नमस्कार
सितम्बर की विदाई शुरु
विधि का नियम है
जो आया है वो जाएगा ही
....
आज मेरे पिटारे से...
सितम्बर की विदाई शुरु
विधि का नियम है
जो आया है वो जाएगा ही
....
आज मेरे पिटारे से...
विहंग दल की भाँति
डैने फैलाए लौट आतीं हैं यादें
वे इंसान नहीं कि
नहीं लौटे दोबारा
बंधनों की दहलीज़
लाँघ मिलतीं हैं अपनत्त्व से।
सुबह-सवेरे आ जाते हैं
मुझसे मिलने परिंदे,
मैं बालकनी में
आराम-कुर्सी पर बैठ जाता हूँ,
मुंडेर पर जम जाते हैं वे,
फिर ख़ूब बातें करते हैं हम.
भोर की पत्ती पर
गूँजती है ओस की बूँद
तो सूरज जागता है ।
देह के भीतर
गूँजती है देह
तो जनमता है
जीवन का अनुनाद ।
ज्ञान यहाँ बंधन बन जाता
भोला मन यह समझ न पाता,
तर्कजाल में उलझाऊँ जग
सोच यही, स्वयं फंस जाता !
शब्द ऊर्जा झरे जहाँ से
गहन मौन का सागर वह है
किन्तु न जाना भेद किसी ने
रंग डाला निज ही रंग में !
ख़फ़ा होने की भी वजह ना बताया
ना आँखों से कहा कुछ न लबों से सुनाया
इक तेरा चेहरा बसा रखा निग़ाहों में
ना होने देता तनहा, सजा रखा ख़यालों में ,
जाने कहाँ से आ जाती है
इतनी ताकत जब
बीस हड्डियों के टूटने का दर्द
“माँ” सुनने के लिए सह जाती हूँ
भूख प्यास जलन अकेलापन
सब मीठी यादों में डुबो देती हूँ
'दहलीज़ें बदल गयी हैं
तू बेटी से औरत बन गयी है'
अंतर्मन को यही लोरी सुनाती हूँ
...
बस
इज़ज़ात
सादर
इज़ज़ात
सादर
आभार..
ReplyDeleteबढ़िया संकलन
सादर..
बहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति।
ReplyDeleteमेरी रचना को स्थान देने हेतु सादर आभार आदरणीय सर।
सादर
सुन्दर संकलन. मेरी कविता शामिल की. शुक्रिया.
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका 🙏🏻
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