सादर अभिवादन
आज का आगाज
फिर से उलूकनामे के साथ
ऐसे
माहौल में
कुछ कहना
जैसे
ना कहना है
सिक्का
उछालने वाला
बदलने वाला नहीं है
चित भी उसकी
पट भी उसकी
सिक्का भी
उसी की तरह का
अब रचनाओं पर एक नज़र...
कान्हां तुम न आए मिलने
जमुना किनारे
वट वृक्ष के नीचे
रोज राह देखी तुम्हारी
पर तुम न आए |
इतने कठोर कैसे हुए
करते है श्रृंगार कविता वीर हास्य रस रोद्र में
मुक्त छंद में लिखी कविता रहस्यवाद की ओट में
लोक गीत की भाषा में जो चित्र कविता रचते है
प्रगतिवाद के रचनाकार फिर कवि निराला बनते है
सरे बज़्म में हम, बहुत अकेले से -
रह गए, अनकहे लफ्ज़, ओठों
पे कांपते से रह गए, गहरे
भंवरजाल में था कहीं,
उसका पता,
ताउम्र
मिलने की चाह में, खड़े से रह गए,
उम्मीद के धागों से भविष्य की चादर बुन लेते हैं
विविध रंगों से भ्रमित कोई चटक चित्र चुन लेते हैं
समय की दीर्घा में बैठे गुज़रती नदी की धार गिनते
बेआवाज़ तड़पती मीनों को नियति की मार लिखते
अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,
गढ़े ज्ञान की गीता।
अनहद चेतन अंतर्मन में,
मानेगी मेरी कविता!!!
राह निहारूँ उस पहरी की,
मनमीता मोरी मानें।
काल-चक्र की क्रीड़ा-कला,
जड़-चेतन सब पहचानें।
रचने लगा शिरीष खुशबू के गीत अब
वासन्ती सरसों ,उमंगों की जीत अब
झौर झौर बौर बौर महकी अमराई
गूँज उठी सुधियों के आँगन शहनाई
.....
थोडी सी अझेल प्रस्तुति
मेरे सहनशील पाठक झेल लेंगे
सादर
.....
थोडी सी अझेल प्रस्तुति
मेरे सहनशील पाठक झेल लेंगे
सादर
जी, अत्यंत आभार सुंदर सूत्रों के इस संकलन का!!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं मुग्ध करता हुआ मुखरित मौन, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीया - - नमन सह।
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