Wednesday, September 30, 2020

494..तम दूर होगा तुम दीपक जला लो

सादर वन्दे
सितम्बर का अंतिम दिन
सच में अच्छा लग रहा है
नवागन्तुक कल आएगा...
चलें रचनाएँ देखें
शुरुआत सदा की तरह
अग्निशिखा से..


आज भी सदियों की तरह
जीने का अधिकार
चाहते हैं लोग,
आज भी
वही
पुराने आईने में रामराज का बिम्ब -  -


एक सुकोमल छुअन 
अनदेखी अनजानी सी 
रूह की गहराइयों में 
लगती कुछ पहचानी सी 
पिघला रही है वजूद मेरा 
हो गयी सरस तरल मैं....

कहां गई मुस्कान ....

जीवन मे कही मान मिला ,मिला कही अपमान 
मन की खुशियां कहा गई ,कहा गई मुस्कान

अपने थे जो चले गये ,कहा है अपनापन
रस जीवन मे नही बचा, खोया है बचपन


अकेले खड़े हो मुझे तुम बुला लो।
मायूस क्यों हो ,जरा मुस्कुरा लो।

रात है काली और अँधेरा घना है,
तम दूर होगा तुम दीपक जला लो।

देखे राग-रंग दुनिया के 
मृग मरीचिका ही सब निकले, 
निकट जरा जा  छूकर देखा 
जैसे इंद्रधनुष हो नभ में !


अरमानों की अर्थी को 
ख्वाबों की चिता पर सुलाती है,
ज़िन्दगी कुछ नहीं कर पाती 
जब मौत बेवक़्त आती है।
....
गिनती-मिनती में आज
एक रचना अधिक हो गई
खैर..
सादर

Tuesday, September 29, 2020

493..जीवन यात्रा कैसी अबूझ कौन इसे समझा है अब तक

 सादर नमस्कार
उन्तीसवां दिन सितम्बर का
सन 2021 देखने की उत्कट अभिलाषा
आज के पिटारे में....

मेधा और मन ...
जीवन यात्रा कैसी अबूझ

कौन इसे समझा है अब तक
चक्र चले ये चले निरन्तर 
मेधा सृष्टि रहेगी जब तक
मतभेद अवसाद साथ रहे
चले सदा भावों का भाला।।

पंख पसार उड़े क्षितिजों तक
एक जागरण ऐसा भी हो 
खो जाए जब अंतिम तन्द्रा, 
रेशा-रेशा नाचे ऊर्जित 
मिटे युगों की भ्रामक निद्रा !

बारम्बार वापसी - -
तृषित बियाबान, क्रमशः हम भूलते गए
दूसरों के निःश्वास, मुस्कुराहटों के
नेपथ्य का दर्द, बचाते रहे ख़ुद
को अंधकार गुफाओं से,
पाँव पसारता रहा
लेकिन हमारे
बहुत अंदर
तक
अनिःशेष रेगिस्तान।


जन्मदिन मुबारक 

तुम इस तरह आओ के मँगल कलश छलके 

मेरे घर में ख़ुशी ही ख़ुशी चहके 


ताउम्र रहे साथ तुम्हारे मेरा प्यार 

मेरी दुआओं का असर बन के 


भास्कर के स्तंभकार

निष्पक्ष पत्रिकारिता के लिए यह जरुरी है कि सिक्के के दोनों पहलुओं के बारे में ईमानदारी के साथ बिना भेद-भाव के, बिना पक्षपात किए पूरा खुलासा किया जाए ! यदि ऐसा नहीं होता है तो मीडिया के साथ जो ''बिकाऊ विशेषण'' जोड़ दिया गया है उसको और हवा ही मिलेगी ! 
....
आज बस
पता नहीं कल कौन
सादर  














Monday, September 28, 2020

492 ...कागज कलम और एक शांत कोना

सादर अभिवादन
महीना सितम्बर विदाई मांग रहा है
नहीं का प्रश्ऩ ही नहीं..जो आया है वो
जाएगा ही ..इस नश्वर संसार में कौन रुक सका है
है न फिलासफर टाईप की बात...

