सादर अभिवादन
आज की दौड़ में हैं
आदरणीय सखी रिंकी राऊत
दिल्ली वाली, 2013 से अब तक लिख रही हैं
58338 पृष्ठ दृष्य और 58 ही फॉलोव्हर हैं
दो काव्य संकलन है उड़ान और गुलिस्तां
आपने अपने ब्लॉग में उच्चस्तरीय रचनाकारों की रचनाएँ भी साझा की हैं
सबसे पहले ले रही हूँ 2013 की एक रचना
सधी कलम है
बंधन में बंधी मैं
बंधन,
बेचेनी बढता है ,
साथ होना अच्छा तो है, पर
मेरे तन्हाई की साधना में कही
विघ्न सा पड़ जाता है
2014 मे 19 रचनाएँ हैं
बेटी शब्द मेरी पहली पहचान
बहन, कहलाना दूसरी पहचान बनी
पत्नी,बहु,माँ.भाभी अदि कई
नामों से मैं पहचानी जाती हूँ
वो खाली पेट भटक रहा
बंजर पड़ी ज़मीन को
तरही नज़र से ताक रहा
रोज़ सोचता गाँव छोड़े
शहर की तरफ खुद को मोड
वो देश का अनंदाता है
भूखे पेट रोज़ सो जाता है
जब कभी भी मैंनें आँखें बंद कर
सब के लिए दुआ मांगी
ईश्वर और मैं साथ थे
किसी के विश्वास पर उंगली नहीं उठाई
हर किसी की मान्यताओं का सम्मान किया
धर्म के परदे के पीछे छिपे
इन्सान को पहचाना
तब इश्वर और मैं साथ थे
शहर की सड़क नाप डाला गांव तक।
जो साथ चले थे नहीं पहुँचे घर आज तक।
कुछ सड़क पर ढ़ेर हुए, कुछ पटरी पर बिखर गए।
क्या तू भूल गया, पैर में पड़े छाले।
तेरे लब पर कोई सवाल क्यों नहीं उठता ?
तुम उस चाँद की तरह हो
जो हर रोज़ अपनी जगह बदलता है
कभी छुपता है,कभी बहुत करीब होता है।
पर हमेश दूर,मेरी पहुँच से दूर होता है
और ये ख्याल मुझे मज़बूर करता है
छू कर देखू तुम्हे।
...
आपकी अदालत में प्रस्तुत है आदरणीय रिंकी राऊत
सादर..