ
ब्लॉग रीडिंग लिस्ट में मिली पर ब्लॉग में नही मिली
अप्रकाशित है अब तक सखी रेणु की रचना है ये
पड़ ना सका जिसका रंग फ़ीका ,
कहो !कैसा था वो अबीर सखा !

प्राण -रज कर गया चटकीली
बोकर प्रेम की पीर सखा !

उस फागुन की हँसी ठिठौली में
मंद- मंद प्यार की बोली में ,
खोये नयन , ना नैन लगे ,
प्रीत की आँख मिचौली में ,
क्या जादू बिखराया बोलो !
कैसी पग बाँधी जंजीर सखा !

मिले जबसे लगन लगी ऐसी
तुम पर ही टिकी मन की आँखें,
बस तुम ही तुम ,कोई और कहाँ?
जो आकर के भीतर झांके
गाये तेरे प्यार का फगुवा ,
मनुवा हुआ कबीर सखा !...
इसके आगे सखी रेणु पढ़वाएंगी

कुछ अनकही, पुरवैय्यों संग बही,
लेकिन, अलसाई थी पुरवाई,
शायद, पुरवैय्यों को, कुछ उनसे कहना था!
उनको ही, संग बहना था,
मैं, इक मूक-दर्शक,
वहीं रहा खड़ा,
उम्मीदें, उन पुरवैय्यों पर कर आया,
जिसने, खुद ही भरमाया!


बाढ़ आई अश्रुओं की,
लालसा के शव बहे।
काल क्रंदन कर रहा है,
स्वप्न अंतस के ढहे ।।
है कहाँ सम्बंध व‍ह जो,
प्रेम रस से हो पगा ।


शताब्दियों से चल रहे हैं
लोग उत्क्रांति की ओर,
आफ्रिका के गोचर भूमि से निकल कर,
शुष्क महा -द्वीप से हो कर पृथ्वी के
अंतिम बिंदु तक,
फिर भी अपने अंदर के
आईने में हम पाते हैं


लक्ष्मण झूला ! ऋषिकेश में गंगा नदी पर बना हुआ यह एक पुल है, जिसे खंभों पर नहीं बल्कि लोहे के मोटे तारों के सहारे बनाया गया है। पहले यह लोगों के और हवा के चलने से झूले की तरह डोलता था इसीलिए इसे झूला नाम दिया गया था। पर अब इसकी उम्र और लोगों के बढ़ते आवागमन को देखते हुए इसे फिक्स कर दिया गया है, अब यह सिर्फ पैदल पथ के रूप में ही प्रयोग किया जाता है। यह गंगा नदी के पश्चिमी किनारे के तपोवन और पूर्वी किनारे पर बसे गांव जोंक को आपस में जोड़ता है।

काश सूरज तेरे घर के
काँच के जार में
बंद रहता
बनी रहती धूप सुनहरी
तेरे आँगन की
और अदरक वाली चाय
मेरे घर की
.....
आखिर मिल ही गई
होली से इतर कुछ रचनाएँ
प्रतीक्षा है भैय्या की
आज दूज है न
सादर..


Monday, March 29, 2021

675,,,, कुछ होलियाना फिल्मी गीत

सादर अभिवादन..
आज मन नहीं
फिर भी कुछ तो सुनना पड़ेगा 

जा रे हट नटखट
न खोल मेरा घूँघट



होली खेले रघुवीरा




रंग बरसे भीगे चुनरवाली


अब बस
कल की कल
सादर

Sunday, March 28, 2021

674..आज होलिका दहन..कल हुड़दंग है...

बरसों पहले
मैं इस उत्सव की दीवानी थी
पर अब नफरत सी हो गई है
सड़कों पर सूवर और कुत्ते घूमते हैं

सादर वन्दे....
आज होलिका दहन है
कल हुड़दंग है...

पूर्णिमा की फागुनी को
है प्रतीक्षा बालियों की
जब फसल रूठी खड़ी है
आस कैसे थालियों की
होलिका बैठी उदासी
ढूँढती वो गीत अनुपम।।

यादें बचपन की...
बचपन की मधुर स्मृतियों में
एक बहुमूल्य स्मृति है
अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की
होली के हुड़दंग की।
जहाँ पूरा गाँव सिर्फ
चौहान राजपूतों का ही
होने के कारण सभी
परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे
इसी कारण एकता और
सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।


ठंडी सी आईसक्रीम गर्म रिश्तों में।
कुछ फिरकी भी लीजिए
बच्चों की
बच्चों से पूछिये अटपटे से सवाल।
कुछ बुजुर्गो को गले लगाईये
अक्सर चीखने वालों को देख
मुस्कुराईये


