सादर नमस्कार
आज रविवार
हम हैं पिटारा लेकर
देखिए क्या है....
मोह निद्रा सूखती नहीं, बहे जाती है,
सीने के बहुत नीचे, अंतःसलिला
की तरह, रेत के परतों पर
चाँदनी का रहता है
एकछत्र राज,
मैं तेरे बागों की शोभा
दूर्वा बनकर बिछ जाऊँ
रात चाँदनी तारों वाली
सपना बनकर सज जाऊँ
खिल जाऊँ बन प्रेम पुष्प
पाँव चुभे न काटें साथी ।।
किसी नदी के भीतर
पत्थरों का शोर कभी सुना है,
सुनियेगा क्योंकि
वह शोर सामान्य नहीं होता।
वार्तालाप होता है
बहती हुई नदी और पत्थरों के बीच।
नदी के साथ बहते
पत्थरों के जिस्म
बेशक कई बार चोटिल होते हैं
नैनों में बस एक तुम्हीं तो बसते हो
मधुर मिलन की सुधियों में तुम हँसते हो
वंशी के स्वर के संग जो बह जाती थी
उर संचित उस व्यथा कथा को कौन गहे !
मत होने दो
शोषण किसी का
मत होने दो भ्रष्टाचार
मानवता की बलि चढ़ाते
यह मानवीय अत्याचार
जगह जगह पे हिंसा होती
निर्बल मरता भूखा
धनवानों पर धन की बारिश
इज़ाज़त दें
कल की कल
सादर
इज़ाज़त दें
कल की कल
सादर
बेहतरीन..
ReplyDeleteआभार..
सादर..
बहुत ही सुंदर सराहना प्रस्तुति।मुझे स्थान देने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया सर।
ReplyDeleteसादर
शायद आमंत्रण का लिंक ठीक से नहीं बन ओपन नहीं हो रहा।
ReplyDeleteएक बार अवश्य देखे।
सादर
सभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं मुग्ध करता हुआ मुखरित मौन , मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीय - - नमन सह।
ReplyDeleteसभी को शुभकामनाएं !
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति। मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।
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