कल ही हुई है होली
होने को तो कल हो गई
पर नहीं न हुई है खतम होली
हथेलियों का रंग..
कानों को पीछे का रंग
फलाने और ढिकाने जगह का रंग
इत्ती जल्दी कहां पीछा छोड़ता है
चलिए चलें शायद कुछ सामान्य रचनाएं मिल जाए..
...
मैं भी कुछ पंक्तियां प्रस्तुत कर रही हूँ
ब्लॉग रीडिंग लिस्ट में मिली पर ब्लॉग में नही मिली
ब्लॉग रीडिंग लिस्ट में मिली पर ब्लॉग में नही मिली
अप्रकाशित है अब तक सखी रेणु की रचना है ये
पड़ ना सका जिसका रंग फ़ीका ,
कहो !कैसा था वो अबीर सखा !
प्राण -रज कर गया चटकीली
बोकर प्रेम की पीर सखा !
उस फागुन की हँसी ठिठौली में
मंद- मंद प्यार की बोली में ,
खोये नयन , ना नैन लगे ,
प्रीत की आँख मिचौली में ,
क्या जादू बिखराया बोलो !
कैसी पग बाँधी जंजीर सखा !
मिले जबसे लगन लगी ऐसी
तुम पर ही टिकी मन की आँखें,
बस तुम ही तुम ,कोई और कहाँ?
जो आकर के भीतर झांके
गाये तेरे प्यार का फगुवा ,
मनुवा हुआ कबीर सखा !...
इसके आगे सखी रेणु पढ़वाएंगी
कुछ अनकही, पुरवैय्यों संग बही,
लेकिन, अलसाई थी पुरवाई,
शायद, पुरवैय्यों को, कुछ उनसे कहना था!
उनको ही, संग बहना था,
मैं, इक मूक-दर्शक,
वहीं रहा खड़ा,
उम्मीदें, उन पुरवैय्यों पर कर आया,
जिसने, खुद ही भरमाया!
बाढ़ आई अश्रुओं की,
लालसा के शव बहे।
काल क्रंदन कर रहा है,
स्वप्न अंतस के ढहे ।।
है कहाँ सम्बंध वह जो,
प्रेम रस से हो पगा ।
शताब्दियों से चल रहे हैं
लोग उत्क्रांति की ओर,
आफ्रिका के गोचर भूमि से निकल कर,
शुष्क महा -द्वीप से हो कर पृथ्वी के
अंतिम बिंदु तक,
फिर भी अपने अंदर के
आईने में हम पाते हैं
लक्ष्मण झूला ! ऋषिकेश में गंगा नदी पर बना हुआ यह एक पुल है, जिसे खंभों पर नहीं बल्कि लोहे के मोटे तारों के सहारे बनाया गया है। पहले यह लोगों के और हवा के चलने से झूले की तरह डोलता था इसीलिए इसे झूला नाम दिया गया था। पर अब इसकी उम्र और लोगों के बढ़ते आवागमन को देखते हुए इसे फिक्स कर दिया गया है, अब यह सिर्फ पैदल पथ के रूप में ही प्रयोग किया जाता है। यह गंगा नदी के पश्चिमी किनारे के तपोवन और पूर्वी किनारे पर बसे गांव जोंक को आपस में जोड़ता है।
काश सूरज तेरे घर के
काँच के जार में
बंद रहता
बनी रहती धूप सुनहरी
तेरे आँगन की
और अदरक वाली चाय
मेरे घर की
.....
आखिर मिल ही गई
होली से इतर कुछ रचनाएँ
प्रतीक्षा है भैय्या की
आज दूज है न
सादर..
.....
आखिर मिल ही गई
होली से इतर कुछ रचनाएँ
प्रतीक्षा है भैय्या की
आज दूज है न
सादर..
शुभ संध्या। ।।। मंच पर मुझे भी स्थान देने हेतु आभार।
ReplyDeleteआदरणीय दीदी , सादर प्रणाम | मैंने रचना डाली फिर लगा फागुन तो बीत गया अगले फागुन में सही | हटाई पर आपने पकड ली | फिर से प्रकाशित की है | आधी रचना आपने लिख दी है आधी मेरे स्नेही पाठकवृन्द यूँ तो ब्लॉग पर भी पद लेंगे पर मैं पूरी यहाँ डाल रही हूँ लिंक समेत | हार्दिक आभार आपकी प्रखर दृष्टि का | और सभी रचनाकारों को बहुत बहुत शुभकामनाएं| आपको पुनः आभार |--
ReplyDeleteपड़ ना सका जिसका रंग फ़ीका ,
कहो !कैसा था वो अबीर सखा !
प्राण -रज कर गया चटकीली
बोकर प्रेम की पीर सखा !
उस फागुन की हँसी ठिठौली में
मंद- मंद प्यार की बोली में ,
खोये नयन , ना नैन लगे ,
प्रीत की आँख मिचौली में ,
क्या जादू बिखराया बोलो !
कैसी पग बाँधी जंजीर सखा !
मिले जबसे लगन लगी ऐसी
तुम पर ही टिकी मन की आँखें,
बस तुम ही तुम ,कोई और कहाँ?
जो आकर के भीतर झांके
गाये तेरे प्यार का फगुवा ,
मनुवा हुआ कबीर सखा !
मन -मधुबन में कान्हा बनकर
हुए सम्मिलित आत्म -परिचय में ,
जब से मिल गाया प्रीत -राग
सजे नवछंद ,नित नई लय में ,
महका कण -कण मन प्रांतर का
बही प्रेमिल गंध समीर सखा!
क्यों मोह रहे विश्व- वैभव का
जग में अब विशेष रहा क्या ?
नहीं कामना भीतर कोई
पा तुम्हें ,पाना शेष रहा क्या ?
मैं अकिंचन हुई बडभागी
क्यों रहूँ विकल अधीर सखा !
सादर --
पकड़ी तो मैने भी थी लेकिन जैसे ही ब्लॉग खोला गायब हो चुकी थी । अभी तो ब्लॉग पर है न ?
Deleteरचना का लिंक --
ReplyDeletehttps://renuskshitij.blogspot.com/2021/03/blog-post_29.html
शुभ प्रभात
Deleteआभार सखी..
सादर
सभी लिंक्स बेहतरीन । मौन चिल्लाने लगा सोचने पर विवश करती हुई ।
ReplyDeleteसादर नमन दीदी
Deleteबरसों पहले गुज़रे पल
याद आ गए..
नए-नवेले शायद अब इसी तरह
होली के रंग खेल कर मास भर
चुहुल करते होंगे..
क्षमा सहित..
अनुजा..
नमस्कार आदरणीया,मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन में स्थान देने पर तहेदिल से शुक्रिया आपका ।बहुत लाजवाब संकलन ।
ReplyDeleteसभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं मुग्ध करता हुआ मुखरित मौन , मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीया - - नमन सह।
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