Saturday, March 30, 2019

33...चिल्लाना शगुन होता है फुसफुसाना ठीक नहीं माना जाता है

सादर अभिवादन..
मार्च की हमारी अंतिम प्रस्तुति
दंगल शुरु है आरोप-प्रत्यारोपों का
रहेगा चालू मई माह तक...
मजा लेते रहिए...पर अफवाहों से
जरूर सतर्क रहिए....

शुरू करते हैं रचनाओं का दौर.....


सौतेली ......... साहसिक कथा

"आंटी, दादी कह रही हैं कि आपसे चोटी बनवा लूँ।" तरु डरती हुई बोली।
"तो ठीक है इसमें डरने की क्या बात है, आओ मैं बना देती हूँ।" उसे पकड़ कर कुर्सी पर बैठाते हुए उर्मी बोली।
चोटी बनाकर उसके कोमल किन्तु खुश्की से रूखे कपोलों को देखकर उर्मी बोली- "चेहरे पर कुछ नहीं लगाया, देखो त्वचा कितनी सूख गई है!" कहकर उसने लोशन निकालकर उसके चेहरे और हाथ पैरों पर अच्छी तरह से लगाया, फिर उसके होठों पर बाम लगाया और पूरी तरह तैयार करके उसे भेज दिया।
उसका यह स्नेहिल अपनापन पाकर तरु मन ही मन खिल गई, परंतु बाल सुलभ संकोच और अनजानेपन के कारण कुछ कह न सकी।
उसके चेहरे के परिवर्तन को सुहास ने भी महसूस किया।

अभिनय ....

त्योहारों में मन जतन से शामिल होने 
पकवानों को कभी खाते, कभी बनाने 
दोस्तों के संग धौल-धप्पा करने 
बेवजह की बातों में रूठ जाने 
और फिर खुद ही मान जाने में



वो भी क्या दिन थे ...

वो भी क्या दिन थे ना 
जब तुम्हारे घर के पचिसो चक्कर लगाया करते थे
वो भी क्या दिन थे ना
जब जम कर हम होली खेला करते थे
वो भी क्या दिन थे न
जब ईद में घर जा जा कर मिला करते थे


मन्दिर नही जाना पड़ेगा .....
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'गुरुदेव 'की मानों तो 
घर में बना लो अगर शांति तो 
मन्दिर नही जाना पड़ेगा 
सुबहो-शाम 


हम कहाँ जा रहे हैं ?
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हिन्दोस्तां विज्ञान छोड़कर, मंदिर मस्जिद बना रहे हैं, 
विकास का मार्ग छोड़ कर, हम मध्य युग में जा रहे हैं |

टीवी चैनल दिन और रात सदाचार का करते कलरव 
किंतु देश में बलात्कार का, होता रहता प्रतिदिन तांडव | 

उलूकिस्तान की खबर...

तोते को 
कितना भी 
सिखा लो 

चोर चोर 
चिल्लाना 

चोरों के 
मोहल्ले में तो 

इसी 
बात को 

कुर्सी में 
बैठने का 
शगुन माना 
जाता है । 

आज तनिक से कुछ
ज़ियादा ही हो गया
अब बस भी कर...
यशोदा







Saturday, March 23, 2019

32....रंगो की होली गाँठ मन की खोली

टूटता शरीर...
खाया-पिया कुछ नहीं
और ग्लास भी टूटा...
खैर..उत्सव है और
खास उत्सव है...
नजरअंदाज नही न कर सकते...
आइए एक नज़र...


