Sunday, January 31, 2021

617 ...मुखरित पल्लवित हरित हरित, सरस कुसुम पल्लव मन को भाया

सादर अभिवादन
जनवरी का अंतिम दिन कल से फरवरी... जाते-जाते रुला गई जनवरी चलिए जब इस दुनिया में आए हैं तो जहर पीना ही पड़ेगा में अब रचनाएं देखें...

देहरी-देहरी सिंदुरी
रेहरी-रेहरी अबीरी

उल्लास का उच्चरण है
बसंत आने का लक्षण है ?


आज मेरे घर में फिर रौनक है,
लौट आयी मेरे घर दिवाली,
घर में कितना चहल-पहल है,
जबसे आयी मेरे घर साली।

आज मेरे दोनों हाथों में लड्डू ,
सामने पड़ी मिठाई की थाली ,
बायें खड़ी मुस्कुराती बेगम,
दायें बैठी खिलखिलाती  साली।


हर्षित मुखरित सृष्टि के क्षण,
मधुरित धरा का कण-कण,
मधुर रसास्वाद का आलिंगण,
शिशिर अमृत रस भर ले आया।


वो सभी शामे चिराग़,
भटके हुए रहनुमा निकले,
बुझ गए उम्मीद से पहले,
बड़े ही बदगुमां निकले, .... आज दिव्या आने वाली थी अब वे कल आएगी सादर


Saturday, January 30, 2021

616 .."आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे, आज मैं आगे, जमाना है पीछे...."

सादर अभिनवादन
शहीद दिवस है
आज बापू को भी याद किया दाता है
वैसै शहीद दिवस 23 मार्च को मनाया जाता है सादर नमन बापू को आज की रचनाएँ...
मॉल से बाहर निकलते निकलते मैं सोचने लगी कि हम इंसान तो ''अपना टाइम आएगा...अपना टाइम आएगा...'' ऐसा गा गा कर खुद को तसल्ली दे रहे है। और ये राख है जो गा रही है, "आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे, आज मैं आगे, जमाना है पीछे...."


अमावस्या की रात
जो चल रही है ...
ना मशाल लेकर
राह दिखाएगा कोई ।

एक ज्योतिपुंज जो
जल रही है भीतर तेरे
मझधार में बन पतवार
पार लगाएगी वही ।


गुज़रो यहाँ से यूँ जैसे सब कुछ देख के,
कुछ भी देखा नहीं, सत्य सुन्दर है बहुत,
लेकिन उसमें छुपा है विष का प्याला, ज़रा सा
ऐतराज़ पलक झपकते तुम्हें सुक़रात बना जाएगा,


सर्दी में सबको प्यारी लगती  धूप
देखो बिल्ली मौसी क्या पसरी खूब!

धूप में छिपा है इसकी सेहत का राज
बड़े मजे में है मत जाना उसके पास


अपने दमख़म पर।
उसके चारों ओर  केवल दुश्मन ही दुश्मन।
किंतु, दुश्मनों की 'गुणवत्ता' इतनी उत्कृष्ट कि
अब उसे किसी मित्र की कोई आवश्यकता नहीं!
एकला चलो !


दौड़ती गाड़ियों के बीच स्वयं से बोलता हुआ
अपने भाग्य को मन ही मन तोलता हुआ

रत्ती रत्ती स्वयं को मारने निकला है वो
कितने सहचर है किन्तु देखिये इकला है वो
... शनि-रवि मैं नहीं आती बाकी सब दिन आती हूँ सादर

 

Friday, January 29, 2021

615 ...सत्य है यह, या थोड़ा सा अर्धसत्य!

सादर अभिनवादन
जनवरी को तो शान्त निकलने देना था मगर नहीं, खुजली मिटती नहीं न थी मथते रहेंगे मक्खन निकलते तक सो मिटा ली..

चलिए रचनाओं की ओर

तस्वीरों के रंग में उलझे बिना,
ध्वनि,गंध,अनुभूति के आधार पर
साधारण आँखों से दृष्टिगोचर
दुनिया महसूसना
 ज्यादा सुखद एहसास हो
शायद...।


तो फिर ..
देर किस
बात की
भला ,
बस .. आओ ना ,
आ भी जाओ ना ..
जानाँ ...

