सादर वन्दे
मन विचलित है
सही नहीं हुआ मन
काम करने की इच्छा
मानो मर सी गई है
फिर भी चलिए आज की रचनाओं का ओर
फिर भी चलिए आज की रचनाओं का ओर
सार्वभौम सत्ता का स्वप्न रहा
अपूर्ण, शुद्धोधन का हठयोग
न रोक सका सिद्धार्थ
का पथ, समस्त
मायामोह के
बंधन
तोड़ वो एक दिन हुआ बुद्ध, - -
सेहर से शाम शाम से सेहर तक
ज़िन्दगी मानों एक बंद कमरे तक
कभी किवाड़ खोलकर झांकने तक
तो कभी शुष्क हवा साँसों में भरने तक
ज़िन्दगी मानों अपनी सीमा के सीमा तक
बहुत त्याग मांगती रहती हैं जब तक
क्या अब
भी सोचते हो,
जन्नत पाओगे मरने के बाद,
गलत सोचते हो तुम,
अब जहन्नुम मे
ढकेल दिए जाओगे,
क्या पाया तुमने,
ए कत्ले आम करके?
पल सारे इन्तजार के, अब हो चले है सूने,
सहज एहसास, चुनने लगा हूँ मैं,
कोई राग बन कर, सीने में उतर आओगे!
असहज, इस मन को कर जाओगे!
दो पत्थर हैं जो नहीं पिघलते
एक छाती में धधकता लावा है
दूसरा बालों में
तुम्हारी उँगलियों के निशान वाला
चकमक पत्थर
लोग जिसे अस्थि पंजर समझते हैं
वो एक इश्क़ का मक़बरा है
....
बस
कल की कल
सादर
असंख्य धन्यवाद - - सुन्दर प्रस्तुति एवं संकलन, तहे दिल से आपका शुक्रिया - - नमन सह।
ReplyDeleteमेरी रचना के अंश को शीर्षक का रूप देने के लिए आभार....
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपका अभिनंदन। वाकई रचनाएँ पढकर अच्छा लगा। सत्य और प्रेरणादायी रचना हैं।
ReplyDeleteवाकई सुन्दर प्रस्तुति एवं संकलन, तहे दिल से आपका शुक्रिया !
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