सादर नमस्कार
आज का अंक मेरे हवाले कर
देवी जी काम - धाम में लगी है
कामवाली जो नहीं आई है..
कोई बात नहीं..
चलिए आज के पिटारे में देखें..
हिमनद के तन सूखते, विलय हुई है देह।
टूट रहे हैं रात-दिन, नदियों के भी नेह॥
तलहटियाँ अब बाँझ-सी, पैदा नहीं प्रपात।
दंश गर्भ में दे गया, कोई रातों रात॥
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!
दादा जी मंदिर में अपनी पूजा–पाठ से निवृत होकर पोते द्वारा बताए गए कमरे में पहुँचकर नाश्ते की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही क्षणों में उनकी बहू नाश्ता लेकर दादाजी के सामने रखकर बोली, "दादा जी! नाश्ता कर लीजिए और किसी चीज की जरूरत हो तो पुकार लीजिएगा।"
क्या वक़्त यूंही थम सकता है।
सूरज के बिना क्या दीपक जल सकता है।
समझ न पाओगे मेरी बातों को तूम।
तुमने हमेशा उजाले से प्यार किया।
तुमने हमेशा अँधेरे का तिरस्कार किया।
मैं ने अपनी बहू को कभी बंदिशों में नहीं रखा फ़िर मैं सास होकर बंदिशों में क्यों रहूँ?'' ''आपको जैसा रहना हैं वैसे रहो...’’ ऐसा कह कर बेटा मुंह बना कर चला गया।
शिल्पा सोचने लगी कि अच्छा हुआ कि इन्होंने घर मेरे नाम किया, नहीं तो आज मेरे ही बेटे-बहू मेरा क्या हाल करते न मालूम!
गिरे धरा पर पुष्प देखकर
मन आया पूछूँ फूलों से
बंद कली से तुम खिलने में
रूप रंग से सजने में
फिर सुगंध रस भरने में
जितना समय लगाते हो
उतना हक़ नहीं जीने का
अल्प अवधि रह पाते हो!
काजू किशमिश
बादाम फल
मिठाई कपड़े लत्ते
अच्छी क्वालिटी
और
अच्छी दुकान से
लाने का आदेश
साथ में दे जाते हैं
खुद ही खा कर
पितर लोगों तक
खाना पहुंचाते हैं
इसलिये भोजन
छप्पन प्रकार का
होना ही चाहिये
समझा जाते हैं
...
काफी है
फिर मिलेंगे
सादर
आभार यशोदा जी।
ReplyDeleteशुभ संध्या, आभार पटल....
ReplyDeleteहार्दिक आभार
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तूति। मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, दिग्विजय भाई।
ReplyDeleteएक बढ़कर एक रचना प्रस्तुति
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