जो समक्ष है, क्या वही है सत्य?
या इक दूसरा भी रुख है, नजर के परे!
जो नजर ना आए, उसका क्या?
जो, महसूस हो, उसका क्या?


इश्क़ की अदालत में हूँ,
आज मेरे मोहब्बत की सुनवाई होगी,

गुनाह-ए-इश्क़ की सजा मिलेगी
या आज मेरी रिहाई होगी,

मुक़दमा हो गया तो क्या मुझे
आज भी भरोसा है उस पर,

जरा पता तो करो यारों,
वो ये सब देखने जरूर आई होगी।


गणतंत्र दिवस पर जो कुछ भी हुआ वो
बेहद दुखद, कष्टकारक व अपमानजनक था !
आम आदमी अवाक और तिलमिला कर रह गया !
खासकर लाल किले की अस्मिता पर
कुछ सिरफिरों के हुड़दंग को देख !
इसके साथ ही यह भी तय हो गया कि
आदतानुसार कुछ निर्लज्ज लोग शाम को
विभिन्न चैनलों पर आ विष्ठावामन करने लग जाएंगे

रेशमी कोशों के मध्य चलता रहता है
निःशब्द जीवन का रूपांतरण,
विशाल वृक्ष हों या कोई सूक्ष्म खरपतवार,
हर एक पल में होता है
कहीं न कहीं जीवन का अवतरण -
निःशब्द जीवन का रूपांतरण।
... आज बस कल की कल सादर

Thursday, January 28, 2021

614 ..कोशिश कर घर में पहचान महानों में महान

सादर वन्दे
फिर से दुहराई है दिल्ली
अपने ही इतिहास को
छल को बल से
और..
बल को छल से
हार को जीत में
और..
जीत को हार में
बदल लेना 
मामूली सी बात है
दिल्ली के लिए..
खैर जो है सो...
रचनाओं की ओर चलें..

ये गुड़ जैविक गन्ने से तैयार करते है। इसमें च्यवनप्राश से भी 
ज्यादा खूबियां है। च्यवनप्राश बनाने में जितने प्रकार की 
जड़ी-बूटियां लगती है, इस गुड़ में उससे भी ज्यादा 
जड़ी-बूटियां मिलाई जाती है। इस गुड़ में स्वर्ण भस्म के 
अतिरिक्त 80 प्रकार की जड़ी-बूटियां मिलाई जाती है। 
उनका गुड़ इतना महंगा होने के बावजूद उन्हें ये गुड़ 
बेचने कहीं जाना नहीं पड़ता। उनका पूरा गुड़ 
घर से ही बिक जाता है। इस गुड़ के खरीदार पूरे देश में है। 
अभी 5000 रुपयों किलों वाले गुड़ की मांग पांच सौ किलों प्रति वर्ष है


प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, 
ये तो यूं ही सूखे पत्तों सा सजीव है, 
सच्चा है, ये नेह में गर्म हवाओं के पीछे 
दीवानों की भांति भागता है, 
ये सूखे पौधों में पानी बन जाता है। 
प्रेम तो प्रेम है ये अंकुरण में भरोसा करता है,


बड़ी विलक्षण प्रकृति रीति है 
काल चक्र गति से निर्धारित ।
संचालन जिससे होता हैं 
सुख दुख का आना जाना ।।

संभव है भागीरथ प्रयास भी 
रख न सके जीवित जिजीविषा ।
और किसी की विषम परिस्थिति 
कर दे असाध्य उसका रह पाना ।।


विलख-विलख कर जब कोई रोता है,
क्यूँ मेरा उर विचलित होता है?
ग़ैरों की मन के संताप में,
क्यूँ मेरा मन विलाप करता है?
औरों के विरह अश्रुपात में,
बरबस यूँ ही क्यूँ....
द्रवित हो जाती हैं ये मेरी आँखें.....

