सादर अभिवादन
किसकी सजा
ये कैसा कोप
दुर्दशा क्यों
क्यों मानव बना
असहिष्णु कैसे
उसे तो अपने साथ-साथ
औरों की
चिन्ता क्यों नहीं
परिणाम भुगत रहा
है मानव
अपनी ही करनी का
साग की जगह
फूलोें को
प्राथमिकता
देने का
...लेखन का समय नहीं है
रचनाएं देखे...
भीड़ ....श्वेता सिन्हा
रौद्र मुख ,भींची मुट्ठियाँ,
अंगार नेत्र,तनी भृकुटि
ललकार,जयकार,उद्धोष
उग्र भीड़ का
अमंगलकारी रोष।
खेमों में बँटे लोग
जिन्हें पता नहीं
लक्ष्य का छोर
अंधाधुंध,अंधानुकरण,अंधों को
क्या फ़र्क पड़ता है
लक्ष्य है कौन?
फ्रेंड रिकवेस्ट ....प्रतिभा कटियार
कुछ भूल चुकी थीं
कि वो हैं
भेजने वाले भी भूल चुके थे
भेजकर उन्हें
वो नहीं जानते थे
कि मैं दुनिया की तमाम मित्रताओं पर
आँख मूंदकर करना चाहती हूँ भरोसा
चाहती हूँ हर बढे हुए हाथ को
थाम लेना
हर पुकार की राह पर
दौड़ जाना चाहती हूँ
मन की मीन ...सुबोध सिन्हा
ऐ ! मेरे मन की मीन
मत दूर आसमां के
चमकते तारे तू गिन ..
हक़ीकत की दरिया का
पानी ही दुनिया तेरी
बाक़ी सब तमाशबीन ...
दो पंछी ...साधना वैद
बिल्कुल सम गति सम लय में
समानांतर उड़ रहे थे दोनों,
मधुर स्वर में चहचहाते हुए
कुछ जग की कुछ अपनी
एक दूजे को सुनाते हुए
बड़े आश्वस्त से पुलकित हो
उड़ रहे थे दोनों !
चंद बासी रोटियां...सनीता शानू
चंद बासी रोटियां
किसी बासी याद की तरह
पड़ी रही थी रात भर
छुआ तो लगा कि
कुछ नमी सी है अभी
शायद रात-भर रोई थी
या इनकी गर्मी ही
इनपर बरस रही थी पानी बनकर
पढ़ता कोई नहीं ..डॉ. सुशील जोशी
थाली में सब है
गिलास में भी कुछ नजर आता है
भूख से नहीं मरता है कोई
मरने वालों में कब गिना जाता है
सब कुछ लिखा होता है चेहरे पर
चेहरा किताब हो जाता है
पढ़ना किस लिये अपनी आँखों से
सब पढ़ कर कोई और सुनाता है
मुझे लगता है कि
अब बस करना चाहिए
सादर
किसकी सजा
ये कैसा कोप
दुर्दशा क्यों
क्यों मानव बना
असहिष्णु कैसे
उसे तो अपने साथ-साथ
औरों की
चिन्ता क्यों नहीं
परिणाम भुगत रहा
है मानव
अपनी ही करनी का
साग की जगह
फूलोें को
प्राथमिकता
देने का
...लेखन का समय नहीं है
रचनाएं देखे...
भीड़ ....श्वेता सिन्हा
रौद्र मुख ,भींची मुट्ठियाँ,
अंगार नेत्र,तनी भृकुटि
ललकार,जयकार,उद्धोष
उग्र भीड़ का
अमंगलकारी रोष।
खेमों में बँटे लोग
जिन्हें पता नहीं
लक्ष्य का छोर
अंधाधुंध,अंधानुकरण,अंधों को
क्या फ़र्क पड़ता है
लक्ष्य है कौन?
फ्रेंड रिकवेस्ट ....प्रतिभा कटियार
कुछ भूल चुकी थीं
कि वो हैं
भेजने वाले भी भूल चुके थे
भेजकर उन्हें
वो नहीं जानते थे
कि मैं दुनिया की तमाम मित्रताओं पर
आँख मूंदकर करना चाहती हूँ भरोसा
चाहती हूँ हर बढे हुए हाथ को
थाम लेना
हर पुकार की राह पर
दौड़ जाना चाहती हूँ
मन की मीन ...सुबोध सिन्हा
ऐ ! मेरे मन की मीन
मत दूर आसमां के
चमकते तारे तू गिन ..
हक़ीकत की दरिया का
पानी ही दुनिया तेरी
बाक़ी सब तमाशबीन ...
दो पंछी ...साधना वैद
बिल्कुल सम गति सम लय में
समानांतर उड़ रहे थे दोनों,
मधुर स्वर में चहचहाते हुए
कुछ जग की कुछ अपनी
एक दूजे को सुनाते हुए
बड़े आश्वस्त से पुलकित हो
उड़ रहे थे दोनों !
चंद बासी रोटियां...सनीता शानू
चंद बासी रोटियां
किसी बासी याद की तरह
पड़ी रही थी रात भर
छुआ तो लगा कि
कुछ नमी सी है अभी
शायद रात-भर रोई थी
या इनकी गर्मी ही
इनपर बरस रही थी पानी बनकर
पढ़ता कोई नहीं ..डॉ. सुशील जोशी
थाली में सब है
गिलास में भी कुछ नजर आता है
भूख से नहीं मरता है कोई
मरने वालों में कब गिना जाता है
सब कुछ लिखा होता है चेहरे पर
चेहरा किताब हो जाता है
पढ़ना किस लिये अपनी आँखों से
सब पढ़ कर कोई और सुनाता है
मुझे लगता है कि
अब बस करना चाहिए
सादर
बेहतरीन
ReplyDeleteआभार आपका
सादर...
बहुत अच्छी संध्या दैनिक मुखरित मौन प्रस्तुति।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमाफ़ कीजियेगा। आभार दिग्विजय जी के लिये। अपनी आँखों से अब कोई नहीं पढ़ रहा है पढ़ाने वाला है ना वो जो पढ़े मान लीजिये पढ़ लिया।
Deleteसुन्दर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज का संकलन ! मेरी रचना को भी सम्मिलित किया आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिग्विजय जी ! सादर वन्दे !
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