सादर वन्दे
रवानगी की ओर 2020
विनती है...
जातेे-जाते कुछ तो
अच्छा कर ही जाओ
उम्मीद तो कम ही है
फिर भी गुज़ारिश है
चलिए रचनाए देखेंं
अपने मन में प्यार पालकर देखो।
एक नजर मुझपर डालकर दैखो।
माना, मैं कोई हूर की परी ना हूँ,
अपने रूप को खंगालकर देखो।
बड़े अजीब नजारे दुनिया ने दिखाए है
मर्द सुबह का भूला शाम को भी ना आता
फिर भी लड़की पर इल्जाम लग जाता
कैसी पत्नी, रूप में ना फंसा सकी
पति के दिल में ना समा सकी
इल्जाम हर बार आना ही है
उसी ने, रंग अपने, फलक पर बिखेरे,
रंगत में उसी की, ढ़लने लगे अब ये सवेरे,
वो सारे रंग, जन्नत के, उसी ने उकेरे,
छुवन वो ही है, तन-मन में,
वही चाहत उभर आई है, कोहरों में!
आत्मा और बदन में
तकरार जारी है,
बदन छोड़कर जाने को आत्मा उतावली है
पर बदन हार नहीं मान रहा
आत्मा को मुट्ठी से कसके भींचे हुए है
थक गया, मगर राह रोके हुए है।
मैं मूकदर्शक-सी
दोनों की हाथापाई देखती रहती हूँ,
कल शाम कहा उसने, फूलों की ग़ज़ल कह दो
'वर्षा' हो ज़रा बरसो, बूंदों की ग़ज़ल कह दो
अब और न गूंथो यूं , चोटी में उदासी को
ख़ुशियों की लहर देकर, जूड़ों की ग़ज़ल कह दो
....
अब बस
सादर
अब बस
सादर
बहुत सुंदर और बेहतरीन प्रस्तुति। दिव्या का कमाल दिखता है। सुंदर रचनाओं का चयन।
ReplyDeleteभा गई प्रस्तुति..
ReplyDeleteशाब्बाश..
सादर..
बहुत अच्छी संध्या दैनिक मुखरित प्रस्तुति
ReplyDeleteप्रिय दिव्या अग्रवाल जी,
ReplyDeleteवाकई "मुखरित मौन" में प्रस्तुत हर रचना शब्द दर शब्द अभिव्यक्ति को मुखरित कर रही है। आपके द्वारा रचनाओं का चयन जिस श्रम से किया गया है, उसे मेरा नमन।
मेरी पोस्ट को भी आपने इसमें स्थान दिया, इस हेतु हार्दिक आभार 🙏
शुभकामनाओं सहित,
डॉ. वर्षा सिंह
पुनः आदरणीया दिव्या जी के प्रति सादर आभार । मेरी रचना की पंक्तियों को प्रस्तुति का शीर्षक बनाने हेतु शुक्रिया। ।।।।।
ReplyDeleteशुभ संध्या।।।।।।
सारगर्भित एवं सुन्दर रचनाओं का संकलन एवं प्रस्तुतिकरण..!
ReplyDeleteसुंदर संकलन
ReplyDeleteबेमिसाल प्रस्तुति
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