Thursday, December 12, 2019

203....पुराने पड़.गये डर

सांध्य  दैनिक मुखरित मौन में
आप सभी का स्नेहिल अभिनंदन
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दुष्यंत कुमार , 1 सितम्बर, 1933 -  30 दिसम्बर, 1975)

 एक हिंदी कवि और ग़ज़लकार थे। समकालीन हिन्दी कविता विशेषकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता दुष्यंत कुमार को मिली वो दशकों बाद विरले किसी कवि को नसीब होती है। दुष्यंत एक कालजयी कवि हैं और ऐसे कवि समय काल में परिवर्तन हो जाने के बाद भी प्रासंगिक रहते हैं। दुष्यंत का लेखन का स्वर सड़क से संसद तक गूँजता है। इस कवि ने कविता, गीत, ग़ज़ल, काव्य, नाटक, कथा आदि सभी विधाओं में लेखन किया लेकिन गज़लों की अपार लोकप्रियता ने अन्य विधाओं को नेपथ्य में डाल दिया।
आइये पढ़ते हैं उनकी लिखी चंद गज़लें
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कहाँ तो तय था
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कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए


देख दहलीज़ से
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देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली
ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली

कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है
आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली

एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में
मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली

चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है
बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली

तू परेशान है, तू परेशान न हो
इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली

आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा
चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली

कहीं पे धूप की चादर
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कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।

जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।

ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।
★★★

पुराने पड़ गये डर
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पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी


लपट आने लगी है अब हवाओं में
ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी


यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी


तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो—चार पत्थर फेंक दो तुम भी


ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
अगर कुछ बोल कुछ स्वर फेंक दो तुम भी


किसी संवेदना के काम आएँगे
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी.

★★★★★

आशा है आपको आज का अंक पसंद आया होगा।
आपकी प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाती है।

6 comments:

  1. व्वाहहहह...
    क्या बात है..
    साधुवाद...

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  2. वाह, दुष्यंत कुमार की बेहतरीन रचना का चयन बहुत ही सराहनीय है। कोटि आभार इस सुंदर प्रस्तुति के लिए 🙏🙏

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  3. लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
    शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
    गजल के बेताज बादशाह को हजारों सलाम 🙏🙏🙏

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  4. हिंदी ग़ज़ल को नया स्थान देने वाले कलम के सिपाही ... दुष्यंत जी की गजलों को जितना पढो उतना ही आनद आता है ... मेरा नमन ...

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