सादर नमस्कार
जुलाई का चौबीसवां दिन
हाँ, अब दिन ही गिना जाएगा
इक्कीस जो देखना है
आज की प्रस्तुति....
इंसान तो पहले से ही कन्फ्युजियाया हुआ है ...
पुराने मुहावरों लोकोक्तियों या उद्धरणों को, जो अलग-अलग समय में अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग समय और परिस्थितियों में दिए गए थे, यदि अब एक साथ पढ़ा जाए, तो कई बार विरोधाभास तो हो ही जाता है साथ ही कुछ हल्के-फुल्के मनोरंजन के पल भी उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे ही कुछ उद्धरण, बिना किसी पूर्वाग्रह या कुंठा के, उन आदरणीय व सम्मानित महापुरुषों से क्षमा चाहते हुए पेश हैं ! आशा है सभी इसे निर्मल हास्य के रूप में ही लेंगे ...........................!
पावस की आहट ....
दस्तक दे रहा दहलीज पर कोई
चलूँ उठ के देखूँ कौन है
कोई नही दरवाजे पर
फिर ये धीरे धीरे मधुर थाप कैसी?
चहुँ ओर एक भीना सौरभ
दरख्त भी कुछ मदमाये से
पत्तों की सरसराहट
एक धीमा राग गुनगुना रही
कैसी स्वर लहरी फैली।
बचपन ....
बचपन के वे दिन
भुलाए नहीं भूलते
जब छोटी छोटी बातों को
दिल से लगा लेते थे |
रूठने मनाने का सिलसिला
चलता रहता था कुछ देर
समय बहुत कम होता था
गहने ...
अब गहने ख़त्म हुए,
सिर्फ़ माँ बची है,
बच्चों में वह ढूंढती है
पहले जैसा प्यार.
देर से समझ पाई है माँ
गहनों से प्यार का रिश्ता.
काव्य पाठ ...
सावन सा वन-प्रान्त में, क्यों न दिखे उल्लास।
हर-हर बम-बम देवघर, सारा शहर उदास।।
कंधों पर घरबार का, रहे उठाते भार।
आज वायरस ढो रहे, मचता हाहाकार।।
सस्ते वाले कपड़े ...
''हां, वो खुद के लिए सस्ते वाले कपड़े ही खरीदते हैं। लेकिन वो हमारे लिए कभी पैसे का नहीं सोचते। क्या उन्होंने तुझे कभी भी कोई भी चीज खरीदने के लिए मना किया? नहीं न? जब वो हमारे लिए सस्ते कपड़े नहीं खरीदते तो हम क्यों उनके लिए सस्ते कपड़े खरीदे? मुझे उनके लिए ब्रांडेड नाइट पैंट ही खरीदना हैं।''
...
बस
कल फिर
सादर
जुलाई का चौबीसवां दिन
हाँ, अब दिन ही गिना जाएगा
इक्कीस जो देखना है
आज की प्रस्तुति....
इंसान तो पहले से ही कन्फ्युजियाया हुआ है ...
पुराने मुहावरों लोकोक्तियों या उद्धरणों को, जो अलग-अलग समय में अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग समय और परिस्थितियों में दिए गए थे, यदि अब एक साथ पढ़ा जाए, तो कई बार विरोधाभास तो हो ही जाता है साथ ही कुछ हल्के-फुल्के मनोरंजन के पल भी उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे ही कुछ उद्धरण, बिना किसी पूर्वाग्रह या कुंठा के, उन आदरणीय व सम्मानित महापुरुषों से क्षमा चाहते हुए पेश हैं ! आशा है सभी इसे निर्मल हास्य के रूप में ही लेंगे ...........................!
पावस की आहट ....
दस्तक दे रहा दहलीज पर कोई
चलूँ उठ के देखूँ कौन है
कोई नही दरवाजे पर
फिर ये धीरे धीरे मधुर थाप कैसी?
चहुँ ओर एक भीना सौरभ
दरख्त भी कुछ मदमाये से
पत्तों की सरसराहट
एक धीमा राग गुनगुना रही
कैसी स्वर लहरी फैली।
बचपन ....
बचपन के वे दिन
भुलाए नहीं भूलते
जब छोटी छोटी बातों को
दिल से लगा लेते थे |
रूठने मनाने का सिलसिला
चलता रहता था कुछ देर
समय बहुत कम होता था
गहने ...
अब गहने ख़त्म हुए,
सिर्फ़ माँ बची है,
बच्चों में वह ढूंढती है
पहले जैसा प्यार.
देर से समझ पाई है माँ
गहनों से प्यार का रिश्ता.
काव्य पाठ ...
सावन सा वन-प्रान्त में, क्यों न दिखे उल्लास।
हर-हर बम-बम देवघर, सारा शहर उदास।।
कंधों पर घरबार का, रहे उठाते भार।
आज वायरस ढो रहे, मचता हाहाकार।।
सस्ते वाले कपड़े ...
''हां, वो खुद के लिए सस्ते वाले कपड़े ही खरीदते हैं। लेकिन वो हमारे लिए कभी पैसे का नहीं सोचते। क्या उन्होंने तुझे कभी भी कोई भी चीज खरीदने के लिए मना किया? नहीं न? जब वो हमारे लिए सस्ते कपड़े नहीं खरीदते तो हम क्यों उनके लिए सस्ते कपड़े खरीदे? मुझे उनके लिए ब्रांडेड नाइट पैंट ही खरीदना हैं।''
...
बस
कल फिर
सादर
उम्दा संकलन। मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, यशोदा दी।
ReplyDeleteसुप्रभात
ReplyDeleteउम्दा लिंक आज की |मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार सहित धन्यवाद यशोदा जी |
सुन्दर लिंक्स.मेरी कविता शामिल करने के लिए शुक्रिया.
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