चलिए रचनाओं की ओर

आज की पहली रचना
पहली बार इस ब्लॉग में 

धरती नाप ली नापने को
अंतरिक्ष में पड़े आसमान बहुत है
“पंख” थोड़े कमजोर पड़ गए
हौसलों में अब भी उड़ान बहुत है


सर्वदा संभव नहीं - -

है श्रेष्ठ पुरुष, धर्म
का एकमात्र
पुरोधा,
समाज केवल है उसका अनुचर, शोषण
का चाबुक है उसके हाथ वो जहाँ
चाहे वहां ले जाएगा हाँक
कर, लेकिन उसी
बिंदू पर है

अंतर्मन से एक
आवाज़ आई
कुछ कहना है...
चुप !!
विवेक ने तुरन्त 
कस दी नकेल
और...
दे डाली एक सीख


खारे समंदर के साथ रह लेगी,
दोनों की अलग पहचान होगी,
पर समंदर को यह मंज़ूर नहीं था,
वह आमादा था 
कि मीठी नदी भी 
उसकी तरह खारी हो जाय.

अनर्थ को ललकारने से बचना ..










अनर्थ को ललकारने से बचना।

हूँ नम्र पर इतना नहीं कि
नरम समझकर
खीरे- ककड़ी की तरह चबा जाओ
पैर के नीचे से ज़मीन खीचनें की
औकात हम रखते हैं। 
..
इति शुभम्
कल शायद फिर
सादर

Sunday, September 27, 2020

491.. नवें महीने की चालीसवीं बकवास

 हमारी दीदी पगला गई है
सच कह रही हूँ
सुबह-सुबह मैसेज आया कह रही थी दिवू
कुछ लिंक तलाश कर दियो
हम सोमवार का अंक बनाना भूल गए हैं
हमारी हंसी रुकने का नाम भी नहीं ले रही थी
आज हमारी ट्यूशन की भी छुट्टी है
हम दवा का नाम लिखकर भेज दिए...
आज की रचनाएँ सुबह-सवेरे...

समीर भाई साहब कुछ अजीब सा सोचते है..
भविष्य का इतिहास
आप भी पढ़िए..

आजकल मैं समय लिख रहा हूँ

चाय नाश्ता आते ही वह चर्चारत हुए। कहने लगे कि ‘आजकल मैं समय लिख रहा हूँ’ समझे? मेरे कानों में महाभारत टीवी सीरियल का 

‘मैं समय हूँ’ गूँज उठा पूरे शंखनाद के साथ। 

मैंने पूछा कि वो महाभारत वाले समय की 

आत्मकथा लिख रहे हैं क्या? मुस्कराते हुए कहने लगे- 

मैं जानता था कि तुम नहीं समझोगे। चलो तुमको 

इसे सरल शब्दों में समझाता हूँ।

वह सरल शब्दों में बोले कि दरअसल 

मैं भविष्य का इतिहास लिख रहा हूँ।


यात्री विहीन सफ़र - -

उन जलज लतिकाओं में, खोजता

रहा उसके सीने का मर्मस्थल,

सिर्फ अनुमान से अधिक

कुछ भी न था, कभी

किनारे से सुना

उसका

अट्टहास, और कभी मृत सीप के -

खोल में देखा चाँदनी का

उच्छ्वास,

मेरी खिड़की से उतर आती हैं ...

आसमान जब बाहें फैलता हैं

घना बादल जब आँखे दिखता हैं

देखती हैं ओटो के बीच से

कोई बच्चा देखे जो आँखे मीच के,

कभी अलसाये तो लाल हो,

चाँदनी गालो पे जब गुलाल हो,

" बड़े जिद्दी ख़्वाब तेरे "

नजरों का मिलना और मुस्कुराना ज़ुर्म हो गया

गजब नज़रों में कशिश ईश़्क का इल़्म हो गया

इक अजनवी चेहरा ने किया हृदय ऐसा घायल

कि नजरों के भ्रमजाल में ख़ुद पे ज़ुल्म हो गया ।

चलते- चलते एक गरमागरम खबर

लेखक लेखिका

यूँ ही नहीं लिखा करते 

कुछ भी कहीं भी कभी भी

हर कलम अलग है स्याही अलग है

पन्ना अलग है बिखरा हुआ है

कुछ उसूल है


लिखना उसी का लिखाना उसी का

गलफहमी कहें

कहें सब से बड़ी है

भूल है


‘उलूक’

पागल भी लिखे किसे रोकना है

बकवास करने के पीछे

कहीं छुपा है

रसूल है।

बस..
सादर








Saturday, September 26, 2020

490...मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें

सादर अभिवादन
माहौल मिश्रित है
कह सकते हैं
जो घर में है वो
ज्यादा सुखी है
छोटे-बड़े बच्चों की
ऑनलाईन कक्षाएँ जारी है
वे स्कूल जाते थे तो घर 
का फैला काम समेट लेते थे
अब वे घर में हैं तो संतोष है
वे सुरक्षित तो हैं....
.....

