सांध्य दैनिक अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
अदम गोंडवी
अदम गोंडवी
22 अक्टूबर 1947-18 दिसंबर 2011
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अदम गोंडवी की रचनाएँ मन को झकझोर कर रख.देती हैं इनका असली नाम रामनाथ सिंह था। निपट गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण रचनाएँ चमत्कृत कर देती हैंं।: अदम की रचनायें जड़ता को तोड़ती है और उसे नई चेतना से भर देती है उनकी गजलों की गरमाहट समसामयिक संदर्भ समेटे समाज में बरकरार है। गवईं लहजे में आम आदमी का दर्द उकेरने वाले अदम गोण्डवी की रचनाओं में कुछ ऐसा जादू है कि
पाठक के ज़ेहन में अपना घर बना लेती हैं।
आपने भी पढ़ी होंगी इनकी रचनाएँँ
आज पढ़िये मेरी पसंद के कुछ
ग़ज़ल जो मन के तारों को झनझनाने में सक्षम है।
★★★★★★
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते है जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्या हमारी प्यास की ?
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
याद रखिए यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की
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वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास ले कर क्या करें
लोकरंजन हो जहाँ शंबूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास ले कर क्या करें
कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास ले कर क्या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्स का एहसास ले कर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास ले कर क्या करें
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हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िए
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए
ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए
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तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जमहूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ' गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे ज़ाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
★
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है जिंदगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लमहात से भी तल्ख़तर है जिंदगी
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साए में फिर भी बेख़बर है ज़िंदगी
रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िंदगी
दफ़्न होता है जहाँ आ कर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गंदा असर है ज़िंदगी
★★★★★★★
उम्मीद है आज का अंक
आपको पसंद आया होगा।
आज के लिए इतना ही
कल मिलिए यशोदा दी से।
मन कर रहा है इन सारी रचनाओं को अपने अंदर भर लूँ...। लाजवाब! अप्रतिम! अद्भूत!
ReplyDeleteलाजवाब।
ReplyDeleteमुझे यह कहने में बहुत शर्म आ रही है कि अदम गोंडवी का नाम और क़लाम मैंने उनका स्वर्गवास होने के बाद जाना. क्या कमाल का लिखते हैं (साहित्यकार तो देहावसान के बाद भी अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों के दिलों में ज़िन्दा रहता है) और क्या बेबाक़ी से लिखते हैं ! इस पूंजीवादी-जातिवादी समाज पर और इस मिथ्यावादी राजनीति पर कितने करारे तमाचे जड़ते हैं ! .
ReplyDelete"साधुवाद" आपको इस गोंडवी जी को समर्पित सांध्य मुखरित मौन के विशेष अंक के लिए ...
ReplyDelete"कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए"
सौ बात की एक बात कहती हुई पंक्तियाँ ... और हम हैं कि जाति-सम्प्रदाय में आँख-नाक गड़ाए बैठे हैं। किसके रगों में किसका ख़ून बह रहा है,कहना मुश्किल पर हम अपने आप को देवताओं और पैगम्बरों की औलाद साबित करने में जुटे हैं।
"हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए"
इन नामों के आगे तो अपनी औकात पानी के बुलबुले से ज्यादा नहीं पर हम अपने को हिन्दू, कायस्थ, श्रीवास्तव,अम्बष्ट वाले कौम की बात कर अपनी गर्दन को अकड़ाए हुए हैं।
पुनः नमन आपको इन महान विचार वाले रचयिता की महान रचना से रूबरू कराने के लिए ...