सादर अभिवादन
पहला दिन मार्च का
दूसरा दिन फागुन का
असर तो हो रहा है
फहुनाहट का
छींके जबरदस्त आ रही है
न रंग, न गुलाल
न गुझियों की महक
फिर ये मुआ छींक क्यों
चलिए आज की रचनाएं देखें....
न चेहरे पर झुर्रियाँ ,
न फटे कपड़े:
पागल कहना बेमानी होगा।
तेज था चेहरे पर,
उम्र चालीस-पैंतालीस से
ज़्यादा न दिखती थी।
दिखने में बहुत ही सुंदर
और शालीन थी वह।
कूके न कोयल, ना ही, गाए पपीहा,
तुम जो गए, कल से यहाँ!
भाए न, तुम बिन, ये मद्दिम सा दिन,
लगे बेरंग सी, सुबह की किरण,
न सांझ भाए,
ना रात भाए, कल से यहाँ!
कोई घुस नहीं सकता यहाँ मेरे डर से
मेरी विशाल भुजाओं व विस्तृत उदर से
भय खाते हैं सभी मेरी मिसालों से
अपने गाँव पे मर मिटने को तैयार हूँ मैं
पहले तो समझ लीजिए कि ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार क्यों है
नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार ना होकर ऊपर से नीचे तक
भ्रष्टाचार इसलिए है क्योंकि डिमांड ऊपर से आती है
ना कि नीचे से .
समझ समझ कर समझा लिखना
घुप्प अँधेरा जिसको दिन दिखना
सुबह सवेरे शुरु रात है होती
लिखना भर कर पेट गले तक
घिस घिस लिख कर गले गले तक
‘उलूक’ बेशरम पढ़ने वाले की आँखे
रोती हैं तो रोती।
.....
बस
कल की कल
सादर
.....
बस
कल की कल
सादर
गज़ब की भूमिका लिखी है आपने...।
ReplyDeleteसराहनीय संकलन।
मेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया।
सादर
आदरणीया यशोदा दीदी, नमस्कार ! सुंदर रचनाओं की प्रस्तुति तथा संकलन संयोजन के लिए आपका बहुत बहुत आभार तथा मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका बहुत धन्यवाद..सादर सप्रेम.. जिज्ञासा सिंह ..
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति।
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