आज की रचनाएँ....

प्यार प्यार है,  इश्क इबादत है
जब जुनूनी नहीं तो पहला क्या आखिरी क्या..,
अक्षर में बताया या ग्रन्थ लिख डाला
कारूनी नहीं तो पहला क्या आखरी क्या..,
छौने ने छू लिया ज्यों आकाश , 
बीज से बिरवा बरगद बन फैला दिया प्रकाश..


रात है बहुत बाक़ी, आलोक - छाया -
का खेल, अभी तो सिर्फ आरम्भ
की है बेला, कौन है मृग और
कौन मृगया, सब कुछ
है अनागत के
गर्भ में
समाहित, खोने और पाने के मध्य
ही छुपा है जीवन का सारांश,


मैं स्याही की बूंद हूं जिसने 
जैसा चाहा लिखा मुझे
मैं क्या हूं कोई ना जाने 
अपने मन सा गढा़ मुझे।

भटक रही हूं अक्षर बनकर 
महफिल से वीराने में
कोई मन की बात न समझा 
जैसा चाहा पढ़ा मुझे।


शाम से आँख में नमी-सी है,
आज फ़िर आपकी कमी-सी है

दफ़न कर दो हमें कि साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी-सी है

वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी-सी है

कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी
एक तस्लीम लाज़मी-सी है।


आज या ख़ुद को रुला लें 
चित्र अनदेखा सा इक उभरा हुआ है
रौशनी का हर क़दम ठहरा हुआ है
सब हुलासें सब मिठासें गुम गयी हैं
मन का चेहरा आजकल उतरा हुआ है 
दूधिया एकांत का उबटन लगा लें
मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें 

बस आज इतना ही
कल पता नही कौन..

Friday, September 25, 2020

489.. जीते तू ही हर बार ,हमें तो हार मुबारक

 सादर नमस्कार
कांटा लग गया कल
दर्द तो हुआ..और
दवा भी मिल गई
तत्काल समाप्त हुई पीड़ा..
खैर छोड़िए कांटे को

रचनाओं का पिटारा खोलें..

भारत के वीरो ने ली है, शपथ ...

सीमा पर शत्रु ने फिर से, 

बढ़ाई अपनी चाल है, 

फन कुचलने को उनकी, 

प्रहरीबने हुए ढाल हैं

दुश्मन पड़ा है सकते में, 

उल्टी पड़ी उसकी चाल है

हिमालय सिर्फ पर्वत नहीं, 

भारत मां की भाल है

उड़ान ....

चलो बाँध स्वप्नों की गठरी

रात का हम अवसान करें

नन्हें पंख पसार के नभ में

फिर से एक नई उड़ान भरें


बूँद-बूँद को जोड़े बादल

धरा की प्यास बुझाता है

बंजर आस हरी हो जाये

सूखे बिछड़ों में जान भरें


विप्लवी बिहान - -

क्षितिज में उभर चले हैं, रंगीन

विप्लवी वर्णमाला, फिर

कोई बढ़ाएगा हाथ,

व्यथित

अहल्या को है युग - युगांतर से

प्रतीक्षा, कोई सुबह तो

ले, पुनः कालजयी

अवतार।



किवाड़...रचनाकार की तलाश है

दो पल्ले के किवाड़ में,

एक पल्ले की आड़ में ,

घर की बेटी या नव वधु,

किसी भी आगन्तुक को ,

जो वो पूछता बता देती थीं।

अपना चेहरा व शरीर छिपा लेती थीं।।



'रहस्य'

डायरी शैली की पुनः वापसी

मेरी उदासी मेरी सासु माँ को 

बिलकुल अच्छी नहीं लगती है। 

लेकिन आज वे भी मेरी उदासी का कारण 

जानकर चिंतित दिखीं। 

शायद कल कोई बड़ी चाभी 

समय के गुच्छे से निकल सके।


अशआर मुबारक ......

दिल ने जो दिल से ठानी है, वो रार मुबारक 
जीते तू ही हर बार ,हमें तो हार मुबारक.... 

इज़हारे मोहब्बत भी, तक़ाज़ों का सिला है,
वल्लाह ये आशिक़ी की हो, तक़रार मुबारक ....
 