एक खेत
सौ दो सौ
किसान
किसी का हल
किसी का बैल
बबूल के बीज
आम की दुकान
जवानों में बस
वही जवान
जिसके पास
एक से निशान
.....
चलते-चलते एक छोटा सा वीडियो

ज़रूर पसंद आएगा
वड़ा सा बुलबुला
.....
बस अब कुछ नही कहना
सहना ही सहना है
सादर

Wednesday, January 27, 2021

613 ..अपनी ही माँ को निर्वस्त्र करने की साजिश

सादर नमस्कार
भारतीय हूँ
अपमानित हूँ
स्तब्ध हूँ
और..
क्रोधित भी हूं
और क्यों न होऊँ
मुझे मेरे देश
का ध्वज ..
जमीन पर पड़ा हुआ
दिखे तो..
खुश तो वे हैं जो भारतीय नहीं हैं
चंद रुपयों अथवा वाह-वाही के खातिर
अपनी ही माँ को निर्वस्त्र करने की साजिश
पुलिस के हाथ बंधे हुए थे
गर सैनिक होते तो
दहशतगर्द लहू-लुहान
अपनी ही माँ के गोद  में फड़-फड़ा रहे होते
अत्यावेश भी सही नहीं
आभार , राजा साहब का 
उपरोक्त पंक्तियों के कुछ शब्द उनके भी हैं
..
आज की रचनाएँ देखें...

राष्ट्र ध्वजा अपमानित कर लाल किले पर चढ़ बैठे,
नई  कहानी  गद्दारी  की  आज कमीने   गढ़  बैठे।

वीरों के बलिदान का देखो उनको कैसा मूल्य मिला,
आज तिरंगा अपमानित है, शर्मिदा  है  लाल  किला।

खालिस्तानी, पाकिस्तानी टुकड़े-टुकड़े वाले हैं,
इनको गंगा मत समझो ये केवल गन्दे नाले हैं।

क्या अपने ही देश में !
राष्ट्रीय पर्व पर  
 शोभा देता है अकल्पनीय यह व्यवहार 
जिसमें नागरिक व पुलिस
 हुए दोनों ही घातक हिंसा के शिकार !  
भारत आगे बढ़ता है तो 
कुछ लोग अनुभव करते हैं हीनता का 
परेड में जिस देश की छवि दिखी 
है वह उन्नति के शिखर पर चढ़ता हुआ  
जिन लोगों ने यह निंदनीय कार्य किया है 
 चाहते हैं भारत की विमल छवि बिगाड़ दें,


ज़िन्दगी कोई तयशुदा निसाब नहीं, 
हर क़दम पे थीं इम्तहां की सीढ़ियां, 
हर मोड़ पे थे कई घुमावदार वादियां,
मिलने बिछड़ने का कोई हिसाब नहीं,


जमाने की नज़र में हो चुके हैं खाक हम लेकिन,
हमें मालूम है हम आपकी नज़रों में जीते हैं,

मेरे हर शेर पर “अंकुर” यहाँ कुछ दिल धड़कते हैं,
यहाँ सब ज़िंदगी को हो न हो खतरों में जीते हैं,


मैं देश हूँ तुम्हारा 
मुझे प्यार से संवारो 
मैं देश हूँ तुम्हारा 
मुझे प्यार से संभालो 
मै देश हूँ तुम्हारा 
मुझे संकट से उबारों 
मै देश हूँ तुम्हारा 
मुझे हरा- भरा कर डालो 
मैं देश हूँ तुम्हारा 
मुझे हृदय में बसा लो 
मै देश हूँ तुम्हारा


भइया! 
हम बेजुबान किसान मज़दूर, 
गरीब-गुरबा और बिना टेक्टर वाले जरूर हैं, 
लेकिन दलाल, दंगाई और देशद्रोही नहीं!!!!
...
अब बस
सादर

 

Tuesday, January 26, 2021

612...गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ...

सादर वन्दे 
एक बहुत बड़ी 
बहुआयमित
एक ऐसी किताब
जिसमे लेखन अभी तक जारी है
जिसमें हजारों पृष्ठ रोज जुड़ते है
आप उसका पठन-पाठन और लेखन 
प्रतिदिन करते हैं...बूझिए तो सही

सैनिक...धन्य कोख ...श्वेता सिन्हा

सियासी दाँव-पेंचों से तटस्थ,
सरहदों के बीच खड़े अडिग,
सिपाही,नायक,हवलदार,
सूबेदार,लैफ्टिनेंट,मेजर,
कर्नल नाम वाले
अनेक शब्दों के लिए
 एक शब्द...।


हमारे कर्म ही होते हैं द्रोपदी…
और हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत ज़रूरी होता है…अन्यथा उसके दुष्परिणाम सिर्फ़ स्वयं को ही नहीं… अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं। संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है…जिसका “विष” उसके “दाँतों” में नहीं, “शब्दों” में है…

