Sunday, February 14, 2021

631....बस, तभी सहसा खिलखिला उठते हैं प्रेम और वसंत

सादर अभिवादन...

प्रेम और वसंत....
डॉ. शरद सिंह जी की एक रचना

किसी को
देखते ही
जब
शब्द खो देते हैं
अपनी ध्वनियां
और
मुस्कुराता है मौन

ठीक वहीं से
शुरु होता है
अंतर्मन का कोलाहल
और गूंज उठता है
प्रेम का अनहद नाद
बहने लगती हैं
अनुभूतियों की राग-रागिनियां
धमनियों में
रक्त की तरह

भर जाती है
धरती की अंजुरी भी
पीले फूलों के शगुन से

बस, तभी सहसा
खिलखिला उठते हैं
प्रेम और वसंत
पूरे संवेग से
एक साथ
देह और प्रकृति में।
......
आज स्वास्थ में कुछ गड़बड़ी है
आज एक कविता ही पढ़िए
सादर


3 comments:

  1. यशोदा अग्रवाल जी,
    "सांध्य दैनिक मुखरित मौन" में मेरी कविता को शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभार। आपके इस पटल पर अपनी रचना को देख कर सदा प्रसन्नता होती है।
    🌹🙏🌹
    - डॉ शरद सिंह

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  2. आप सदा स्वस्थ रहें, प्रसन्न रहें, यही ईश्वर से प्रार्थना है ❗🙏❗

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  3. प्रिय यशोदा अग्रवाल जी,
    बहुत सुंदर एवं हृदयग्राही कविता है यह बहन डॉ. शरद सिंह की...शरद जितने अधिकारपूर्वक गद्य में कलम चलाती हैं, उतना ही गीत, ग़जल़, कविता.. पद्य पर भी अधिकार रखती हैं। मेरी अनुजा हैं, लेकिन लेखन में स्वतंत्र व्यक्तित्व की धनी हैं।
    यशोदा जी, आपके स्वास्थ्य के प्रति मैं चिंतित हूं।
    आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए अनंत शुभकामनाओं सहित,
    सस्नेह,
    डॉ. वर्षा सिंह

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