...
इति शुभम्
सादर








Thursday, September 24, 2020

488..मुझे तो बीता कल नज़र नहीं आता

सादर वन्दे
आज मैं दिव्या
कल आने वाली थी तो
दीदी प्रस्तुति लगा रही थी
सो हम बैक टू पेव्हेलियन हो गए

आज हैं पर रचनाएँ पढ़िए...

हर तन अब तो जलता है 
मोम -सरीखा गलता है ।

दिन अनुबंधित अंधकार से 
सूरज कहाँ निकलता है ।

अब गुलाब भी इस माटी में 
कहाँ फूलता-फलता है ।

तो क्यों ना खर्च भी उसी से वसूला जाए
है ना विडंबना ! देश के तकरीबन 21 हजार वीआईपी लोगों की सुरक्षा के लिए करीब 57 हजार जवान तैनात हैं। जबकि आम इंसान जो अपनी गाढ़ी कमाई के एक हिस्से से इन महानुभावों की रक्षा का खर्च उठाता है, उस जैसे साढ़े छह सौ से भी ज्यादा लोगों की देख-भाल की जिम्मेदारी के लिए सिर्फ एक पुलिस वाला उपलब्ध होता है !


कभी स्थिर पलों में, बहुत कुछ कहने
की चाह में, कांपते हैं होंठ, कभी
बहुत कुछ कहने के बाद भी
रह जाती है, दिल की
बात दिल में,
कभी
निगाहों में उभरते हैं महीन बादलों के
कण, कभी डूब जाती हैं पलकें


कुछ इस तरह मैं करूं मोहब्बत
सम्हल के भी तू कभी न सम्हले

बस इतना हो जब उठे जनाजा
हमारा और दम तुम्हारा निकले।

आँखों में इतनी धुंध छायी है कि बस
आइने में अपना अक्स नज़र नहीं आता ।

आने वाले पल के मंज़र में खोये हो तुम
मुझे तो बीता कल नज़र नहीं आता ।

आज बस
कल की छोड़ परसों फिर
सादर






Wednesday, September 23, 2020

487..शासन सच्चाई के साथ लॉकडाउन किया है

सादर अभिवादन
वाकई इस बार 
शासन सच्चाई के साथ 
लॉकडाउन किया है
सड़क पर एक भी कुत्ते नहीं हैं
पूरी ईमानदारी से
लॉकडाउन को फॉलो कर रहे हैं

मुस्तैदी से द्वार के बाहर डटे हुए हैं

चलिए आज की रचनाओं की ओर...

“हृदय एक ऐसी मशीन है जो 
बिना रुके जीवन भर चलती रहती है, 
इसे प्रसन्न रखें, 
यह चाहे अपना हो या दूसरों का”. 
हृदय प्रसन्न रहे 
इसके लिए सबसे जरूरी है कि 
हम सहजता में रहें


तुम्हीं गढ़ने वाले, तुम्हीं हो उपासक
और तुम ही हो डूबाने वाले,
समझ के परे है ये
विनिमय का
खेल।
फिर भी मैं हमेशा की तरह दौड़ आती
हूँ, वही शिउली गंध भरे पथ से
तुम्हारे द्वार, तुम्हारे हाथों
ही होता है मेरा समर



क्या वो, महज इक मिथ्या था?
सत्य नहीं, तो वो क्या था?
पूर्णाभाष, इक एहसास देकर वो गुजरा था,
बोए थे उसने, गहरे जीवन का आभाष,
कल्पित सी, उस गहराई में,
कंपित है जीवन मेरा,
ये सच है? 
या इक भ्रम में हम हैं!



पटक-पटक कर फोड़ने से नारियल दो-तीन भागों में टूट तो जाता है लेकिन नारीयल के छिलके से नारियल का गूदा अलग करने में अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ती है। अमूमन लोग नारियल के छिलके से गूदा, चाकू की सहायता से अलग करते है।



इसी स्टेशन की बेंच पर बैठकर 
मैंने बुने थे भविष्य के सपने,
बनाई थीं तमाम योजनाएं,
लिखी थीं दर्जनों कविताएँ,
इसी के कोने पर बैठकर 
मैंने पहली बार उसे देखा था.

 आज दिव्या नाराज हो जाएगी
उसका पेज खुला था..
हम ओव्हरलुक कर बैठे
कल वो आएगी
सादर..


