Saturday, September 18, 2021

765 ...ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

सादर अभिवादन
विदा मांगता सितम्बर
मैं ये विदाई के बारे में क्यों लिखती हूँ
यूंकि 2020 की त्रासदी झेल चुके मन को
तसल्ली मिले....कि 2022 जो आए
दोनों टीके लगा कर आए

अब रचनाएँ..

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है
वो उंमुक्तता से झुमता है
बशर्ते कि
उसे संयमित अनुपात में
वो सब मिले
जो जरुरी है
उसके विकास के लिये
जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है




दौड़ती थी जिंदगी, दौड़ा इंसान था
थम गया पल में सभी कुछ, क्या कयामत हो गई

लोग कहते हों भले, जो होना है हो कर रहे
अनहोनियां होने लगी पर, क्या कयामत हो गई




रात की
स्याह दीवार पर
चांद का खूंटा
ढो रहा है
तारों की चुनरी को




औरतें पुल बनना नहीं चाहती हैं
इन समाज के ठेकेदारों ने
अपने निकम्मे झोली में से
उन्हें वही शिक्षा दी सदियों से




दायम  पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

क्यों गर्दिश-ए-मुदाम  से घबरा न जाये दिल?
इन्सान हूँ, प्याला-ओ-साग़र  नहीं हूँ मैं

 या रब! ज़माना मुझको मिटाता है किस लिए
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर  नहीं हूँ मैं


सादर 

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