न तराश सब को अपने मूल्यों के छेनियों
से, कुछ पत्थर हैं, जो समय को भी
रोक लेते हैं अपनी जगह किसी
चुम्बक की तरह, रहने दे
मुझे यूँ ही उपेक्षित
माटी में सना,
किसी एक
दिन


आया अब मधुमास है, बीत गया है शीत ।
होली मनभावन लगे, चंग बजाए मीत ।
चंग बजाए मीत, गीत मोहक से गाना ।
घर लौटे हैं कंत,  सजा है सुंदर बाना ।
जगा कुसुम अनुराग, प्रीत का उत्सव लाया ।
नाचो गाओ आज, रंग ले मौसम आया ।।

उड़े जो रंग कहीं, तू ही तू, नजर आए,
हजार ख्वाब कहीं, बन के यूँ, उभर आए!
.....
आज बस
कल का भरोसा क्या
सादर

 

Saturday, March 27, 2021

673.....झर-झर झरते...

सांध्य दैनिक के शनिवारीय
अंक में आपसभी का स्नेहिल अभिवादन

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पहन रंगीली चुनर रसीली
वन पलाश के इतराये,
झर-झर झरते रंग ऋतु के
फगुनाहट मति भरमाये,
खुशबू गाये गीत गुलाबी
भाव विभोर ऋतु पीर-सा।
फूटे हरसिंगार बदन पे,
चुटकी केसर क्षीर-सा।
#श्वेता

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आइये आज की रचनाओं का आनंद लें
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बुजुर्ग वो छाँव होते हैं जो जीवन के असंख्य ऋतुओं की मनमानी सहकर भी अपनी बाहों में पल रहे जीवों को
स्नेह और सुरक्षा प्रदान करते हैं। 
उम्र के ढलान पर जब तन शिथिल और मन भावुक होता तब उन्हें अकेलेपन से उबारने के लिए
उन ज़रा सा स्नेह भरा गुलाल लगा दें वो भी खुशियों के रंग से भर उठेंगे पढ़िए  एक गहन अभिव्यक्ति-

वृद्धाश्रम में होली

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हास्य व्यंग्य की अनूठी विधा में होलियाना हुडदंग 
मचाती एक तीखी रचना-

जोगीरा 


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फागुन और शृंगार का 
मिलन मौसम में अजब खुमारी 
घोल देता है,हृदय की विकलता, सरस
 अनुभूति से सरोबार एक 
अद्भुत अभिव्यक्ति


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हमारे देश के 
सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण 
दर्शनीय स्थलों का गुणगान सिर्फ़ शब्दों से करते रहे ये भूल गये कि समय-समय पर इनका रख-रखाव,जीर्णोद्धार
जरूरी है।
अपनी बेशकीमती धरोहरों के प्रति  जागरूकता का संदेश देता , अगाह करता सराहनीय लेख,जिसपर गंभीरतापूर्वक सभी को अवश्य ध्यान देना चाहिए। 

बदहाल ऋषिकेश


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अपनी अनूठी शैली और धारदार अंदाज़ में
लिखी गयी रचना,जिसमें निहित संदेश समाज,देश 
धर्म, जाति के संवेदनशील विषय अपने तर्क से

गहरा असर छोड़ रहे-

सुलग रही है विधवा


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आज बस इतना ही

कल मिलिए यशोदा दी से।






Friday, March 26, 2021

672 ..फैसला हर गुनाह का ,सब खुद ही किये बैठे हैं

सादर अभिवादन
उत्सव को तीन दिन शेष
कोई घणा हंगामा होने वाला नहीं न है

सीधी सादी घरेलू होली होगी


......
जो कह दिया वे शब्द थे
जो नहीं कहा वह अनुभूति थी
जो कहना है ..मगर
नहीं कह सकते..वो
मर्यादा ही है
सादर
.....
अब रचनाएँ....

बरगला रहे एक दूजे को ,खुद ही के झूठ से
सब अपना अपना एक मंच लिए बैठे हैं  ।

फितरत है बोलना ,तोले बिना कुछ भी
बिन पलड़े की अपनी तराज़ू लिए बैठे हैं


काश लफ्ज़ ख़ाली सुराही होते
काश मायने ठंडा पानी
काश मुझे कविता लिखना आता
काश तुम समझ रहे होते


हाल में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी कि चीन के पास दुनिया की
सबसे बड़ी सैन्य-शक्ति है। रक्षा से जुड़ी वैबसाइट
मिलिट्री डायरेक्ट के एक अध्ययन के चीन के पास
दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य-शक्ति है। इस अध्ययन में
चीनी सैन्य-बल को 82 अंक दिए गए हैं।
उसके बाद दूसरे स्थान पर अमेरिका को रखा गया है,
जिसे इस स्टडी में 74 अंक दिए गए हैं।
69 अंक के साथ रूस तीसरे और
61 अंक के साथ भारत चौथे स्थान पर है।

