सांध्य अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
सुलगते दिन की तपती पेशानी को
साँझ के नरम अधर चूमकर सहला गये
तारों की कलियाँ फूटने लगी हौले से
बादलों के दुपट्टे हवाओं को बहका गये
मन हिंडोले में धीरे-धीरे पींगे भरते
कुछ ख़्याल ज़िंदगी का मायना बता गये
#श्वेता सिन्हा
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रहा मैं, किनारों पे खड़ा, चुपचाप,
बह चली थी वो धारा,
बेखबर, जाने किसका था, वो ईशारा,
बस बह चले थे, प्रवाह में,
निर्झर से तुम!
तैरते हुए, बेमौसम के सघन मेघ,
धीरे से खोलें बंद दरवाज़े और
दौड़ जाएं, घुटनों भरी
अरण्य नदी की
गोद में, फ़र्श
पर उकेरें
धीरे से खोलें बंद दरवाज़े और
दौड़ जाएं, घुटनों भरी
अरण्य नदी की
गोद में, फ़र्श
पर उकेरें
मैं- देखो अगर मैं तुम्हे गुलाब लिखता तो तुम्हारा सूर्यमुखी वाला चेहरा मुझे पसंद नही आता और अगर तुम्हारी नमकीन बातों का बखान अपनी कविता में करता तो तुम्हारी मिश्री वाली बातें मुझे सुनने में अच्छी नही लगती। यानी कि मैं तुम्हे हर रूप, हर चेहरे, हर बात, हर व्यवहार के साथ अपनाना चाहता था, तुम्हारी किसी विशेष या मेरी मनपसंद बातों के साथ नही और कविता में हमेशा किसी ख़ूबी का बखान किया जाता है। इसीलिए मैंने तुम्हारे साथ होते हुए तुम्हें किसी कविता तक सीमित नही किया।
हाइवे से इतर, उन्नति गाँव में फैलना चाहती है जैसे ही ऊँट-गाड़ी गाँव की तरफ़ रुख़ करतीं है उन्नति उन पर सवार होती है।
कभी ऊँट की थकान बन गिरती है, कभी ऊँट को हाँकने की ख़ुशी बन दौड़ती है तो कभी दोनों का आक्रोश बन आग बबूला होती है। अगर जगह न भी मिले तब वह चिपकती है ऊँट गाड़ी के टायर से मिट्टी की गठान बन।
कभी-कभी थक-हारकर वहीं पेड़ की छाँव में बैठती है। हाइवे को देखती है,देखती है जड़ता में लीन ज़िंदगियों की रफ़्तार।
कभी ऊँट की थकान बन गिरती है, कभी ऊँट को हाँकने की ख़ुशी बन दौड़ती है तो कभी दोनों का आक्रोश बन आग बबूला होती है। अगर जगह न भी मिले तब वह चिपकती है ऊँट गाड़ी के टायर से मिट्टी की गठान बन।
कभी-कभी थक-हारकर वहीं पेड़ की छाँव में बैठती है। हाइवे को देखती है,देखती है जड़ता में लीन ज़िंदगियों की रफ़्तार।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
जीवन जीने के लिये, ले लें यह संकल्प
सच्ची मिहनत का यहाँ, कोई नहीं विकल्प !
उठा सूरज काँधे पर,
चाँद तारे ला भू पर !
.....
बस..
कल आएगी प्रिय दिव्या
सादर
.....
बस..
कल आएगी प्रिय दिव्या
सादर
बेहतरीन अंक...
ReplyDeleteउत्तम रचनाएं
सादर..
व्वाहहहहहह..
ReplyDeleteशानदार....
सादर...
वाह वाह श्वेता जी ! दुष्यंत कुमार की बहुत ही सुन्दर संवेदन शील पंक्तियाँ लीं आपने शीर्षक के लिए ! मेरे बहुत पसंदीदा कवि ! आज के अंक में मेरे दुमदार दोहों को स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार आपका ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteसुन्दर संकलन व आकर्षक प्रस्तुति, मुझे जगह देने हेतु आभार - - नमन सह।
ReplyDeleteशुभ संध्या ...
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति। ।।
बेमिसाल रचना प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत अच्छे लिंक्स
ReplyDeleteमेरी पोस्ट को शामिल करने हेतु
बहुत हार्दिक आभार प्रिय श्वेता सिन्हा जी 🙏🌹🙏
वाहः छुटकी
ReplyDeleteसराहनीय प्रस्तुतीकरण हेतु साधुवाद
बेहतरीन..
ReplyDeleteकाश मैं भी लिख पाती त्वरित भूमिका
आभार
सादर
सुन्दर संकलन व आकर्षक प्रस्तुति.... मेरी रचना को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार आपका
ReplyDeleteसुंदर संकलन
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया श्वेता दी मेरे व्यग्य को स्थान देने हेतु।
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