Sunday, December 27, 2020

582...तुम, अपरिचित तो न थे कभी


 सादर वन्दे 

एक छोटी सी लघुकथा



- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था?'
-हाँ बेटा.'
-  'काश वह आज भी होता.
' दूरदर्शन पर नेताओं और संतों के
वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा। 

अब चले रचनाओं की ओर



हाल नया, साल नया
होगा उल्लास नया,
आंगन में सपनों का
होगा जहान नया,
ख़ाली हुई जेबें
फ़िर से भर जाएंगी,
टलती हुई खुशियां
जल्दी घर आएंगी,
रुकी हुई रेलों में
रौनक फिर छाएगी,
ख़ाली हुई सड़कें 
फिर से भर जाएंगी।





ग़र समझ लो वक्त रहते इश्क़ की गुस्ताखियाँ 
फिर मुझे हर वक्त पड़ता यूँ नहीं रोना प्रिये 

मेरे नैनों ने विवश हो, कल ये मुझसे कह दिया 
थक गया हूँ साथ रहकर, स्वप्न मत देखो प्रिये 





अंतिम पहर में थम गए 
सभी कायिक उफान, 
बहुत अनिश्चित होता है 
चाहतों का निद्राचलन,
देह और प्राण के मध्य 
निरंतर चलता रहता है 
एक असमाप्त खींचतान, 
अंतिम पहर में थम गए सभी कायिक उफान।





उपमा मन की मीत मिट्टी-सी महकी  
रुपक मौन ध्वनि सप्त रंगों-सा शृंगार
यति-गति सुर-लय चितवन का क़हर  
अक्षर-अक्षर में उड़ेला मेघों का उद्गार
शीतल बयार स्मृतियों के पदचाप 
मरु ललाट पर  छाँव उकेर  रही हूँ।




कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!





जन्मदात्री होती हैं..; 
कलाओं की..! 
आसन्नप्रसवा वेदना से 
हूकता है-मन..!
किसी भयावह,निर्जन जंगल में 
भटकते-भटकते
जो पागल हो जाते हैं..; 
वे भी जन्म लेते होंगे- 
किसी अग्निधर्मा,उर्वर गर्भ से ही..!
......
आज बस
सादर




5 comments:

  1. व्वाहहह..
    स्वागत है सलिल भैय्या जी
    आभार..
    सादर..

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  2. वाह.....
    पुन:मेरी रचना के अंश को शीर्षक का रूप देने हेतु, मंच व प्रस्तुतकर्ता का आभारी हूँ।
    इस सुन्दर प्रस्तुति का अंश बन पाया,,,शुक्रिया।

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  3. उव्वाहहहहहह..
    बढ़िया अंक..
    आभार..
    सादर..

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  4. सुन्दर संकलन व प्रस्तुति, सभी रचनाएँ असाधारण, मुग्ध करता सांध्य अंक, मुझे स्थान देने हेतु आभार - - नमन सह।

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  5. सुन्दर संकलन एवं उम्दा प्रस्तुतीकरण के लिए दिव्या जी आपको हार्दिक बधाई..मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय से अभिनंदन करती हूँ..सादर..

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