सादर अभिवादन..
आज बिना किसी
लिखा-पढ़ी के
सीधे रचनाओँ का ओर
आज बिना किसी
लिखा-पढ़ी के
सीधे रचनाओँ का ओर
मेरे ऐक्वेरियम की वो नन्हीं फिश
देखो जीना हमें है सिखा रही
है बंधी फिर भी उन्मुक्त सोच से
काँच घर को समन्दर बना रही
अफ़सोस है दशरथ को,
अयोध्यापति है वह,
पर उसके वश में नहीं है
नुकसान की भरपाई करना.
इक रात ऐसी भी है,जब नींद नही थी आंखों में,
सब कुछ था,साथ भी था..
फिर भी एक अकेलापन,बेचैनी थी मन मे,
क्या इसी रात के लिए मैं अब तक भागे जा रही थी,
महा अंधकार गहराता हुआ, फिर
उठे हैं कपासी मेघदल, हर
चेहरे में है डूबने का
भय, लेकिन
किनारे,
अभी तक, अपनी जगह हैं अचल।
राज कई जीवन से लेके
बुनती हूँ ताने-बाने।
आस पिरोती माला बुनती
सपने जाने पहचाने।
बस आज इतना ही
सादर
बस आज इतना ही
सादर
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सुन्दर संकलन.मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.
ReplyDeleteबहुत सुंदर अंक।
ReplyDeleteअसंख्य धन्यवाद, सुन्दर संकलन व प्रस्तुति - - नमन सह।
ReplyDeleteबहुत सुंदर संकलन, मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया।
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