Tuesday, September 22, 2020

486 ...आज के अंक का विलम्बित प्रकाशन

 आज के अंक का विलम्बित प्रकाशन
भूल ही गए थे
कोई बात नहीं 
आज का अंक 
वाकई सांध्य अंक हो गया


काश जान पाते - -

वो आदमी जो फूटपाथ पे रात

दिन, धूप छांव, गर्मी सर्दी

अपने हर पल गुज़ार

गया, काश जान

पाते उसके

ख़्वाबों

में ज़िन्दगी का अक्स क्या था,

नेकी की सीख ...

"सूर्यास्त की छवि उस वजह से ही कुछ ज्यादा मनमोहक चुम्बकीय...,

" मयूर की बातें पूरी होने के पहले ही मानस द्वारा अचानक लिए गए 

ब्रेक से कार झटके से रुक गई।

"क्या हुआ?" मयूरी और मयूर एक साथ बोल पड़े।

"थोड़ा पीछे देखो, शायद उन्हें हमारी सहायता की आवश्यकता है।" 

तो जवाब सुनने का धैर्य भी रखिए ...

जब सफलता, सम्मान और प्रतिष्ठा 

कुछ लोगों के सर पर 

पालथी मार कर जम जाते हैं, 

तब उन्हें संभालना 

सब के बस की बात नहीं रह जाती ! 

ऐसे में उन्हें हर इंसान गौण नजर आने लगता है। 

अपनी अक्ल और ज्ञान के गुमान के सामने 

उन्हें दूसरों की हर बात गलत लगने लगती है।


गीत ...

प्रेम आलिंगन मनोरम

लालिमा भी लाज करती

पूर्णता भी हो अधूरी

फिर मिलन आतुर सँवरती

प्रीत की रचती हथेली

गूँज शहनाई हृदय में।।
...
बस
सादर










Monday, September 21, 2020

485 ..." आपका व्यवहार ही आपका परिचय है "

 सादर वन्दे..
आप कैसे हैं आज
मैं भली-चंगी हूँ
मौसम और माहोल गंदा है
इसीलिए पूछ बैठी..
आज की पसंदीदा रचनाएँ...


ख़ुशी ...ओंकार जी

मैं तुम्हें खोजता रहा बाहर,

पर तुम तो अन्दर ही थी,

कभी तुमने आवाज़ नहीं दी,

कभी मैंने अन्दर नहीं झाँका.


दर्पण भी न पढ़ पाया ..उदयवीर सिंह

मुख के रंग -रंगोली को ।
कर जोड़े मुस्कान अधर 
मानस की घात ठिठोली को ।
रेशम के वस्त्रों में लिपटा ,
काँटों का उपहार मिला ,


केतकी वन के पार - - शान्तनु सान्याल


अधूरा रहा जीवन वृत्तांत, तक़ाज़े से

कहीं छोटी थी रात, हर चीज़ को

लौटाना नहीं आसान, संग

हो के भी कुछ निःसंग

पल, निबिड़ रात्रि

विवस्त्र


तेरी यादें ..पंकज प्रियम

तेरा चेहरा तेरी आँखे, तेरी धड़कन तेरी साँसे।
सताती है मुझे हरपल, तुम्हारे संग की यादें।।

तेरा चेहरा मेरी आँखें, मेरी धड़कन तेरी साँसे।
जगाती है मुझे हरपल, तुम्हारे संग की रातें।।




आकाश कब बुलाये ..अनीता जी

भूली सी कोई याद

जाने कब से सोयी है

हर दिल की गहराई में 

करती है लाख इशारे जिंदगी

किसी तरह वह याद 

दिल की सतह पर आये 



फरहत शहज़ाद की ग़ज़लें ...अशोक खाचर

भटका भटका फिरता हूँ 
गोया सूखा पत्ता हूँ 

साथ जमाना है लेकिन
तनहा तनहा रहता हूँ  

धड़कन धड़कन ज़ख़्मी है 

फिर भी हसता रहेता हूँ 


चलते - चलते..

‘उलूक’ कुछ करना कराना है तो

गिरोह होना ही पड़ेगा


खुद ना कर सको कुछ

कोई गल नहीं

किसी गिरोहबाज को

करने कराने के लिये

कहना कहाना ही पड़ेगा


हो क्यों नहीं लेता है

कुछ दिन के लिये बेशरम

सोच कर अच्छाई 


हमाम में

सबके साथ नहाना है  

खुले आम कपड़े खोल के

सामने से तो आना ही पड़ेगा

सादर..