फागुन की मनुहार सखी री
उपवन पड़ा हिंडोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला 

दस्तक से पहले ....शान्तनु सान्याल

हमेशा की तरह फिर हाथ हैं ख़ाली, अंजुरियों 
से जो गुज़र गए उनका अफ़सोस नहीं,
कुछ नेह रंग यूँ घुले मेरी रूह में
कि चाह कर भी अब उनसे 
निजात नहीं, न जाने 
कितनी बार ओढ़ी 
है ख़्वाबों के 

पैरहन,

एकदिन ये भी हैं..... रवीन्द्र भारद्वाज
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सपने टूटें 
शीशे जैसे 
कि जुड़ना भी मुश्किल 

तुम रूठे 
पर्वत जैसे 
कि बात करना भी मुश्किल 

रंगों की होली ....डॉ. जेन्नी शबनम
रंगो की होली   
गाँठ मन की खोली   
प्रीत बरसी।   

पावन होली   
मन है सतरंगी   
सूरत भोली।   

भारत का भविष्य ......अभिलाषा चौहान

प्रगति मैदान में
शायद कोई मेला लगा था।
एक ओर,
एक नेता
भारत की प्रगति पर,
भाषण दे रहा था।
एक ओर,एक बच्चा
हाथ में कटोरा लिए खड़ा था।

राधा कृष्ण की होली.......आँचल पाण्डेय

जा रे हट सरपट तू बड़ा नटखट
खेलूँ ना तुम संग होली
तुम छलिया मैं भोली किशोरी
जमे ना अपनी जोड़ी

अरे फगुआ के संग झूम ले तू भी
बरसाने की छोरी
काले के संग हो जा काली

छोड़ दे चमड़ी गोरी

आज बस..
आज्ञा दें
यशोदा


आज के अंक की प्रकाशन सूचना नहीं दी गई है




Saturday, March 16, 2019

31..सरकारी आदेश तैयार, शिकार और कुछ तीरंदाज अखबारी शिकारी

सादर अभिवादन...
मार्च भी निकलने को है
रोक सकता है कोई तो रोक ले
वक्त किसके रोके रुका है
वक्त स्वयं नही रोक सकते वक्त को
सादर...



जीवन-चक्र ......

निर्जीव,बिखरते पत्तों की
खड़खडाहट पर अवश खड़ा 
शाखाओं का कंकाल पहने
पत्रविहीन वृक्ष
जिसकी उदास बाहें
ताकती हैं
सूखे नभ का 
निर्विकार चेहरा



हंस रहा है कोई रो रहा है ...
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कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है

कोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है


खूबसूरत धुंध....

मेरी अखियों में वो ख्वाब सुनहरा था
मेरे ख्वाब को कोमल पंखुड़ियों ने घेरा था
वदन को उसका आज इंतजार गहरा था
खिंचने लगी बिन डोर उसकी श्वांसों की ओर

मेरी श्वासों ने चुना वो शख्स हीरा था

मानवता ........

अनाज के कुछ दानें पक्षिओं के हिस्सें  में जाने लगे,
अपने हिस्सें की एक  रोटी  गाय को खिलाने लगे , 

प्यास  से  अतृप्त  सूख़  रहे   पेड़, लोग पानी  पिलाने लगे  ,
कुछ  ने  बधाया  ढाढ़स,  कुछ  अस्पताल  ले  जाने  लगे , 

मुक़म्मल मोहब्बत की दास्तान ............

पर मैं कोशिश कर रहा हूँ ,
जिंदगी को साथ लेकर चलने की, 
तुम्हें साथ लेकर चलने की।
एक दिन होगी मुलाकात, 
फिर वही नहर के किनारे, 
शाम के डूबते किरण के साथ। 
और फिर से हमारा प्यार मुकम्मल हो जाएगा।

वजह क्या थी ....

वजह क्या थी छोटे वस्त्र पहने थे 
नहीं
इंसानियत
मर चुकी थी
वहशी दरिंदों की 
वासना में लिप्त थे
तभी तो नहीं दिखी थी
उन्हे नन्ही कली नाजों से पली



चलते-चलते कुछ हटके

पहले दिन 
की खबर 
दूसरे दिन 
मिर्च मसाले 
धनिये से 
सजा कर 
परोसी गई 
होती है 

‘उलूक’ से 
होना कुछ 
नहीं होता है 
हमेशा 
की तरह 
उसके पेट में 
गुड़ गुड़ हो 
रही होती है 

आज की प्रस्तुति बस यहीं तक
फिर मिलेंगे
सादर

यशोदा








Saturday, March 9, 2019

30...कुछ भी कह देने वाले का भाव एकदम उछाल मारता हुवा देखा जाता है

तीसवाँ सप्ताह
मुखरित मौन का
हंगामें और अनिश्चिन्तताओं के माहोल में भी
हंसता रहा - रोता रहा
नामालूम ज़िन्दगी की तरह
सादर अभिवादन...


