सादर नमस्कार
आज फिर मौन टूट रहा है
हमारा..
चलिए चलें पिटारा खोलें
सफ़ेद-सफ़ेद हथेलियों पर
रंग कसूमल भा गया
कर्तव्य भार अँगुलियों पर
नाख़ूनों पर स्मृति नीर बहा गया।
उस दिन रत्नावली ने कहा था ,'मै हूँ न तुम्हारे साथ.'
'हाँ, तुम मेरे साथ हो.'
पर यहाँ आकर वे हार जाते हैं .अपनी बात कैसे कहें?
नहीं, नहीं कह सकते.
रत्नावली से किसी तरह नहीं कह सकते
मन में बड़े वेग से उमड़ता है -
ज्ञात है, दुःखों से बचना भी इतना
सहज नहीं, फिर भी अनुतापी
छद्मवेश से निकल कर,
पाप पुण्य के वृत्त
से बच कर,
ख़ुद में
भरो
बोनसाई
हो जाना
सच की नहीं
आदमी के
सख्त मुखौटे
की मोटी सी दरार है।
सच
दरारों में
ही पनपता है
अनचाहे पीपल की तरह...।
देख
सुन कर तो
कभी
किसी दिन
समझ
लिया कर
‘उलूक’
अन्दर की
बात का
बाहर
निकलते
निकलते
हवा हवा में
हवा होकर
हवा हो जाना।
.....
बस चार पंक्तियां
बस चार पंक्तियां
जिनके पास अपने है
वो अपनों से झगड़ते हैं,
नहीं जिनका कोई अपना
वो अपनों को तरसते है..
वो अपनों से झगड़ते हैं,
नहीं जिनका कोई अपना
वो अपनों को तरसते है..
सादर
व्वाहहह..
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति..
आभार..
सादर..
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आदरणीय सर।
ReplyDeleteमेरे सृजन को स्थान देने हेतु दिल से आभार।
सादर
बहुत ही शानदार..।.सभी रचनाकारों को खूब बधाई...।.आभार
ReplyDeleteआभार दिग्विजय जी।
ReplyDeleteजो पाया है,उसकी क़दर करना सीख जाये तो बात ही क्या है!
ReplyDeleteनित नए जीवन के रंग लिए मुग्ध करता मुखरित मौन अधिकाधिक लिखने की प्रेरणा देता है, सभी रचनाएं अतुलनीय हैं मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसारे लिंक्स बेहतरीन । शुक्रिया
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