ये रंग हो प्यार का
ये रंग हो बहार का
ये रंग भरे जज्बातों में
ये रंग भरे अहसासों में ,
ये रंग हो सच्चे रिश्तों का


सागर सी गहराई तुम में
हो इतने विशाल
कोई ओर न छोर |
पर मन पर नियंत्रण नहीं
जब भी समुन्दर में
तूफान आता है
हाहाकार मच जाता |


चलते - चलते
तुम हो साथ, रंगों की है बात,
हर ओर, ये गीत-नाद,
मोहक, सिंदूरी सी ये फाग,
कर गई है, विभोर,
अलसाई सी, ये बयार!
....
ये भी भला कोई ज़िन्दगी..
आए तो नहलाए गए
और जाने से पहले
नहलाया गया

....
सादर





Thursday, March 25, 2021

671 ..अंदर ही है सहस्र जीवन, आनंद के अतल में है मृत्यु का वास,

सादर नमस्कार
आज फिर मौन टूट रहा है
हमारा..
चलिए चलें पिटारा खोलें


सफ़ेद-सफ़ेद हथेलियों पर
रंग कसूमल भा गया
कर्तव्य भार अँगुलियों पर
नाख़ूनों पर स्मृति नीर बहा गया।


उस दिन रत्नावली ने कहा था ,'मै हूँ न तुम्हारे साथ.'
'हाँ, तुम मेरे साथ हो.'
पर यहाँ आकर वे हार जाते हैं .अपनी बात कैसे कहें?
नहीं, नहीं कह सकते.
रत्नावली से किसी तरह नहीं कह सकते
मन में बड़े वेग से उमड़ता है - 

ज्ञात है, दुःखों से बचना भी इतना
सहज नहीं, फिर भी अनुतापी
छद्मवेश से निकल कर,
पाप पुण्य के वृत्त
से बच कर,
ख़ुद में
भरो


बोनसाई
हो जाना
सच की नहीं
आदमी के
सख्त मुखौटे
की मोटी सी दरार है।
सच
दरारों में
ही पनपता है
अनचाहे पीपल की तरह...।


देख
सुन कर तो
कभी
किसी दिन
समझ
लिया कर
‘उलूक’

अन्दर की
बात का

बाहर
निकलते
निकलते

हवा हवा में
हवा होकर
हवा हो जाना।
.....
बस चार पंक्तियां
जिनके पास अपने है
वो अपनों से झगड़ते हैं,
नहीं जिनका कोई अपना
वो अपनों को तरसते है..
सादर

Wednesday, March 24, 2021

670 ...कोयलों के गुणगान वाला आसमान दें

आज की शुरुआत
केदारनाथ जी की की रचना से..
फूलों ने
होली
फूलों से खेली
लाल
गुलाबी
पीत-परागी
रंगों की रंगरेली पेली
काम्य कपोली
कुंज किलोली
अंगो की अठखेली ठेली
मत्त्त मतंगी
मोद मृदंगी
प्राकृत कंठ कुलेली रेली
..
अब आगे देखें

आम के बौर पक गए
इमली लगी लटालूम
कोयल का स्वर गा रहा फाग
रसवंती रंगप्रिया के मन में
उमड़ आया अनुराग

सादर वन्दे

अब चलें रचनाओं की ओर ...

समेट कर, सारी व्यग्रता,
भर कर, कोई चुभन,
बह चली थी, शोख चंचल सी, इक पवन,
सिमटता सा सांझ,
डूबता, गगन,
कैसे न होता, एक अजीब सा एहसास,
अधीर सा करता, एक आभाष!


ऋतु आयी लेकर खुशहाली।
चहुँ दिस फैली किंशुक लाली।।

उड़ते रंग हवाओं में जब
झूम उठे फिर डाली डाली।।

तूफानों से क्या घबराना
रैना बीतेगी ये काली ।।


इस ब्लॉग के बारे में
पहली बार आई है


इस ठंडी हवा की छुवन को
मैं तुम संग महसूस करना चाहता हूँ
सिन्दूरी शाम की आहट में
चिड़ियों की चहचहाहट देखनी है
एहसासों की पोटली खोलनी हैं


मैं ही मैं बस सोचता था आज तक,
दूसरे “मैं” से मिला हम हो गई.
 
फूल, खुशबू, धूप, बारिश, तू-ही-तू,
क्या कहूँ तुझको तू मौसम हो गई.


पर पापा अक़्सर ..

