सादर अभिवादन
विदा हो रहा है मानसून
होगा ही..
....
आज की रचनाएँ....
उन ख़ामोशियों में, न जाने कितने थे सवाल!
मतिशून्य सा, मैं कहता भी क्या?
और, कहता भी किसे?
यहाँ सुनने को सत्य, बैठा है कौन?
सोचता, रह गया मैं मौन!
ओढ़ ली इक चुप्पी, और कई सवाल!
“तो फिर हमें भी तो थोड़ा जुगत से चले की पड़ी है कि नाहीं?
गैस बचायबे के काजे ही तो यह लकड़ी बीनने आनो पड़त है जंगल में!
बच्चों के नहायबे धोयबे के काजे और घर के और सिगरे
काजन के लिए तो चूल्हा जलाय सकत हैं ना!
किफायत से गैस जलइहें तो गैस ही सबसे सस्ती पड़त है!
घर जाके हिसाब लगा लीजो तुम सब !”
कौन देख रहा है क्या बिक रहा है
किसे पड़ी है कहाँ का बिक रहा है
खरीदने की आदत से आदतन कुछ भी कहीं भी खरीदा जाये
माल अपनी दुकान का ना बिके
थोड़ा सा दिमाग लगा कर पैकिंग का लिफाफा बदला जाये
मालिक की दुकान के अंदर खोल कर एक अपनी दुकान
दुकान के मालिक का माल मुफ्त में
एक के साथ एक बेचा जाये
उर में प्यास लिए राधा की
कदमों में थिरकन मीरा की,
अंतर्मन में निरा उत्साह
उसकी बांह गहो !
जीवन की आकुलता से भर
प्राणों की व्याकुलता से तर,
लगन जगाए उर में गहरी
नित नव गीत रचो !
....
आज बस
कल फिर
सादर
आभार यशोदा जी।
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुन्दर सूत्रों का संकलन आज की पत्रिका में ! मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteशुभ संध्या व शुभकामनाएँ आदरणीया। ।।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
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