आनन्द आ गया..
सबसे मिलकर..
मेरी परी भी बेहद खुश हुई
सबसे मिलकर...आज सुबह लौटे हैं..
पर दीदी थक गई....पर नाराज नहीं थी
आज की पसंदीदा रचनाएँ...
कल गणेश जी पधारे
आइए वंदना करें
गणेश वंदना ...अनीता सुधीर
रिद्धि सिद्धि साथ ले,गणेश जी पधारिये।
ग्रंथ हाथ में धरे ,विधान को विचारिये।।
देव हो विराजमान ,आसनी बिछी हुई।
थाल है सजा हुआ कि भोग तो लगाइये।।
तुम प्रथम ही रहना .....डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
तुम्हें जाने की हठ है; मैं निःशब्द,
मेरी श्वासों में तेरी वही सुगंध शेष है।
तुमने पलों में भ्रम तोड़ डाले सब,
मेरा अब भी वचन- अनुबंध विशेष है।
हासिए से उभरते लोग ...शान्तनु सान्याल
अशांत सागरों के जल समीर थे वो
जो मरू वक्षों में सिंचन करते
रहे, ख़ुद को उजाड़ कर
के, केवल देश हित
का चिंतन
करते
रहे। न जाने कहाँ गए वो लोग
बाढ़ ..ऋता शेखर
सर सर बढ़ते जाते पाँव
पानी में डूबे हैं गाँव।
सर्प निकल करते आघात
बाढ़ बुलाती अति बरसात।
बह जाते हैं फसल मकान
मिट जाते कितने अरमान।
गरमा-गरम पन्ना
‘उलूक’ तू लिख और लिख कर इधर उधर चिपका
हम तेरे जैसे एक नहीं
कई की अपने हिसाब से छवि बना कर
दीवार दीवार चिपकाते हैं
हम छवि बनाते हैं
हम छवि बना बना कर फैलाते हैं
खुली आँखों पर परदे डलवा कर उजाला बेच खाते हैं ।
...
आज बस
सादर
सबसे मिलकर..
मेरी परी भी बेहद खुश हुई
सबसे मिलकर...आज सुबह लौटे हैं..
पर दीदी थक गई....पर नाराज नहीं थी
आज की पसंदीदा रचनाएँ...
कल गणेश जी पधारे
आइए वंदना करें
गणेश वंदना ...अनीता सुधीर
रिद्धि सिद्धि साथ ले,गणेश जी पधारिये।
ग्रंथ हाथ में धरे ,विधान को विचारिये।।
देव हो विराजमान ,आसनी बिछी हुई।
थाल है सजा हुआ कि भोग तो लगाइये।।
तुम प्रथम ही रहना .....डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
तुम्हें जाने की हठ है; मैं निःशब्द,
मेरी श्वासों में तेरी वही सुगंध शेष है।
तुमने पलों में भ्रम तोड़ डाले सब,
मेरा अब भी वचन- अनुबंध विशेष है।
हासिए से उभरते लोग ...शान्तनु सान्याल
अशांत सागरों के जल समीर थे वो
जो मरू वक्षों में सिंचन करते
रहे, ख़ुद को उजाड़ कर
के, केवल देश हित
का चिंतन
करते
रहे। न जाने कहाँ गए वो लोग
बाढ़ ..ऋता शेखर
सर सर बढ़ते जाते पाँव
पानी में डूबे हैं गाँव।
सर्प निकल करते आघात
बाढ़ बुलाती अति बरसात।
बह जाते हैं फसल मकान
मिट जाते कितने अरमान।
गरमा-गरम पन्ना
‘उलूक’ तू लिख और लिख कर इधर उधर चिपका
हम तेरे जैसे एक नहीं
कई की अपने हिसाब से छवि बना कर
दीवार दीवार चिपकाते हैं
हम छवि बनाते हैं
हम छवि बना बना कर फैलाते हैं
खुली आँखों पर परदे डलवा कर उजाला बेच खाते हैं ।
...
आज बस
सादर
आभार दिव्या जी।
ReplyDeleteआभार..
ReplyDeleteसादर...
आभार आदरणीया दिव्या जी - - नमन सह।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteह्रदय से आभार, सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति - - नमन सह।
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