हमारी दीदी पगला गई है
सच कह रही हूँ
सुबह-सुबह मैसेज आया कह रही थी दिवू
कुछ लिंक तलाश कर दियो
हम सोमवार का अंक बनाना भूल गए हैं
हमारी हंसी रुकने का नाम भी नहीं ले रही थी
आज हमारी ट्यूशन की भी छुट्टी है
हम दवा का नाम लिखकर भेज दिए...
आज की रचनाएँ सुबह-सवेरे...
समीर भाई साहब कुछ अजीब सा सोचते है..
भविष्य का इतिहास
आप भी पढ़िए..
चाय नाश्ता आते ही वह चर्चारत हुए। कहने लगे कि ‘आजकल मैं समय लिख रहा हूँ’ समझे? मेरे कानों में महाभारत टीवी सीरियल का
‘मैं समय हूँ’ गूँज उठा पूरे शंखनाद के साथ।
मैंने पूछा कि वो महाभारत वाले समय की
आत्मकथा लिख रहे हैं क्या? मुस्कराते हुए कहने लगे-
मैं जानता था कि तुम नहीं समझोगे। चलो तुमको
इसे सरल शब्दों में समझाता हूँ।
वह सरल शब्दों में बोले कि दरअसल
मैं भविष्य का इतिहास लिख रहा हूँ।
उन जलज लतिकाओं में, खोजता
रहा उसके सीने का मर्मस्थल,
सिर्फ अनुमान से अधिक
कुछ भी न था, कभी
किनारे से सुना
उसका
अट्टहास, और कभी मृत सीप के -
खोल में देखा चाँदनी का
उच्छ्वास,
आसमान जब बाहें फैलता हैं
घना बादल जब आँखे दिखता हैं
देखती हैं ओटो के बीच से
कोई बच्चा देखे जो आँखे मीच के,
कभी अलसाये तो लाल हो,
चाँदनी गालो पे जब गुलाल हो,
नजरों का मिलना और मुस्कुराना ज़ुर्म हो गया
गजब नज़रों में कशिश ईश़्क का इल़्म हो गया
इक अजनवी चेहरा ने किया हृदय ऐसा घायल
कि नजरों के भ्रमजाल में ख़ुद पे ज़ुल्म हो गया ।
चलते- चलते एक गरमागरम खबर
लेखक लेखिका
यूँ ही नहीं लिखा करते
कुछ भी कहीं भी कभी भी
हर कलम अलग है स्याही अलग है
पन्ना अलग है बिखरा हुआ है
कुछ उसूल है
लिखना उसी का लिखाना उसी का
गलफहमी कहें
कहें सब से बड़ी है
भूल है
‘उलूक’
पागल भी लिखे किसे रोकना है
बकवास करने के पीछे
कहीं छुपा है
रसूल है।
बस..
सादर
पगली हो गई है तू
ReplyDeleteलिखने की का ज़रूरत है
फिर भी..
आभार..
आभार दिव्या जी।
ReplyDeleteमैं भविष्य का इतिहास लिख रहा हूँ।
ReplyDeleteवाह!!
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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