सादर अभिवादन
चलिए आज
सीधे प्रस्तुति की ओर...
बगीचे में चुपचाप खड़ा
एक सेमल का पेड़
कितने रंग दिखाता है,
कभी हरे पत्ते,
कभी गहरे लाल फूल,
तो कभी सूखे पीले पत्ते.
फिर किसी घुमावदार मोड़ में मिलेंगे,
अभी तक है हवाओं में जानित
गंध, ख़ुद को उजाड़ के
खड़े हैं दोनों तरफ
सालवन,
वसंत
आए या न आए ये उसकी विवशता है,
अपरिहार्य है लेकिन पुनर्मिलन।
एक मुट्ठी नील बिखेर दी
है दिगंत के उस पार,
समय नहीं बर्बाद करो तुम
खुद को अब आज़ाद करो तुम
ढूंढो कोई मीत निराला
मुझको कुछ प्रतिकार नहीं है
झट से कह दो प्यार नहीं है।।
उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग ! ....
उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !
लिख-लिख कर दरो दीवारों पर,
बंदूकों पर, औजारों पर,
तटबंधों पर, मँझधारों पर,
जो भी मन में हजम ना हुआ
उसकी उल्टी कर रहे हैं लोग !
उफ्फ ! कितना लिख रहे हैं लोग !!!
तारे तोड़ धरा पर लाता
दिग-दिगंतों में भटकता
आडोलित हो सरि तंरग सा
हर चहक में फिर अटकता
कोरे पृष्ठों पर कोरी सी
नित्य पढ़े कविता ये मन।।
उलूक का पन्ना कभी पुराना नहीं होता
भाई क्या हाल और क्या चाल हैं
फिर दूसरा वाक्य और कोई खबर
सबके साथ यही करता है
क्यों करता है
हर कोई इसे भी एक शोध का विषय बनाता है
उलूक दिन में नहीं देख पाता है
तो क्या हुआ
रात में चश्मा नहीं लगाता है
उलूकिस्तान में
इस तरह की बातों को समझना
बहुत ही आसान माना जाता है
आज बस
कल की कल
सादर
आभार यशोदा जी।
ReplyDeleteआपको असंख्य धनयवाद - - नमन सह ।
ReplyDeleteसुन्दर लिंक्स.मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.
ReplyDeleteसुन्दर लिंक्स
ReplyDeleteसुंदर लिंक्स।
ReplyDeleteरचना के समर्थन के लिए आपको जितना धन्यवाद दूँ, कम है दीदी। देर से आने हेतु क्षमा चाहती हूँ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार ।
ReplyDeleteसभी रचनाकारों को बधाई।
बहुत सुंदर अंक।
सादर।