सत्रहवीं तारीख जुलाई की
सादर अभिवादन..
सादर अभिवादन..
वगैर किसी लाग-लपेट
रचनाओं की ओर...
रचनाओं की ओर...
सर्व प्रथम पठनीय
मुनिया बोली , " बस आप हमें देवी का अवतार घोषित करने की तैयारियाँ करिये ,'"
आज मुनिया और बाबा को अन्यत्र् अपना धंधा जमाये दस बारह बरस हो गये हैं ...मुनिया की भाषा वेशभूषा सभी कुछ परिवर्तित हो चुके हैं....राम दुलारे को ढूंढकर इस आश्रम के लिए आत्म बलिदान देकर आश्रम को प्रसिद्धि मिल चुकी है ...दूर दूर से लोग यहाँ माथा टेकने आते है मुनिया अब प्रेम की देवी है माँ राधा के नाम से जानी जाती है मग्न हो भक्तों के साथ नृत्य करती हैं क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी उनके दीवाने हैं ... एक दिन इन्हीं भक्तों में उसके साथ की तीन औरतें आयीं अपना दुःख लेकर ...पर वो सभी उसे पहचान गयीं और बोलीं , " अरे तू तू ही है माँ राधा ....क्या कमाल किया कुछ टिप्स हमें भी बता , "
कल रात यूँ हुआ, हाथ जा चाँद से टकरा गया,
तुम्हे छूने की चाह में, हाथ झुलस के रह गया।
दूर जाते - जाते ये तुम कितनी दूर निकल गए !
चाटुकारिता की कला भी होती क्या कमाल है
सदियों से चाटुकार इस फन के होते उस्ताद हैं
नख से शिख,तलवे से दिमाग तक चाटते रहते
नेताओं की कदम बोसी से होते मालामाल हैं।।
मरती भी है 'मैं' धरातल पर
जब उसके त्याग को अनदेखा कर
उसकी धड़कनों को कुचला जाता है।
पेड़ों की टहनियों से झाँकती है
कभी धूप कभी साँझ बनकर।
तिनका तिनका जोड़,
बना लिया एक धाम।
गहन सोच में डूब रही है
प्यारी बया बैठ मुकाम।
शांत है कितनी
नहीं कोई आक्रोश।
सिमट गई स्वयं मे
नहीं कोई रोष।
.......
.......
आज बस
कल फिर
सादर
कल फिर
सादर
सभी लिंक्स बढ़िया अच्छा अंक
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर प्रस्तुति.मेरी रचना को स्थान देने हेतु सादर आभार .
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