सादर नमस्कार
गुरुवारीय अंक
हमारे खाते में
देखिए आज क्या है
यह सारी कायनात भिन्न नहीं है हमसे
झींगुर बोलता बाहर है पर हम भीतर सुनते हैं
पेड़ पर गाती कोकिल की गूंज भीतर कुछ स्पंदन जगा जाती है
सूरज बाहर है या भीतर ? हमारी आँखें उसी से नहीं देखती क्या
बाहर बहती हवा प्राण भीतर भरती है
विस्मित हूँ,
ऋतु -
परिवर्तन से तुम आज भी हो बेअसर - -
तुम ने आज भी सीने से लगा
रखा है, पहली मुलाक़ात की
नेत्र स्वरलिपि !
तुम्हारा ये
प्रेम है
कोई जब बेचैन हो
कहाँ जाए किससे सलाह लें
यह सिलसिला कब तक चले
यह तक जान न पाए |
मन को वश में कितना रखे
कब तक रखे कैसे रखे
नित कथा लिखती कुटिलता
तथ्य बदले अब समय में
रानियाँ है केश खोले
कोप घर अब हर निलय में
फिर किले भी ध्वस्त होते
जीतती है रार उसकी ।।
मंथरा अवसाद..
...
बस
सादर
...
बस
सादर
आभार..
ReplyDeleteसादर..
सुन्दर संकलन व प्रस्तुति, मेरी रचना शामिल करने हेतु, हार्दिक आभार - - नमन सह ।
ReplyDeleteदेर से आने के लिये खेद है, पठनीय रचनाओं का संयोजन, आभार !
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