शुभ रविवार
जुलाई महीने का अंतिम रविवार
बीत गई जुलाई भी
नहींं जाएगा कोरोना
पर ये दिलासा तो दे लें मन को
कि हम सुधर रहे हैं
न छू रहे हैं और न ही
छूने दे रहे हैं...
चलिए रचनाओँ की ओर..
जुलाई महीने का अंतिम रविवार
बीत गई जुलाई भी
नहींं जाएगा कोरोना
पर ये दिलासा तो दे लें मन को
कि हम सुधर रहे हैं
न छू रहे हैं और न ही
छूने दे रहे हैं...
चलिए रचनाओँ की ओर..
कितनी अजीब बात है
कि हम दूर-दूर जाते हैं,
देख लेते हैं सब कुछ,
पर उसे नहीं देख पाते,
जो हमारे सबसे क़रीब है
कई दिनों से इस तिजोरी की चाबी
हथियाने की जुगत में थे ना तुम ?
लो यह चाबी और ले जाओ
जो ले जाना चाहते हो
चाहो तो सब कुछ ले जाओ
मेरे मन में खलिश पैदा करके
तुम्हें क्या मिलता है
मेरे दिल का सुकून
कहीं खो गया है |
उससे तुम्हारे मन में
अपार शान्ति का एहसास जगा है
नदी को समझने के लिए
पानी होना पड़ता है
और नदी किसी से
उम्मीद नहीं करती हैं
ठीक उसी तरह
छोडें हुये किनारों पर
नदी वापस नहीं लौटती हैं
तुम आ रहे हो,ये खबर हो गई।
रास्तें में तेरी, यह नजर हो गई।
सुबह से खड़ी थी,राहों में तेरी,
खड़ी ही रही, दोपहर हो गई।
तब से खड़ी थी, शाम ढले तक,
शाम ढली राह, बेनजर हो गई।
....
आज बस
कल फिर..
सादर
आज बस
कल फिर..
सादर
बहुत सुंदर संकलन
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर रचनाओं से मुखरित हो रही है आज की संध्या यशोदा जी ! मेरी रचना को आज के अंक में स्थान दिया आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteसुन्दर संकलन. मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.
ReplyDeleteसुन्दर संककन लिंक्स का |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद यशोदा जी |
ReplyDeleteव्वाहहहह
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति
सादर
मुखरित मौन का शानदार अंक ।
ReplyDeleteसभी रचनाकारों को बधाई।
सुंदर।