द्रोपदी को यह सुनाकर हमें श्रीकृष्‍ण ने वो सीख दे दी जो आए दिन हम गाल बजाते हुए ना तो याद रख पाते हैं और ना ही कोशिश करते हैं। नतीजतन घटनाएं, दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मामूली सा वाद-विवाद रक्‍तरंजित सामाजिक क्‍लेश में…।


स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से ध्वजारोहण किया जाता है।
जबकि गणतंत्र दिवस के दिन राजपथ पर झंडा फहराया जाता है।

कुछ अलग से जीने की हसरत लिए बैठा हूँ, 
ख़ाली हाथों में एक बूंद मसर्रत लिए बैठा हूँ,
अब मुड़ के देखें तो किसे, हदे नज़र है अंधेरा,
सीने में कहीं उजालों के जीनत लिए बैठा हूँ,


प्रथम बार जब मान वो पाई
गर्व सहित मुसुकाये थे
जिन गीतों में मान मिला था
वो भी वही सिखाये थे
फिर भी छोड़ चली चुपके से
दर्द से अति सकुचाये थे
काश वो हमसे कह कर जाती
लौ न गणतंत्र की बुझाने पाए
ये शहीदों की इक निशानी है

लाख ज़ुल्म-ओ-सितम किए जाएं
अम्न की आरती सजानी है


जागो!हे ! हिंद वासियों, ...नया सवेरा
कुछ लोग
चंद सिक्के फ़ेककर
फ़ुसला रहे हैं ।
अवनी की रत्न-राशि लूटते
पृष्ठ को पुष्ट करते
प्रजातंत्र में राजतंत्र का
भोग लगा रहे हैं।
....
बस..
कल फिर
सादर

Monday, January 25, 2021

611 ...भारत विश्व के कई देशों को इसकी वैक्सीन भेजने में सक्षम है

भारतीय गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या 
पर आप सभी को शुभकामनाएँ

हवा ,ये फूल ,ये खुशबू ,यही गुबार रहे 
कहीं से लौट के आऊँ तुझी से प्यार रहे 

मैं जब भी जन्म लूँ गंगा तुम्हारी गोद रहे 
यही तिरंगा ,हिमालय ये हरसिंगार रहे 



वैक्सीन का निर्माण हो चुका है, कोरोना पर काफी हद तक नियंत्रण हो चुका है। भारत विश्व के कई देशों को इसकी वैक्सीन भेजने में सक्षम है, यह बात भी हमारे लिए कितने गर्व की है। एक बार फिर राजपथ पर सुंदर झाँकियाँ, बच्चों के द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा सैन्य बलों का प्रदर्शन एक बार फिर यह सिद्ध कर देगा कि आपदा चाहे कितनी भी भीषण क्यों न हो मानवता अपना मार्ग ढूंढ ही लेती है।


आसमान वही है,
चाँद वही है,
सितारे भी वही हैं,
पर बहुत देख लिया तुमने 
खिड़की के पीछे से इन्हें.


ईश्वर अर्थात भगवान हमेशा से हैं। वह अनादि हैं, निराकार हैं, सर्वव्यापक हैं, ईश्वर को किसी ने नहीं बनाया है।
सच ये है कि इंसान सोचता हैं कि ईश्वर हैं या नही लेकिन...
ये कभी नहीं सोचता कि मैं इंसान हूं या नही!! 


ख़ामोशी की वजह, सिर्फ़
बियाबां को है मालूम,
आईने को कैसे
बताएं, कब
सूख
गए मरुद्यान, अक्स - -
....
बस
कल दिव्या आएगी
सादर


Sunday, January 24, 2021

610 ..सब समाप्त होने के बाद भी शेष रहता है जीवन

सादर अभिवादन
आज दो प्रस्तुति एक साथ
कोशिश की हूँ
कि कोई भी प्रस्तुति की 
पुनरावृति न हो
शायद सफल भी हुई....
पढ़िए आज प्रकाशित रचनाएँ.....

