नमस्कार
तीन दिन बचे हैं दिसम्बर को
गुज़र जाएँगे
ठीक उसी तरह
जैसै 363 दिन गुज़रे
लीप इयर था न ये
जा रहा है
लीप-पोत कर
....
आइए पिटारा खोलें...
जब शांति का आगार सब अंगार हो जाए
सारा मधुकलश ही विष का सार हो जाए
क्लेश , शोक हर उत्सव का प्रतिकार हो जाए
संकुचित , व्यथित विचलन हो जब डगर तुम्हारी
तुम्हें बाँहों में भर लेंगी स्मृतियाँ हमारी
प्रसन्न चित्त भावना,
विषाद को निगल गयी।
नयी नयी उमंग देख,
आत्मा उछल गई।।
'ज़िंदगी के कई इम्तिहान अभी बाकी हैं
ज़िंदगी की कई उड़ान अभी बाकी हैं'
यही वह समय भी रहा जब जीवन से
रफ़्तार थम गई। फुर्सत भरे पल नसीब हुए।
शून्य का ये चक्र सा जो चल रहा
डोलते हैं हम सभी उस चाक में ।
कौन है जो अडिग अविचल जी सके
कौन है जिसको न मिलना ख़ाक में ।।
हमेशा की तरह,
ये साल भी आख़िर गुज़र ही गया,
अंजुरी से बह कर
एक सजल अहसास,
कोहनी के रास्ते,
स्मृति स्रोत में कहीं,
निःशब्द सा उतर ही गया,
....
दें इज़ाज़त
वक़्त गर मिला तो
तो फिर मिलेंगे
सादर
....
दें इज़ाज़त
वक़्त गर मिला तो
तो फिर मिलेंगे
सादर
बेहतरीन अंक..
ReplyDeleteआभार..
सादर..
सुंदर रचनाओं ने आज की संध्या और सुंदर बना दी..मनोहारी और सार्थक रचनाओं का संकलन तथा खूबसूरत प्रस्तुति ने मुग्ध कर दिया..दिग्विजय जी आपका बहुत बहुत आभार..मेरी रचना को शामिल करने के लिए नमन और वंदन है..सादर..
ReplyDeleteशानदार प्रस्तुतीकरण उम्दा लिंक संकलन।
ReplyDeleteजादुई पिटारा खोलने के लिए हार्दिक आभार एवं बधाई । वैसे लीप ईयर की लीपापोती अच्छी लगी । शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteविविध रंगों से सुसज्जित मुखरित मौन अपना प्रभाव छोड़ता हुआ, सुन्दर चयन व प्रस्तुति, सभी रचनाएँ असाधारण हैं, मुझे जगह देने हेतु हार्दिक आभार आदरणीय दिग्विजय जी, नमन सह। कवितांश को शीर्ष में जगह देने हेतु असंख्य धन्यवाद आदरणीय।
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