Tuesday, September 21, 2021

768 ...कई चाबियाँ आईं- चली गईं लेकिन न खुला ताला

सादर अभिवादन
कड़वे दिन आ गए
पितृ-पक्ष को लोग कड़वे दिन ही कहते हैं शायद
पर ये दिन होते महत्वपूर्ण हैं..
कुछ यादें और मुलाकातें होते रहती है 
फिर कभी बताउँगी
रचनाएँ देखिए...



किसी के समक्ष प्रिय…मत खुलना
फिर कई चाबियाँ आईं-
चली गईं
लेकिन न खुला ताला
न ताले का मन
यहाँ तक कि
हथौड़े की मार से टूट गया
बिखर गया
लहूलुहान हो गया
मर गया पर अपनी ओर से खुला नहीं !




सूरज ने पश्चिम की
फाँदी दीवार
धरती में पसर गया
साँवल अँधियार
रोशनियाँ सड़कों की
हुई टीम- टाम
दोपहरी सिमट गई
छितराई शाम




हुआ मन अशांत
भरोसा तोड़ दौनों  ने
मझधार में छोड़ा |
समय के साथ जा कर
जाने कहाँ विलीन हुआ  
खुद ने ही धोखा खाया  
अपने अस्तित्व को खो कर |




सुख दुख की ये जीवन राहें
कर ले जो तू करना चाहे
है जीवन दो दिन का मेला
अकेला,राही चल अकेला


मिठाई का डिब्बा लिए आज कलुआ को देखा, आश्चर्य से भर गई । मन सोचते हुए उस पुरानी घटना पर अटक गया और सोचने लगी  कि अरे कैसे उस दिन इन्होंने कलुआ को अपनी गाड़ी के नीचे तक दबा दिया था,जब वो आधी रात को अंधेरे में नशेड़ियों और जुआरियों के साथ दारू के नशे में, पेड़ के नीचे बैठा जुआ खेल रहा था

सादर 

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