आज का अंक सादर समर्पित
रवींद्रनाथ टैगोर
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ /
रवीन्द्रनाथ ठाकुर » गीतांजलि »
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ।
आओ, गंधों में, वर्णों में, गानों में आओ।
आओ अंगों के पुलक भरे स्पर्श में आओ,
आओ अंतर के अमृतमय हर्ष में आओ,
आओ मुग्ध मुदित इन नयनों में आओ,
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ।
आओ निर्मल उज्ज्वल कांत
आओ सुंदर स्निग्ध प्रशांत
आओ विविध विधानों में आओ।
आओ सुख-दुख में, आओ मर्म में,
आओ नित्य नैमेत्तिक कर्म में,
आओ सभी कर्मों के अवसान में
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : रणजीत साहा
----////---////---////---
थोड़ी सी छुअन लगी
थोड़ी सी बातें सुनी
उन ही से मन में मेरे
रची मन में फाल्गुनी
कुछ तो पलाश का नशा
कुछ चंपा के गंध मिला
उन ही से सुर पिरोये
रंग ओ’ रस जाल बुने
जो थोड़ी देर पास आते
क्षणों के बीच में से
चकित मन कोने में
स्वप्न की छवि बनाते
जो थोड़ी सी दूर भी जाते
भावना स्वर कँपाते
उन ही से दिन बिताये
नूपुर के ताल गिने
थोड़ी सी छुअन लगी...
हिन्दी में अनुवाद : मानोशी चटर्जी
-----////----////-----////------
अगर प्यार में और कुछ नहीं
केवल दर्द है फिर क्यों है यह प्यार ?
कैसी मूर्खता है यह
कि चूँकि हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए उसके दिल पर
दावा बनता है,हमारा भी
रक्त में जलती इच्छाओं और आँखों में
चमकते पागलपन के साथ
मरूथलों का यह बारंबार चक्कर क्योंकर ?
दुनिया में और कोई आकर्षण नहीं उसके लिए
उसकी तरह मन का मालिक कौन है;
वसंत की मीठी हवाएँ उसके लिए हैं;
फूल, पंक्षियों का कलरव सब कुछ
उसके लिए है
पर प्यार आता है
अपनी सर्वगासी छायाओं के साथ
पूरी दुनिया का सर्वनाश करता
जीवन और यौवन पर ग्रहण लगाता
फिर भी न जाने क्यों हमें
अस्तित्व को निगलते इस कोहरे की
तलाश रहती है ?
अंग्रेज़ी से अनुवाद : कुमार मुकुल
-------////-----////-------
आज जागी क्यों मर्मर-ध्वनि !
पल्लव पल्लव में मेरे हिल्लोल,
हुआ घर-घर अरे कंपन ।।
कौन आया ये द्वारे भिखारी,
माँग उसने लिए मन-धन ।।
जाने उसको मेरा यह हृदय,
उसके गानों से फूटें कुसुम ।
आज अंतर में बजती मेरे,
उस पथिक की-सी बजती है ध्वनि ।।
नींद टूटी, चकित चितवन ।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'पूजा' के अन्तर्गत 133 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ /
रवीन्द्रनाथ ठाकुर » गीतांजलि »
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ।
आओ, गंधों में, वर्णों में, गानों में आओ।
आओ अंगों के पुलक भरे स्पर्श में आओ,
आओ अंतर के अमृतमय हर्ष में आओ,
आओ मुग्ध मुदित इन नयनों में आओ,
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ।
आओ निर्मल उज्ज्वल कांत
आओ सुंदर स्निग्ध प्रशांत
आओ विविध विधानों में आओ।
आओ सुख-दुख में, आओ मर्म में,
आओ नित्य नैमेत्तिक कर्म में,
आओ सभी कर्मों के अवसान में
तुम नए-नए रूपों में, प्राणों में आओ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : रणजीत साहा
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थोड़ी सी छुअन लगी
थोड़ी सी बातें सुनी
उन ही से मन में मेरे
रची मन में फाल्गुनी
कुछ तो पलाश का नशा
कुछ चंपा के गंध मिला
उन ही से सुर पिरोये
रंग ओ’ रस जाल बुने
जो थोड़ी देर पास आते
क्षणों के बीच में से
चकित मन कोने में
स्वप्न की छवि बनाते
जो थोड़ी सी दूर भी जाते
भावना स्वर कँपाते
उन ही से दिन बिताये
नूपुर के ताल गिने
थोड़ी सी छुअन लगी...
हिन्दी में अनुवाद : मानोशी चटर्जी
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अगर प्यार में और कुछ नहीं
केवल दर्द है फिर क्यों है यह प्यार ?
कैसी मूर्खता है यह
कि चूँकि हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए उसके दिल पर
दावा बनता है,हमारा भी
रक्त में जलती इच्छाओं और आँखों में
चमकते पागलपन के साथ
मरूथलों का यह बारंबार चक्कर क्योंकर ?
दुनिया में और कोई आकर्षण नहीं उसके लिए
उसकी तरह मन का मालिक कौन है;
वसंत की मीठी हवाएँ उसके लिए हैं;
फूल, पंक्षियों का कलरव सब कुछ
उसके लिए है
पर प्यार आता है
अपनी सर्वगासी छायाओं के साथ
पूरी दुनिया का सर्वनाश करता
जीवन और यौवन पर ग्रहण लगाता
फिर भी न जाने क्यों हमें
अस्तित्व को निगलते इस कोहरे की
तलाश रहती है ?
अंग्रेज़ी से अनुवाद : कुमार मुकुल
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आज जागी क्यों मर्मर-ध्वनि !
पल्लव पल्लव में मेरे हिल्लोल,
हुआ घर-घर अरे कंपन ।।
कौन आया ये द्वारे भिखारी,
माँग उसने लिए मन-धन ।।
जाने उसको मेरा यह हृदय,
उसके गानों से फूटें कुसुम ।
आज अंतर में बजती मेरे,
उस पथिक की-सी बजती है ध्वनि ।।
नींद टूटी, चकित चितवन ।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'पूजा' के अन्तर्गत 133 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)
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और चलते-चलते एक विशेष
लेख आप भी पढ़िए
मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि ‘इस भेंट के बाद उसने मध्यम मार्ग अपनाया’, (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्देश्यों की भी पूर्ति होती रह और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा ? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया ! मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया ! उसके ये मनोभाव एवं उद्देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता ! अपनी पत्नी को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्देश्य को पहली बार दिल खोलकर उजागर किया ! वह लिखता हैः
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आज का अंक यही तक।
कल फिर से मिलिए यशोदा दी से।
#श्वेता
सखी छुटकी..
ReplyDeleteआभार भी नहीं कह सकती
अपने तो अपने ही होते हैं
शाब्बाश, मनचाही प्रस्तुति..
अच्छा चयन..
ता छूट गया श्वेता का टंकित होने से। सुन्दर।
ReplyDelete'एकला चलो रे'। कवि गुरु की स्मृति को नमन! आभार।
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