होती है ऊहापोह-सी भी हर बार कि
मेरे रगों तक पहुँचने वाली
ये मखमली गरमाहट उन ऊनी पुरानी
जुराबों या दस्ताने के हैं या फिर
है उष्णता संचित उनमें आपके बदन की।


फटी हुई जीन्स की आलोचना न करें बन्धु,
हो सके तो सही वेशभूषा को सम्मान दें।
कुतियों के भौंकने पर कान बन्धु देते क्यों,
कोयलों के गुणगान वाला आसमान दें।
....
आज बस
कल किसने देखा है
सादर


Tuesday, March 23, 2021

669 ..दृष्टि रेखा के समान्तराल, हर चीज़ है वेगवान


सादर अभिवादन
हम देख लिए हैं आज
कोई दिवस-विवश नहीं है
आज सिर्फ और सिर्फ रचनाएँ है

सफलता के लिए
बहुत कुछ
त्यागा जा सकता है
लेकिन सफलता को
किसी के भी लिए
दांव पर
नहीं लगाया जा सकता
क्योंकि
(सफल व्यक्तियों के लिए)
वह सबसे
अधिक मूल्यवान होती है


मेरे बेटों...
जब भी देखा है तुमको किचिन में
बहू या बहन का
हाथ बंटाते ...पलटा चलाते
बर्तन धोते...या बच्चे की नैपी बदलते
मेरा कलेजा फूल सा खिल उठा है
और मस्तक कुछ और ऊँचा हो
आसमान पर टिक गया है !


दृष्टि रेखा के समान्तराल, हर चीज़ है
वेगवान, उद्वेग व उच्छ्वास के
बहुत नीचे बहते हैं कहीं,
अनगिनत ख़ामोश
जलयान, उड़ते
हैं खुले वक्ष
के ऊपर
कुछ


कोरोना
विष पंख
लगाए अभी उड़ानों में,
दो गज दूरी
मंत्र गूँजता
अभी कानों में,
मन के
राम सिया भूले
फुलवारी वाले दिन ।


है जब तक
प्राणों का आकर्षण
भरमाया सा  
मद मोह माया से  
छला जाता हूँ
मन के  मत्सर से
अनियंत्रित हूँ  


खेत चटककर दुखड़ा रोते
सूख गया नदिया का जल।
मौन दिखा अम्बर भी बैठा
कौन निकाले इसका हल।
देख बिलखते खण्डित हांडी
भूख पेट की फिर बहकी।
....
आज बस
सादर

Monday, March 22, 2021

668 ..जल बचाओ वरना जल जाओ


सादर अभिवादन
विश्व जल दिवस
जहां पानी,
वहां समृद्धि
और वहीं पर आएंगी
खुशियां..

हम अक्सर भूल जाते हैं कि
धरती पर पानी का चक्र और
हमारी ज़िन्दगी का चक्र
आपस मे जुड़े हुए हैं

यह निर्विवाद सत्य है कि
सभी जीवित प्राणियों की उत्पत्ति जल में हुई है।
वैज्ञानिक अब पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर
पहले पानी की खोज को प्राथमिकता देते हैं।  
पानी के बिना जीवन जीवित ही नहीं रहेगा।
इसी कारणवश अधिकांश संस्कृतियां
नदी के पानी के किनारे विकसित हुई हैं …
इस प्रकार ‘जल ही जीवन है’ का अर्थ सार्थक है

कुछ रचनाएँ...


जल के बिन कब जी सके, पशु-पक्षी-इन्सान।
इसे बचा लें तो बचे, अपना सकल जहान।।

जल औ मन निर्मल रहे,  तब है उसका मोल।
जैसे कब अच्छे लगे, हमको कड़वे बोल।।

बूँद-बूँद अति कीमती, ज्यों हीरे का दाम।
जल से है सारी चमक, दे सब को पैगाम।।


शीतल जल सा मस्तक ठंडा,आँचल अमृत धार बहे,
काँधे पर जो बोझ उठाया,मिल जुल कर सब भार सहे।

अलग सभी के तौर तरीके,निपुण कार्य सब करती है।
सबकी प्यास बुझाने खातिर,नारी पानी भरती है।


पानी को तरसते हैं
धरती पे काफी लोग यहाँ
पानी ही तो दौलत है
पानी सा धन भला कहां

पानी की है मात्रा सीमित
पीने का पानी और सीमित
इसी में है समृद्धि निहित

शेविंग हो या कार धुलाई
या जब करने हों स्नान
पानी की बचत जरूर करें
पानी से धरती है महान


कहता आज है पानी सीख लो
मेरी दुखद कहानी से
दुखड़ा सारा, कह डाला मैंने
आपबीती ज़ुबानी से
अब रुकता हूं, गला भर आया
नहीं खत्म हुई ये कहानी
मुझे बचा लो-मुझे बचा लो
कहता आज है पानी।


लूट खसोट चूस
और मुस्कुरा
और फिर कह दे
सामने वाले से
कि मैं हूँ पानी

‘उलूक’
तेरे पानी पानी
हो जाने से भी
कुछ नहीं होना है
पानी को रहना है
हमेशा ही पानी ।
....
बस..
सादर