Wednesday, March 18, 2020

298 ..ज़िंदगी की नाव ,मैंने छोड़ दी है इस संसार रूपी दरिया में


सादर नमस्कार
जा रहा है मार्च भी
वक्त कहां रुकता है
चलायमान है..
हम भी चल रहे हैं साथ-साथ
चलिए छोड़िए..
आज की पसंदीदा रचनाओं पर एक नजर..


प्रभु बोले, अरे मूर्ख ! मैंने तो तेरी हर पल सहायता करनी चाही ! पहले एक नाव भेजी, तूने उसे नकार दिया ! फिर मैंने स्टीमर भेजा, तू उसमें भी नहीं चढ़ा ! फिर मैंने सेना के जवानों को तुझे बचाने भेजा, पर तू कूढ़मगज तब भी नहीं माना ! तो क्या मैं खुद गरुड़ पर सवार हो तुझे बचाने आता ? चल जा अपने लेखे-जोखे का हिसाब होने तक अपने अगले जन्म का इंतजार कर !


ईमानदार होना
एक बड़ी ही अजीब दूर्घटना लगती है
क्योंकि ईमानदारी जगह जगह पर ठोकर खाती है
और ठोकर मारने वाले पत्थर अपने ही होते हैं 
अब गरज वाले
अजनवी बनकर मिलते है उससे,
दुखद 
मिट्टी को सोना बनाने वाले
ख़ाली मकान को टटोलते है 


अपनों के 'जाने' का गम या मिले मुआवज़े का जश्न मनाऊँ
या 'सच' के करेले को 'झूठ' की चाशनी में पुए-पकवान बनाऊँ
कहो ना ! होली का त्योहार भला किस तरह मनाऊँ !?


संसार रूपी दरिया में ,
बह रही है हौले हौले ,
वक़्त के हाथों है 
उसकी पतवार ,
आगे और आगे 
बढ़ते हुये यह नाव 
छोड़ती जाती है 
पानी पर भी निशान ,


अपनी डफ़ली बजा बजा
सरगम सुनाते बेसुरी
बन देवता वो बोलते
कथन सब होते आसुरी।
मातम मनाते सियारी
हू हू कर झुठ का गाना।
रंग शुभ्रा आड़ में
रहे काग यश पाना।
...
बस
कल फिर
सादर

3 comments:

  1. आज इस मंच की बेहतरीन प्रस्तुति में मेरी भी रचना/विचार को साझा करने के लिए आभार आपका ...

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  2. वाह बेहतरीन रचनाओं का संगम

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  3. शुक्रिया और आभार आपका !

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