अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
पूर्व संध्या पर आप सभी को नमन
आज की शुरुआत
आज की शुरुआत
मेरी कलम से प्रसवित कुछ
पंक्तियों से..
पंक्तियों से..
गिन नहीं पाएँगे आप
कितनों के निशाने पर रहती है स्त्री
हारी नहीं फिर भी
रहती है हरदम झूझती
कभी हंसकर..तो
कभी खामोशी से
या फिर करके विद्रोह..
..
अब महिला दिवस से
..
अब महिला दिवस से
ओत-प्रोत कुछ रचनाएँ
अकेली औरतें अकेली कहाँ होती हैं,
घिरी होती हैं वे ज़िम्मेदारियों से,
गिरती-उठती स्वयं ही सँजोती हैं आत्मबल,
भूल जाती हैं तीज-त्योहार पर संवरना।
आँगन में तुलसी का बिरवा
सुबह उठते ही जल चढ़ाती उस पर
दिया लगाती अगर बत्ती जलाती
उसकी सुगंध से महकाती परिसर |
है वह गृहणी इस घर की
घर के लोगों की सम्रद्धि के लिए
करती यथा संभव सभी यत्न
ये खामोश, मूक औरतें
ख्वाहिशों का बोझ ढोते
सदियों से वर्जनाओं मे जकड़ी
परम्पराओं और रुढियों
की बेड़ियों मे बंधी
नित नए इम्तिहान से गुजरती
हर पल कसौटियों पर परखी जाती
सिंक में पड़ी कड़ाही को
साफ़ करते हुए वह सोचती है
कि वह भी कड़ाही जैसी ही है,
आग पर चढ़ाई जाती है,
फिर उतारी जाती है,
...
आज बस
कल फिर
सादर
...
आज बस
कल फिर
सादर
व्वाहहहहहह..
ReplyDeleteसादर शुभकामनाएँ..
सादर..
बहुत ही सुंदर भूमिका आदरणीया दीदी. औरत के अनेकों रूपों से सजी आज की प्रस्तुति सराहना से परे है. गागर में सागर कहे कम ही होगा. मेरी रचना को स्थान देने हेतु सहृदय आभार आपका.
ReplyDeleteसादर स्नेह
सुन्दर संकलन. मेरी कविता को शामिल किया. धन्यवाद.
ReplyDeleteसुन्दर संकलन से सजा आज का अंक |
ReplyDeleteमेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद यशोदा जी |