झरती है चाँदनी
ठूँठ रात के घुप्प शाखों पर,
बेदर्दी से पत्तों को सोते से झकझोरती
बदतमीज़ हवाओं की
सनसनाहट से
दिल अनायास ही
बड़ी ज़ोर से धुकधुकाया
आँखों से गिरकर
तकिये पर टूटा एक ख़्वाब


मन उदास
हुए नम नयन
यह देखते

नयन वर्षा
मन को नहीं चैन
यह हाल है


तुम चार दिन
के इश्क़ में ही
बेवफ़ा हो गए।


लोकगीतों का गुलदस्ता
मधुर धुन की बाड़ मढूँ ।
आँगन में छिड़कूँ प्रीत पुष्प
सोनलिया पद छाप गढ़ूँ
फिर पवन पैरों से झूमूँ।


सब कुछ 
छिन जाने के बाद भी 
कुछ बचा रहता है ।

सब समाप्त 
होने के बाद भी 
शेष रहता है जीवन, 
कहीं न कहीं ।


आँखों के तटबंध तक सिमटे होते हैं 
सभी अपने या पराए रिश्ते, 
अपनापन तो है बहता हुआ जलधार, 
रात गुज़रते ही पलकों के नीचे तक उतर आएगा, 
वो कोई उड़ता सा आवेग था, 
भोर के धुंधलके में -न जाने किधर जाएगा।
....
बस
सादर

 

Saturday, January 23, 2021

609 ..खून के बदले आज़ादी देने का जिसका था नारा

सांध्य अंक में आप सभी का

स्नेहिल अभिवादन

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१२५वीं वर्षगांठ है भारत के लाल निडर,निर्भीक सुभाषचंद्र बोस की,
यदि तोरे डाक शुने केऊ आसे तबे
ऐकला चलो रे...वाले जोश की।
नमन करता देश कैसे भुला सकता है?
खून और आज़ादी के नारे 
कण-कण में गूँज रहे थे तब
आवश्यकता थी प्राण फूँकते रोष की।


अमर ,अटल वह ध्रुव तारा ! ...ज्योति-कलश
खून के बदले आज़ादी देने का जिसका था नारा
मातृभूमि का वीर सिपाही हर इक दिल का है प्यारा

'जय हिन्द' उद्घोष को सुनकर जिसके ,बैरी थर्राया      
भारत के अम्बर पर चमका अमर,अटल वह ध्रुव तारा !

कलात्मक फ्यूज़न

पारम्परिक चित्रों से

सुसज्जित काले-काले गोदने ,

या फिर .. दिख जाते हैं कभी-कभार

सारे के सारे जनसमुदाय ही

आपादमस्तक 

राम-राम गुदवाए हुए


धूप के नखरे


बजरे पे पनियों का नज़ारा हसीन था 

महफ़िल में उसके साथ में होकर भी हम न थे 


राजा हो ,कोई रंक या शायर ,अदीब हो 

जीवन में किसके साथ खुशी और ग़म न थे 


बदला मेरा स्वभाव जमाने को देखकर 

बचपन में दांव -पेंच  कभी पेचोखम  न थे 


काँच का संसार

प्राण जी उठते हैं सहसा एक लंबे -
शीत निद्रा से, गर्म सांसों से
लम्हा लम्हा पिघलती
सी है ज़िन्दगी,
बहुरंगी
मीनपंखों से तैरती हैं हसीं लफ़्ज़ों
की कश्तियाँ, कांच के
दीवारों से टकरा
कर लौट
आती


संदर्भ जीवन का 


कुछ तो होगा ऐसा,
जिसके लिए जी-जान लगा के
मेंहदी की तरह रचता गया ..
रचता गया संसार चक्रव्यूह जैसा,
किसके लिए  ?
अभिमन्यु के लिए  ??
छल और बल की क्षुद्र विभीषिका 
डिगा ना पाई जिसकी सत्यनिष्ठा ।

मौजूदा हालात पर

माथे  तिलक  लगा  विदा कर 
रण   में  प्रण  जाना   मुझको 
काट   शीश  बैरी  दुश्मन  का 
चरणों में  तेरे चढ़ाना  मुझको ।


टीकाकरण अभियान की प्रसन्नता, बेहाल किसानों की चिंता और मारे गए पक्षियों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए इस वर्ष और आने वाले तमाम वर्षों से आशा रखते हैं कि हम अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से पालन करें, देशहित प्रधान रखें और जीव-जंतुओं के प्रति संवेदनशीलता के भाव जागृत कर, उनकी रक्षा हेतु अपने स्वर बुलंद करें.
.... बस कल फिर सादर