सारे उत्सव निपट गए
बाकी कुछ न रहा
रह गया तो बस एक
यहाँ खोदा और
पुराना खड्डा भरा
सादर अभिवादन....
चलें रचनाओं की ओर ...
बाकी कुछ न रहा
रह गया तो बस एक
यहाँ खोदा और
पुराना खड्डा भरा
सादर अभिवादन....
चलें रचनाओं की ओर ...
कहाँ तो एक दूसरे को
भाई कहते नहीं थकते थे
दरार कब कहाँ कैसे पड़ी
दोनो जान न पाए
खाई गहरी होती गई
कम नहीं हो पाई
अब तो एक दूसरे को
निगाह भर नहीं देखते
सामने पड़ते ही
मुहं फेर कर चल देते हैं
उसने कर, चर, खप, चटर
सारे सुर लगाए
कंकड़ सा चुभ-चुभ कर
सारे जोर लगाए
हुआ महीन-मुलायम भी, पर .....
मुझे नहीं करनी थी
जो मैंने बात ही नही की।
ये लम्हा वस्ल का ,
हिज्र की सदियों पे भारी है
एहसास होने का तेरे
खुशबू की मानिंद मुझपे तारी है
ऋतुराज वसंत की गलियन में
कोयल रस-कूक सुनावत हैं,
अधरों पर राग-विहाग लिए
अमरावाली में, इठलावट हैं.
मधु-मदिरा पी, भ्रमरों के दल
कलियों पर जा मंडरावत हैं,
आँखे
चौंधियाता ‘उलूक’
प्रकाशमान
होता हुआ
कलम की
नोक से
कुरेदते हुऐ
अपने दाँतो के बीच
ताजी नोची लाश के
चिथड़े को
खुश
हो कर
काम आ गयी
कलम की नोक पर
अपनी
पीठ ठोक कर
अपने को खुद
दाद देता
आज के लिए इतना ही
कल फिर
सादर
धन्यवाद यशोदा जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए |
ReplyDeleteआभारी हूँ यशोदा जी इस बकबकी कूड़े पर नजरे इनायत के लिये हमेशा से।
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