Friday, April 3, 2020

314..आग खोज भी नहीं है मनुष्य की खुद आग खोज रही थी कोई सुरक्षित हाथ

सादर अभिवादन.
इस बार नवरात्रि में
घर-घर पधारी माता श्री
जहाँ-जहाँ पधारी
वहां -वहां माता जी की
अखंड जोत जागृत रही
आहुति की सुगंध से
वातावरण प्रफुल्लित हो गया
शंख - घण्टे की ध्वनि आती रही
और तो और कन्या भोज के दिन
गौमाता को भरपूर भोजन भी मिला
सार्थक नवरात्रि रही इसबार..
चलिए देखें आज क्या है...

अरसे बाद सब घर में हैं,
मुस्कराती रहती है माँ,
सबको लगता है,
बिल्कुल ठीक है वह,
सबको लगता है,
बीमार नहीं है माँ,
अभी कुछ नहीं होगा माँ को.

क्या सचमुच एकदिन 
मर जायेगी इंसानियत?
क्या मानवता स्व के रुप में
अपनी जाति,अपने धर्म
अपने समाज के लोगों
की पहचान बनकर
इतरायेगी?
क्या सर्वस्व पा लेने की मरीचिका में
भटककर मानवीय मूल्य
सदैव के लिए ऐतिहासिक
धरोहरों की तरह 
संग्रहालयों में दर्शनीय होंगे


आग
मनुष्य का
अविष्कार नहीं, मनुष्य से
पहले से है आग
आग 
खोज भी नहीं है मनुष्य की
खुद आग खोज रही थी
कोई सुरक्षित हाथ
जिसमे कल्याणकारी रहे आग

चेहरों को जलाता,
सुलगता सा,
धूप,
और
मुझसे ही,
परे!
कतराता सा,
दूर होता,
कतरा भर, आसमान!


कोमल सपने  बुनती जीवन में,
समझ सका ना इसको कोई‌।
नारायणी  गंगजल-सी शीतल,
 देख  चाँदनी भी हर्षाई।
सम्मान स्नेह सब अर्पन करती,
कहे  वैदेही  क्यों जलाया ।।
..
आज अब बस
कल फिर
सादर



2 comments:

  1. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आदरणीया दीदी. मेरी रचना को स्थान देने हेतु तहे दिल से आभार.
    सादर

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  2. सुन्दर संकलन. मेरी कविता को शामिल किया. आभार.

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