कल निपट गया हम महिलाओं का सम्मान समारोह...
ये सच में...सत्य या छलावा


जिस भी दिन आप किसी महिला को मान देते हैं, 
उसकी महत्ता स्वीकार करते हैं, 
वही दिन उसके लिए महिला -दिवस है
नारी,औरत,स्त्री, या वुमन जिसे सब आधी दुनिया कहते हैं , क्या 
वास्तव में वह आधी दुनिया है ? यह एक ऐसी आधी दुनिया है जो 
अपने अंदर पूरी दुनिया समेटे हुए है | स्त्री ही तो है जिससे जीवन 
का आरंभ होता है | लड़की-लड़का दोनों को जन्म देने वाली 
स्त्री ही तो है पर फिर भी वह अधूरी ही कहलाती है |



कहने दो मुझे कि प्यार है......

मैं फिर कहूंगी, 
मुझे फिर-फिर कहना है 
तुम्हारा प्यार मेरा सौभाग्य है 
तुम कहोगे प्यार है तो है 
सबको बताना क्यों 
और मेरा जवाब होगा 
प्यार है तो है 

उम्मीदें .......

छू भी नहीं पाते,
जमीं के 
जलते पाँव,
दरख़्तों से
सायों की, 
बेमानी उम्मीदें



जाते जाते वो मुझे .... 
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जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया 
उम्र भर दोहराऊँगा ऐसी कहानी दे गया 

उससे मैं कुछ पा सकूँ ऐसी कहाँ उम्मीद थी 
ग़म भी वो शायद बरा-ए-मेहरबानी दे गया 

उलूकिस्तान में उलूक..

‘उलूक’ 
कपड़े लत्ते की 
सोचते सोचते 

गंगा नहाने 
नदी में उतर जाता है 

महाकुँभ 
की भीड़ में 
खबरची के 
कैमरे में आ जाता है 
पकड़ा जाता है 
..
अब बस
सादर..








Saturday, March 2, 2019

29...जमीन की सोच है, फिर क्यों, बार बार हवाबाजों में फंस जाता है

मार्च का महीना....दूसरा दिन
बीते फरवरी में
आया था एक ज़लज़ला
हवाबाजों ने ढाया था कहर
शानदार तेरहवीं मनाई गई थी
शहीदों की....
शहीदानियों का अभिशाप ही था
जो ज़मींदोज हो गए पापी..
कुल मिला कर शान्ति है अब तक


चलिए आगाज़ करते है आज के अंक का

राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

रंग मुस्कुराहटों का ....

हर सिम्त आईना शहर में लगाया जाये
अक्स-दर-अक्स सच को उभरना होगा

मुखौटों के चलन में एक से हुये चेहरे
बग़ावत में कोई हड़ताल न धरना होगा

सियासी बिसात पर काले-सादे मोहरे हम
वक़्त की चाल पर बे-मौत भी मरना होगा

तुम निश्चिन्त रहना ..... 

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना

जीने की वज़ह दे दो ......

टूटे  इस  रिश्ते  में, आ  कर के  गिरह  दे दो
शिकवों को संग लाओ, लंबी सी जिरह दे दो

अश्कों  से  भरी आँखें, ग़मगीन  सी  हैं  रातें
शामों में हो शामिल, मुझे अपनी सुबह दे दो

खबर-ए-उलूकिस्तान

पर क्या 
किया जाय 
आज 
हवा बनाने 
वालों को ही 
ताजो तख्त 
दिया जाता है 

जमीन 
की बात 
करने वाला 
सोचते सोचते 
एक दिन 
खुद ही 
जमींदोज 
हो जाता है ।

सोचती हूँ कि कुछ और लिख दूँ
पर अब बस करती हूँ
यशोदा